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Sunday, 28 April, 2024
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रोग-प्रतिरोधी आलू, फोर्टिफाइड केले – 2 और जीएम फसलों को सरकार की मंजूरी, इस साल ट्रायल

पिछले कुछ महीनों में सरकारी पैनल ने कई जीएम फसलों के लिए फील्ड ट्रायल को हरी झंडी दिखाई है. लेकिन अभी भी आशंका बनी हुई है कि जीएम को लेकर कार्यकर्ताओं की तरफ से बढ़ता विरोध कहीं ट्रायल को पटरी से न उतार दे.

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नई दिल्ली : सरसों के बाद भारत दो और जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों – केले और आलू का ट्रायल शुरू करने के लिए तैयार है. शायद यह बायोटेक-संवर्धित खेती के एक नए युग की शुरुआत है.

पिछले कुछ महीनों में जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेजल कमेटी (GEAC) ने रबड़ और कपास की नई किस्मों सहित कई जीएम फसलों के फील्ड परीक्षणों के लिए अनुमति दी है. 2022 में जीएम कपास को मंजूरी दिए जाने के बाद से यह क्षेत्र लगभग दो दशकों तक धीमी गति से आगे की ओर बढ़ रहा था. लेकिन हाल-फिलहाल में इसमें काफी तेजी देखने को मिली है.

हालांकि, परीक्षणों को कागजों पर तो मंजूरी मिल चुकी है, फिर भी जीएम फसलों के लिए बढ़ते विरोध की आशंका डरा रही है कि कहीं यह ट्रायल बीच में ही न लटक जाएं.

शिमला में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर)-केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (सीपीआरआई) के संजीव शर्मा ने कहा ‘फसल की सुरक्षा को लेकर चिंता होना स्वाभाविक है. हमारे पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, इसलिए कार्यकर्ताओं को अपने मुद्दे उठाने का अधिकार है. लेकिन फसल खाने के लिए सुरक्षित है या नहीं, यह बताने के लिए सबूत और डेटा प्रदान करना एक वैज्ञानिक का काम है.’ शर्मा जीएम आलू की फसल पर काम कर रहे हैं.


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‘लेट ब्लाइट’ से जूझता आलू

शर्मा साल 2005 से आलू की एक ऐसी किस्म विकसित करने पर काम कर रहे हैं जो लेट ब्लाइट नामक फंगल डिजीज से लड़ सके.

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‘लेट ब्लाइट’ फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टान्स रोगाणु की वजह से होता है. यह टमाटर और सोलेनेसी परिवार के अन्य पौधों में होने वाली बीमारी है. इसमें मिर्च और बैंगन भी शामिल हैं. पौधों को लगने वाली ये बीमारी ठंडे, गीले मौसम में तेजी से फैलती है और आलू की फसल को काफी नुकसान पहुंचा सकती है.

भारत में आलू सबसे महत्वपूर्ण फसलों में से एक है और ‘लेट ब्लाइट’ आलू उत्पादकों के लिए एक बड़े चिंता का विषय है. आईसीएआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, लेट ब्लाइट से आलू की पैदावार में 50 फीसदी तक का नुकसान हो सकता है.

यह बीमारी आलू को इंसानी उपभोग या प्रॉसेसिंग के लिए अनुपयुक्त भी बना सकती है. इसकी वजह से किसानों को आगे चलकर आर्थिक नुकसान का सामना भी करना पड़ जाता है.

आईसीएआर के आंकड़ों के अनुसार, भारत में लेट ब्लाइट के कारण औसत वार्षिक नुकसान कुल उत्पादन का 15 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया है. यह बीमारी पूरे देश में फैली हुई है, लेकिन मैदानी क्षेत्रों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्रों में नुकसान कहीं ज्यादा होता है. क्योंकि यहां वर्षा आधारित परिस्थितियों में फसल उगाई जाती है.

शर्मा ने बताया, ‘गेहूं और चावल के बाद आलू दुनिया की तीसरी सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है. भारत में इस फसल को 2.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया जाता है और इसका लगभग 53 मिलियन मीट्रिक टन वार्षिक उत्पादन होता है. उत्पादकता लगभग 23 से 24 टन प्रति हेक्टेयर है.’

उन्होंने कहा कि 90 फीसदी फसल उप-उष्णकटिबंधीय भारत-गंगा क्षेत्र में उगाई जाती है. यहां महामारी के रूप में हर तीसरे या चौथे फसल चक्र के बाद पौधे लेट ब्लाइट के चपेटे में आ जाते हैं.

शर्मा ने कहा कि जब लेट ब्लाइट हमला करता है, तो किसानों के लिए लागत सालाना 70,000 करोड़ रुपये तक पहुंच सकती है. परंपरागत रूप से, बीमारी से बचाने के लिए कीटनाशकों और कवकनाशियों का सहारा लिया जाता है, जो खेती की लागत को बढ़ा देता है.

इसके अलावा, रोगाणु कवकनाशी के संपर्क में आने के बाद फसल धीरे-धीरे इसके प्रति प्रतिरोध क्षमता विकसित कर लेती है. शर्मा ने कहा, ‘आठ से 10 सालों में रोगाणु यहां तक की नई ब्लाइट-रेजिस्टेंट किस्मों के लिए भी प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर लेता है. इन किस्मों को इनब्रीडिंग के जरिए तैयार किया गया है.’

इसी को ध्यान में रखते हुए टीम ने आलू की एक नई किस्म विकसित की है जो आरबी जीन के रूप में जाने जाने वाला जीन को जाहिर करती है. जंगली आलू की प्रजाति सोलनम बुलबोकास्टेनम से लिया गया यह जीन, पौधे को लेट ब्लाइट के लिए प्रतिरोधी बनाता है.

अमेरिका में वैज्ञानिकों के साथ मटेरियल ट्रांसफर एग्रीमेंट के तहत टीम ने जीएम आलू का आयात शुरू किया. शर्मा ने कहा, ‘उस किस्म को कुकरी ज्योति नामक सबसे लोकप्रिय भारतीय किस्म के साथ क्रॉस-ब्रीड किया गया है. यह फसल भारत में 21 प्रतिशत से ज्यादा क्षेत्र में उगाई जाती है.’

‘KJ 66’ नई जीएम किस्म को अब बायोसेफ्टी रिसर्च लेवल (बीआरएल)-1 और बीआरएल-2 ट्रायल से गुजरना होगा. बीआरएल-1 ट्रायल एक सीमित प्रयोग हैं जहां बुवाई प्रत्येक परीक्षण स्थान के लिए एक एकड़ भूमि तक सीमित है. अनुसंधानकर्ता इस अवस्था में एक बार में 20 एकड़ से ज्यादा के क्षेत्र में बीज नहीं बो सकते हैं. बीआरएल-2 परीक्षणों में प्रत्येक स्थान पर एक हेक्टेयर (2.47 एकड़) तक की जमीन का इस्तेमाल किया जा सकता है.

शर्मा ने कहा, ‘हम छह अलग-अलग तरह के इलाकों में ट्रायल करने की योजना बना रहे हैं. इनमें से तीन ट्रायल पहाड़ी इलाकों में और तीन उप-उष्णकटिबंधीय मैदानों में किए जाएंगे. ट्रायल के लिए मेघालय और हिमाचल सरकार की तरफ से अनापत्ति प्रमाण पत्र मिल गया है. हमने अन्य राज्यों से भी संपर्क किया है.’

वैज्ञानिक इस साल शिमला और शिलॉन्ग में खरीफ सीजन में ट्रायल के लिए पहला बीज बोने की योजना बना रहे हैं.

विभिन्न पारिस्थितिक क्षेत्रों में किया गया ट्रायल वैज्ञानिकों को बेहतर आकलन करने में मदद करेगा कि क्या यह किस्म पूरे देश के लिए उपयुक्त है या फिर इसे खास स्थानों तक सीमित रखना होगा. सीपीआरआई ने अनुमति के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब से भी संपर्क किया है.


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केले को और अधिक पौष्टिक बनाने के लिए

राष्ट्रीय कृषि-खाद्य जैव प्रौद्योगिकी संस्थान (एनएबीआई)-मोहाली में रिसर्चर सिद्धार्थ तिवारी केले को और अधिक पौष्टिक बनाने पर काम कर रहे हैं.

व्यावसायिक रूप से उगाए जाने वाला केला एक बीज रहित फसल है. इसलिए इसकी क्रॉस-ब्रीडिंग का काम काफी मुश्किल हो जाता है. उपभोक्ता के फायदे के लिए हाइब्रिड पौधा तैयार करने की प्रक्रिया में दो दशकों तक का समय लग सकता है.

तिवारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘जीएम तकनीक केले के गुणों को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है. केले को बेहतर बनाने के लिए हम सिर्फ बायोटेक्नोलॉजी एडवांस पर भरोसा कर सकते हैं.’

तिवारी की टीम की लड़ाई फसल में किसी बीमारी से नहीं है. बल्कि, वे एक सर्वव्यापी और किफायती खाद्य स्रोत के जरिए एनीमिया और विटामिन ए की कमी से निपटना चाहते हैं.

तिवारी ने कहा कि गोलियों के रूप में विटामिन ए और आयरन सप्लीमेंट हमेशा व्यवहार्य नहीं होते हैं. लेकिन पोषक तत्वों वाले मौजूदा खाद्य पदार्थों को और पोषक बना देना एक बेहतर तरीका हो सकता है.

NABI मोहाली ने 2012 में परियोजना पर काम करना शुरू किया था. प्रो-विटामिन ए के लिए टीम ने NEN-DXS2 जीन को केरल में एक आम केले की किस्म से उधार लिया. इस किस्म को नेंद्रन के नाम से जाना जाता है.

OsNAS1 या OsNAS2 जीन जो आयरन का प्रतिनिधित्व करता है, इसके लिए अनुसंधान दल ने चावल की ओर रुख किया. तिवारी ने कहा, ‘अब हमारे पास सभी अनुमतियां हैं, हम अगले कुछ महीनों में अपना परीक्षण शुरू करने की उम्मीद कर रहे हैं.’

इस साल तमिलनाडु, गुजरात, असम और पंजाब में ट्रायल की योजना बनाई गई है. इस ट्रायल को इवेंट सल्केशन ट्रायल कहा गया है. सभी परीक्षण संस्थागत परिसर के भीतर आयोजित किए जाएंगे.

उन्होंने कहा, ‘पौधों को फल देने में 2 साल लगेंगे, जिसके बाद वैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे कि कौन सी फसल सबसे आशाजनक है और आगे के बीआरएल परीक्षणों के लिए उन पर विचार किया जाएगा.’

चूंकि केले की फसल को फल देने में 2 साल लगते हैं, इसलिए NABI मोहाली की टीम को आगे के परीक्षणों के लिए उम्मीद दिखाने वाली फसल का चयन करने में कम से कम तीन साल लगेंगे. अभी, टीम के पास GM केले की कुछ 20 किस्में हैं जिन्हें वे आज़माना चाहते हैं.

बाधाएं और अदालती मामले

जब भारत में जीएम कपास को मंजूरी दी गई थी यानी 2002 से जीएम फसलों के क्षेत्र में प्रगति ऐसी फसलों के खिलाफ विवादों और कार्यकर्ताओं के विरोध के कारण डगमगाती रही है.

केंद्र सरकार ने कई सालों के फील्ड परीक्षण और विभिन्न हितधारकों के साथ परामर्श के बाद 2009 में बीटी बैंगन की फसल को व्यावसायिक खेती की मंजूरी दी थी. लेकिन फसल की सुरक्षा और पर्यावरणीय प्रभाव को लेकर उठी चिंताओं के बाद, सरकार ने 2010 में बीटी बैंगन की व्यावसायिक खेती पर रोक लगा दी.

बांग्लादेश में बीटी बैंगन की सफलता के बावजूद यह रोक आज भी कायम है. 2020 में, केंद्र सरकार ने बीटी बैंगन के परीक्षणों को मंजूरी दी, लेकिन जब राज्यों ने अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी नहीं किया तो इस विचार को छोड़ दिया गया.

जीईएसी की ओर से जीएम सरसों के फील्ड परीक्षण के लिए मंजूरी मिलने के बाद भी फसल विवादों में फंस गई है. एक्टिविस्ट अरुणा रोड्रिग्स ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर जीएम सरसों पर रोक लगाने की मांग की है.

उनकी याचिका के अनुसार, 25 से अधिक देशों ने जीएमओ पर प्रतिबंध लगाया हुआ है. इन देशों में फ्रांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड और रूस शामिल हैं, जबकि जीएमओ पर पर्याप्त प्रतिबंध 60 से अधिक देशों में मौजूद हैं. याचिका में जीएमओ के अप्रूवल प्रॉसेस की जांच की मांग की गई है. मामला अभी कोर्ट में है.

इसकी वजह से तिवारी और शर्मा जैसे वैज्ञानिक अपने फील्ड परीक्षणों पर बहुत अधिक ध्यान देने को लेकर सतर्क हो गए हैं, हालांकि उन्हें उम्मीद है कि वे उनके पीछे के विज्ञान को साबित करने में सफल हो जाएंगे.

तिवारी ने कहा, ‘हमने इस तकनीक में हाल-फिलहाल में काफी प्रगति देखी है. बांग्लादेश में बीटी बैंगन 2015 से ही उगाया जा रहा है. बांग्लादेश के किसानों को इस फसल से काफी फायदा मिल रहा है. फिलीपींस भी अपना गोल्डन राइस लेकर आ गया है और वहां इसकी खेती की जा रही है.’

उन्होंने आगे कहा कि अमेरिका और कनाडा जैसे अन्य विकसित देश पहले से ही सोयाबीन, मक्का और कपास जैसी जीएम फसलें उगा रहे हैं. कैनोला तेल – जिसे भारत कनाडा से आयात करता है – जीएम बीजों से उत्पादित होता है.

वह कहते हैं, ‘हमने इन उत्पादों को लेकर किसी तरह की परेशानी या नकारात्मक प्रभाव नहीं देखा है. किसानों और उपभोक्ताओं ने इन फसलों के बारे में अपनी धारणा बदली है.’

उन्होंने कहा कि जलवायु संकट के इस दौर में दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के लिए पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती है.

उन्होंने कहा, ‘अगर सरकार हमारा समर्थन करती है, तो जीएम केला स्कूलों में मिड डे मील और पोषण अभियान का हिस्सा बन सकता है. केला अधिकांश कमजोर आबादी को पर्याप्त पोषण प्रदान करने में मदद करेगा.’

सरकार के रुख में बदलाव

कपास और रबर की नई किस्मों सहित जीएम फसलों के लिए तेजी से मिली स्वीकृतियां साफ तौर पर इशारा कर रही हैं कि केंद्र सरकार जीएम-समर्थक रुख अपना रही है.

तिवारी ने कहा, ‘मुझे लगता है कि सरकार इसे लेकर काफी सकारात्मक है. यही वजह है कि वे इसका समर्थन कर रहे हैं.’

शर्मा ने कहा, ‘मैं समझता हूं कि अब जीएम बीजों को लेकर धारणा बदल गई है, क्योंकि सरकार बीआरएल-1 ट्रायल के लिए इतनी सारी मंजूरी दे रही है.’

उन्होंने कहा, ‘हम वैज्ञानिक हैं. हम सिर्फ आइडिया दे सकते हैं. आखिर में मंजूरी तो नीति निर्माताओं की तरफ से ही आती है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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