बांदा: ‘चुप चुप रहना, घुट घुट जीना, ये बात हमें मंजूर नहीं.’
यही यूपी के बांदा जिले में चलने वाले एक महिला स्वयं सहायता समूह चिंगारी अदालत का आदर्श वाक्य है, जो पितृसत्तात्मक समाज में पीढ़ियों से चुप्पी साधने को मजबूर महिलाओं को बेड़ियां तोड़ने के लिए सशक्त बना रही है और उनके द्वारा झेली जा रही घरेलू हिंसा और यौन शोषण जैसे मुद्दों के खिलाफ आवाज मुखर करने में भी मदद कर रही है.
राजा भैया के नाम से चर्चित एक स्थानीय कार्यकर्ता द्वारा 2001 में पंजीकृत कराई गई विद्या धामी सोसाइटी की तरफ से 2019 में स्थापित चिंगारी अदालत एक अनौपचारिक ‘महिला अदालत’ के तौर पर काम करती है. यह कानूनी सलाह देती है, यह सुनिश्चित करती है कि पीड़ितों को कानूनी मदद मिल सके और जरूरत पड़ने पर उन्हें कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए वित्तीय सहायता भी मुहैया कराती है.
संगठन की चौपाल में तीन महिलाएं मौजूद रहती हैं—35 वर्षीय मुबीना, 54 वर्षीय मीनाक्षी गुप्ता और 50 वर्षीय पुष्पलता. मीनाक्षी और पुष्पलता पिछले तीन दशकों से बुंदेलखंड क्षेत्र में हाशिये पर रहने वाली महिलाओं के लिए काम कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता हैं, मुबीना उन्हें पीड़ितों से जोड़ने वाली एक अहम कड़ी है, जो पीड़ितों से उनकी अपनी बोली-भाषा में बातें करती हैं और अक्सर उन्हें बताती हैं कि मीनाक्षी और पुष्पलता की तरफ से इस्तेमाल की जाने वाली कानूनी भाषा का मतलब क्या है, क्योंकि उनमें से कई ये बातें समझ नहीं पातीं.
हर रविवार को बैठकें होती हैं, जहां महिलाओं को सलाह देने के लिए वकील भी मौजूद रहते हैं. चिंगारी अदालत के कार्यकर्ता पहले महिलाओं की बात सुनते हैं और उन्हें सलाह देते हैं. यदि कानूनी मदद पहले ही मांगी जा चुकी है, तो दस्तावेजों का अध्ययन किया जाता है और आगे कार्रवाई के बारे सलाह दी जाती है. जिन्होंने ऐसा नहीं किया होता है उन्हें पुलिस और अन्य कानूनी उपायों की सहायता लेने के बारे में बताया जाता है. इसके कार्यकर्ता जरूरत पड़ने पर कुछ मामलों में पुलिस और वकीलों से भी संपर्क करते हैं.
राजा भैया ने बताया, ‘गरीबी के कारण, कई महिलाएं अच्छे वकीलों का खर्च वहन करने में सक्षम नहीं होती हैं. हम वित्तीय सहायता भी प्रदान करते हैं. इस तरह, हम यह सुनिश्चित करते हैं कि महिलाओं में सुरक्षा और किसी के साथ खड़े होने की भावना हो. जब न्याय के लिए वे अपनी कानूनी लड़ाई में आगे बढ़ती हैं, तो चिंगारी अदालत उनके पीछे पूरी मजबूती से खड़े रहने की कोशिश करती है.’
चिंगारी अदालत की तरफ से साझा किए गए आंकड़ों के मुताबिक, उसे 2019 में घरेलू हिंसा की 346 शिकायतें मिली थीं 2020 में यह आंकड़ा बढ़कर 477 हो गया और 2021 में जुलाई के अंत तक ही उन्हें 311 शिकायतें मिल चुकी हैं.
हालांकि, राजा भैया के अनुसार, पिछले डेढ़ साल में प्राप्त शिकायतों की संख्या को समस्या की सीमाएं बताने वाला नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि ‘कोविड के दौरान बहुत कम ही महिलाएं उन्हें न्याय दिलाने के लिए बनाई गई इस व्यवस्था का इस्तेमाल कर पाती हैं.’
उन्होंने कहा, ‘इस अवधि के दौरान देशभर में दर्ज की गई एफआईआर की कुल संख्या भी घरेलू हिंसा की सही तस्वीर पेश नहीं कर सकती है.’
यूपी में तमाम जिलों के पुलिस अधिकारी भी उनकी राय से सहमति जताते हैं. उनमें से कई ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि घरेलू हिंसा की शिकार हर पीड़िता पुलिस तक नहीं पहुंचती है. और महामारी के दौरान तो यह सब और भी ज्यादा बढ़ गया है.
यूपी के एक पुलिस अधीक्षक ने कहा, ‘लॉकडाउन के दौरान कई महीनों तक सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध न होने के कारण कई पीड़ित महिलाएं तो अपने घरों से भी नहीं निकल पाईं और प्रताड़ना के कम मामले ही प्रशासन तक पहुंचे. यही नहीं, पुलिस पर भी इस दौरान कोविड प्रबंधन का ही बोझ ज्यादा था.’
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‘उसने दूसरी महिला से शादी कर ली’
जब दिप्रिंट रविवार को बांदा के अट्टारा कस्बे में पहुंचा तो मीनाक्षी, पुष्पलता और मुबीना विद्या धामी सोसाइटी के परिसर में एक अमरूद के पेड़ के नीचे बैठी थीं. उनके सामने डर, चिंता और घबराहट से कांपती 34 वर्षीय नसीम बानो बैठी थीं. वर्षों से कथित घरेलू हिंसा के अलावा वह जिन वित्तीय कठिनाइयों को झेल रही थीं, उसने बानो को एकदम तोड़कर रख दिया था.
उसने दावा किया कि 2006 में उसकी शादी एक दर्जी से हुई थी, उसके कुछ सालों के बाद ही प्रताड़ित किया जाना शुरू हो गया था. आखिरकार 2013 में बानो ने अपने पति के खिलाफ घरेलू हिंसा और दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया. उसके मुताबिक उसने प्रताड़ित करने के साथ ही अधिक दहेज की मांग शुरू कर दी थी.
यद्यपि उसका मामला अब भी बांदा जिला अदालत में लंबित है, उसने दावा किया कि कोर्ट ने 2016 में उसके पति को उसे अंतरिम तौर पर गुजारा-भत्ता देने का निर्देश दिया था. लेकिन बानो, जिसकी करीब 11 साल की एक बेटी है, का आरोप है कि उसके बाद से उन्हें कोई पैसा नहीं मिला है.
उसके लिए एकदम तोड़कर रख देने वाली स्थिति जुलाई में तब आई जब एक करीबी रिश्तेदार ने उसे नई पत्नी के साथ उसके पति की तस्वीरें भेजीं. बानो ने दावा किया कि इस्लामी रिवाज के तहत उसने दोबारा शादी कर ली है जो कि पहले तलाक दिए बिना उसे ऐसा करने की अनुमति देता है. हालांकि, उसने दूसरी शादी को लेकर उसके खिलाफ कोई पुलिस शिकायत दर्ज नहीं कराई है.
बानो ने कहा, ‘उसने तो दूसरी महिला से शादी कर ली, जबकि मैं अपनी बेटी को पालने के लिए कुछ कामकाज तलाशने के लिए दर-दर भटक रही हूं.’
अट्टारा के एक निजी स्कूल में 3,300 रुपये के मासिक वेतन के साथ टीचर की नौकरी कर रही बानो को पिछले साल अपनी नौकरी गंवानी पड़ी जब कोविड महामारी के कारण स्कूल बंद हो गया.
अब, उसके पास यहां तक कि अपने परिवार से भी कोई सहारा नहीं है. यद्यपि उसने खुद को एक सिलाई पाठ्यक्रम के लिए नामांकित करा रखा है, लेकिन उसके पास आय का कोई साधन नहीं है.
उसने बताया, ‘मेरे माता-पिता नहीं रहे. मेरे दोनों भाई मेरी बिल्कुल मदद नहीं करते. मैं सरकार की तरफ से मिलने वाले राशन और मुफ्त गैस सिलेंडर के सहारे किसी तरह गुजर-बसर कर रही हूं. मेरी तीन बहनों में से एक ने आय का कोई साधन न होने तक मेरी बेटी की देखभाल की जिम्मेदारी संभालने की बात कही है.’
जैसे ही बानो एकदम फूट-फूटकर रोने लगी, मुबीना उसके लिए एक गिलास पानी ले आई, मीनाक्षी ने उसे गले से लगाया, और एनजीओ से जुड़ी कार्यकर्ताओं के एक समूह ने तबले की थाप पर ‘चुप चुप रहना, घुट घुट सहना, ये बात हमें मंजूर नहीं’ का सुर छेड़ दिया.
अंत में रोने के कारण सूजा और आंसुओं से भीगा चेहरा धोने के लिए वह उठकर पास ही लगे हैंडपंप की तरफ चली गईं. तभी उसकी जगह कथित तौर पर यौन शोषण की शिकार 16 वर्षीय फिजा ने ले ली.
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‘थाने में पूछे गए असजह कर देने वाले सवाल’
बांदा कस्बे की रहने वाली फिजा ने आरोप लगाया कि उस समय वह घर पर अकेली थी—उसकी मां राशन लेने गई थी—जब एक पड़ोसी ने कथित तौर पर जबर्दस्ती घर में घुसकर उसका यौन शोषण करने का प्रयास किया. उसने दावा किया कि अगले दो महीनों में उसने दो बार और इस तरह का प्रयास किया. दोनों बार उसकी मां, जो एक दिहाड़ी मजदूर है, घर पर नहीं थीं. उसके दोनों भाई गाजियाबाद में काम करते हैं और बांदा में रहने वाले परिवार में सिर्फ फिजा और उसकी मां ही हैं.
मां-बेटी की थाने जाकर एफआईआर दर्ज कराने की हिम्मत नहीं हुई. इसके बजाय फिजा की मां, जो मुबीना के चिंगारी अदालत से जुड़े होने के बारे में जानती थी, ने उससे संपर्क करने का फैसला किया.
मुबीना के मुताबिक, अपराध की गंभीरता और उनके पास उपलब्ध कानूनी उपायों के बारे में जानकारी दिए जाने के बाद उन्होंने पुलिस से संपर्क करने का फैसला किया.
फिजा ने दिप्रिंट को बताया, ‘लेकिन उत्पीड़न के बारे में पुलिस थाने में जिस तरह से सवाल पूछे गए, उससे मैं बहुत असहज हो गई थी. चिंगारी अदालत में बात अलग है. मैं इसी तरह के अनुभवों से गुजरी दर्जनों महिलाओं को देख सकती हूं और मैं बिना किसी झिझक के अपनी पीड़ा के बारे में बता सकती हूं.’
मुबीना ने दावा किया कि कानूनी कार्यवाही में मुश्किलें पेश आने को लेकर फिजा का अनुभव कोई अकेला मामला नहीं है. तमाम बार कुछ समय तक पीड़ितों के साथ पुलिस थानों और अदालतों का चक्कर लगाने वाली इस कार्यकर्ता ने दावा किया कि इन जगहों पर इस्तेमाल की जाने वाली भाषा डराने वाली और ‘पितृसत्तात्मक’ होती है. उसने बताया कि यह सब झेलने वाली कई पीड़ितों ने अपने वास्तविक अनुभव साझा ही नहीं किए क्योंकि उन्हें ‘गलत समझे जाने, शर्मिंदगी का सबब बनने या उन्हें जज किए जाने का डर था.’
अट्टारा में आयोजित बैठकी संगठन के काम करने के तरीके को दिखाती है.
विद्या धामी सोसाइटी के प्रांगण में प्रत्येक रविवार को साप्ताहिक बैठकी आयोजित की जाती है. राजा भैया के मुताबिक, हर सभा में औसतन 15 से 20 महिलाएं आती हैं, और फिजा और बानो की तरह ही उन्हें भी सलाह दी जाती है और कानूनी मदद मुहैया कराई जाती है. बांदा के वकील मंजर अली, राजेंद्र सिंह और द्वारकेश सिंह बारी-बारी से इसमें शामिल होते हैं ताकि पीड़ितों को कानूनी सलाह मिल सके.
शिक्षा से सशक्तीकरण तक
जब राजा भैया ने 2001 में विद्या धामी सोसाइटी की शुरुआत की थी, तो इसका उद्देश्य लड़कियों को शिक्षा प्रदान करना था. हालांकि, समय बीतने के साथ ये एनजीओ क्षेत्र में मानवाधिकारों, कृषि और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को उठाने लगा. 2019 में उस समय एक अहम मोड़ आया, जब एनजीओ की टीम ने देखा कि महिलाओं ने साप्ताहिक बैठकी में आना बंद कर दिया है, जिसका आयोजन लोगों को सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के बारे में शिक्षित करने और सामाजिक जागरूकता फैलाने के लिए किया जाता है.
जब उन्होंने इस बारे में पूछताछ की तो पाया कि यह पितृसत्तात्मक मानसिकता है जिसने महिलाओं पर ‘पर्दा’ थोप रखा है. धीरे-धीरे उन्होंने दुर्व्यवहार के उन मामलों की भी सुनवाई शुरू कर दी, जिन्हें महिलाओं के लिए व्यक्त करना मुश्किल होता था.
राजा भैया ने बताया कि इस तरह चिंगारी अदालत का आगाज हुआ, जो एक ऐसा मंच है जो अक्सर चुपचाप सही जाने वाली पीड़ाओं पर ग्रामीण महिलाओं की आवाज बनता है.
राजा भैया ने बताया, ‘हमें व्यक्तिगत मामलों में पता लगाने पर जानकारी मिली कि घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाएं बैठकी में हिस्सा नहीं ले रही थीं. यही नहीं उपयुक्त माहौल न होने के कारण थानों और अदालतों का रुख भी नहीं कर रही थीं. चिंगारी अदालत में पीड़ितों की बात सुनी जाती है, उन्हें परामर्श दिया जाता है और कानूनी लड़ाई लड़ने में उनकी मदद की जाती है.’
2020 में कोविड महामारी और इसके कारण देशभर में लगाए गए लॉकडाउन ने संगठन के कामकाज को काफी प्रभावित किया है. कई महीनों तक अदालत की बैठकें स्थगित रहीं. राजा भैया ने बताया कि दूसरी कोविड लहर के बाद, जैसे ही साप्ताहिक सभाएं फिर से शुरू हुईं अधिक से अधिक महिलाएं अपनी मुसीबतों को दूर करने का रास्ता खोजने की उत्सुक नजर आने लगीं.
मुबीना के अनुसार, संगठन के लिए सबसे बड़ी चुनौती पीड़ितों को उनकी अपनी ताकत और क्षमताओं के बारे में जागरूक करना होता है, ताकि उन्हें यह समझाया जा सके कि वे ‘कमजोर तबके’ से नहीं आती हैं.
मुबीना कहती हैं, ‘उन्हें खुद को लगे आघात से बाहर निकालने के लिए कई दौर की बैठकें करनी पड़ती हैं और तभी हम उनका भरोसा जीत पाते हैं. हम उन्हें कतई ऐसा नहीं कहते जैसा आमतौर पर महिलाओं को समझाया जाता है कि ‘समझौता कर लो’ या जो कहा जा रहा है मान जाओ. बल्कि हम उनका हाथ थामने की शुरुआत करते हैं और फिर वे खुद ही अपनी लड़ाई लड़ने के लिए अच्छी तरह तैयार हो जाती हैं.’
सभा से निकलते ही बानो में अपनी जंग लड़ने का आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प साफ नजर आ रहा था.
उसने दिप्रिंट से कहा, ‘मुझे निर्णय चाहिए, मुआवजा चाहिए और अब पीड़ित बनकर नहीं रहना है.’
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