scorecardresearch
Wednesday, 11 December, 2024
होमदेशबाजरा लेगा गेहूं की जगह! कैसे बाजरे को खाने में बहुपयोगी और 'लक्जरी' बना रहा है ICAR

बाजरा लेगा गेहूं की जगह! कैसे बाजरे को खाने में बहुपयोगी और ‘लक्जरी’ बना रहा है ICAR

ICAR-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की टीम बाजरे के आटे को और नरम बनाने, इसके लंबे समय तक टिकने, इसे गेहूं एवं चावल के आटे के विकल्प के रूप में पेश करने के लिए सदियों पुरानी भारतीय तकनीक का उपयोग कर रही है.

Text Size:

नई दिल्ली: साल 2016 में अपनी सास द्वारा बनाए गए इडियप्पम, या राइस स्ट्रिंग हॉपर, का लुफ्त उठाती विनुथा टी. को यह देखकर काफ़ी हैरानी हुई कि इस डिश में चावल के आटे का स्वाद काफी फ़्रेश था.

आईसीएआर-इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएआरआई) में बायोकेमिस्ट विनुथा ने कहा, ‘उन्होंने मुझे बताया कि असल में तो वह आटा आठ से नौ महीने पुराना था लेकिन मुझे तो यह एकदम ताज़ा लग रहा था.’

इसके बाद जब विनुथा ने अपनी सास से इस ताज़गी के पीछे छिपे राज़ के बारे में पूछा तो इस वैज्ञानिक को उस सदियों पुराने हीटिंग ट्रीटमेंट (अनाज को गर्म करके संसाधित करने वाले तरीके) के बारे में पता चला जिसका उपयोग कई सारे तमिल परिवार चावल के आटे को एक साल के समय तक स्टोर करने के लिए करते हैं. विनुथा ने बताया कि इस तकनीक में पहले चावल को भिगोना और उसे दरदरा पीसना होता है और फिर इसे सुखाने से पहले इडली कुकर में भाप लगानी होती है.

विनुथा, जिनकी टीम उस समय बाजरे की शेल्फ-लाइफ (अनाज के ख़राब होने से पहले की अवधि) बढ़ाने पर काम कर रही थी, यह तरीका किसी बड़े राज से पर्दा उठने की तरह था. उस समय तक, सॉल्ट और केमिकल्स समेत कई प्रकार के एडिटिव (योजकों) का इस्तेमाल करने की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुई थीं.

अगले ही दिन, उन्होंने अपनी प्रयोगशाला में एक इडली कुकर ले जाने का फैसला किया. वे बताती हैं कि इस प्रयोग का अंतिम परिणाम 90 दिनों की शेल्फ लाइफ के साथ वाले बाजरे के आटे के रूप में सामने आया. लगभग 10 दिनों के अपने पिछले शेल्फ लाइफ की तुलना में यह एक अच्छी खासी बेहतरी थी.

आज के दिन में, विनुथा की टीम अपने शोध के अलावा आईएआरआई के तमाम आयोजनों में शामिल होने वाले गणमान्य व्यक्तियों के लिए स्वादिष्ट बाजरा-आधारित भोजन तैयार करने की देखरेख भी करती हैं जिसका मकसद यह साबित करना है कि कैसे उनका तैयार किया गया बाजरे का आटा गेहूं और चावल के आटे की जगह ले सकता है.

उनका यह काम सीधे-साधे बाजरे को भोजन के एक लक्जरी विकल्प के रूप में तैयार करने के आईसीएआर के प्रयासों का हिस्सा है और यह एक ऐसा मिशन है जो इसकी खेती और खपत को बढ़ावा देने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा की जा रही पहल के एकदम अनुरूप है. यह नीति खाद्य और पोषण सुरक्षा में सुधार लाने और ग्रामीण आबादी की आजीविका का अतिरिक्त समर्थन देने के दोहरे उद्देश्य को पूरा करती है.

विनुथा ने कहा, ‘अगर हम पश्चिमी देशों को देखें तो उन्होंने ओट्स को भारतीय बाजारों में भी लोकप्रिय बनाने में कामयाबी हासिल की है. हमने सोचा, हम बाजरा के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते?’

इन वैज्ञानिक के अनुसार बाजरे में दो बड़ी कमियां हैं जिन्होंने भारतीय रसोई में इसकी लोकप्रियता को सीमित कर दिया है.

इनमें पहली कमी है लिपिड या फैटी कंपाउंड्स (चर्बी वाले यौगिकों) के उच्च प्रतिशत के कारण इसकी शेल्फ लाइफ का कम होना. इसका मतलब यह है कि लंबे समय तक ऑक्सीजन के संपर्क में रहने से ये लिपिड अनचाहे हाइड्रोपेरॉक्साइड्स में बदल सकते हैं, जिसकी वजह से आटा 10 दिनों में ही बासा हो जाता है.

एक और समस्या इस बात को सुनिश्चित करने की रही है कि आटा नरम हो. विनुथा कहती हैं, ‘बाजरे के आटा में गेहूं के आटे के समान नरमी नहीं होती है.’

हालांकि, बाजरे के आटे से बनी रोटियां अभी भी कई सारे राज्यों की रसोई में बनाया जाने आम खाद्य पदार्थ है लेकिन एक बड़ी आबादी को इसकी तरफ आकर्षित करने के लिए इसे और अधिक स्वादिष्ट बनाने की जरुरत है. इसके लिए, उनके अनुसार यह ज़रूरी है कि आटा नरम हो.

उन्होंने कहा कि अधिक नरम आटा बाजरा को कुकीज़, ब्राउनी, बर्गर और पिज्जा जैसे अधिक आकर्षक खाद्य पदार्थों में गेहूं की जगह लेने की सुविधा देगा.


यह भी पढ़ें : बरकरार है अगड़ी जातियों की गिरफ्त भारतीय मीडिया पर


शेल्फ लाइफ को बढ़ाना

उन्होंने कहा कि पहली समस्या का समाधान बाजरे के आटे पर ‘ड्राई हीट ट्रीटमेंट’ का उपयोग करके किया गया.

इन वैज्ञानिक ने कहा कि ‘ड्राई हीट ट्रीटमेंट’ उस एंजाइमेटिक गतिविधि को रोकता है जिसकी वजह से पौधे में बासीपन या दुर्गन्ध पैदा होती है और इससे इसकी शेल्फ लाइफ बढ़ जाती है.

हालांकि, असल चुनौती यह थी कि इस तकनीक को बाजरा पर उपयोग करने के लिए किस तरह से अनुकूल बनाया जाए. जिस तकनीक को उन्होंने सीखा था उसका उपयोग करना बाजरे के आटे को ड्राई हीट (सुखाकर गर्म करना) करने पर को उसे काला और जला हुआ बना देता था.

विनुथा ने कहा, ‘बाजरा ओट्स (जई) को संसाधित करने के लिए उपयोग की जाने वाली लो हीट (कम गर्माहट) का भी सामना नहीं कर सकता है.’

असल चुनौती बाजरा को गर्म करने के लिए सबसे आदर्श तापमान खोजने की थी, जिसे उन्होंने अंततः ढूंढ निकला और इसमें सटीकता भी हासिल की. इन तमाम वर्षों के दौरान वह बाजरे के आटे की शेल्फ लाइफ को 90 दिनों तक बढ़ाने के लिए हाइड्रोथर्मल और नियर-इन्फ्रारेड किरणों के संयुक्त तापीय उपचार को धीरे-धीरे अनुकूलित करने में सक्षम रहीं.

विनुथा बताती, ‘संयुक्त तापीय उपचार के 10 मिनट से भी कम समय में हम आटे को लंबे समय तक ताजा रखने में सक्षम हो जाते हैं.’

बाजरे के आटे को नरम बनाना

बाजरे के आटे को नरम बनाने के लिए उनकी टीम ने गेहूं के आटे से वाइटल ग्लूटेन को निकालकर इसे बाजरे के आटे में मिलाया.

वाइटल व्हीट ग्लूटेन को गेहूं के आटे को पानी से तब तक धोकर बनाया जाता है जब तक कि सारा स्टार्च निकल न जाए और सिर्फ़ ग्लूटेन ही बचे.

आईसीएआर की वैज्ञानिक और विनुथा की टीम का हिस्सा रहीं सुनेहा गोस्वामी ने दिप्रिंट को बताया, ‘यह (वाइटल ग्लूटेन) गेहूं के आटे को नरम बनाने के लिए जिम्मेदार है क्योंकि इसमें हाई विस्को-इलास्टिक गुण होते हैं.’

वाइटल व्हीट ग्लूटन मिलाने से बाजरे के आटे को न केवल फुल्के बल्कि बर्गर, पिज्जा और ब्राउनी के लिए भी इस्तेमाल करने और पर्याप्त रूप से नरम बनाने में मदद मिली, जो मधुमेह के रोगियों और स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोगों के लिए आटे का एक स्वस्थ विकल्प प्रदान करता है.

विनुथा ने कहा, ‘ब्राउनी या बर्गर जैसे विदेशी खाद्य पदार्थों के लिए, हमने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट, दिल्ली के साथ सहयोग किया है, जो इन व्यंजनों को बाजरे के आटे के साथ स्वादिष्ट खाने का रूप देने के लिए अनुकूलित कर रहे हैं. वे इसकी गुणवत्ता से बहुत खुश हैं क्योंकि अब वे बहुत सारे व्यंजनों में गेहूं की जगह हमारे बनाए बाजरे के आटे का इस्तेमाल कर सकते हैं.‘


यह भी पढे़ं: सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त EWS वाला फैसला कोर्ट के बदलते रुख का संकेत है, सामाजिक न्याय पर तीखे संघर्ष की आहट है


ज़्यादा पौष्टिक और स्मार्ट फसलें

विनुथा की टीम का मानना है कि इन संशोधनों से बाजरा को व्यापक रूप से स्वीकृति प्राप्त करने में मदद मिलेगी.

मिलेटस (मोटे अनाज या श्री अन्न) छोटे बीज वाली घास का एक परिवार है जो सदियों से भारत में पारंपरिक रूप से उगाई जाती रही हैं. फसलों के इस परिवार में केवल बाजरा ही नहीं बल्कि रागी (उंगली बाजरा) और ज्वार (सोरघम) जैसी फसलें भी शामिल हैं.

मिलेटस न केवल अत्यधिक पौष्टिक और सूखे से कम प्रभावित वाले होते हैं बल्कि अनाज की अन्य फसलों की तुलना में इनमें काफी कम पानी और लागत की आवश्यकता होती है, जो इन्हें छोटे किसानों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली कृषि प्रणालियों के प्रति काफी अनुकूल बनाता है.

मोदी सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन जैसे कार्यक्रमों के जरिए बाजरे की खेती को बढ़ावा दे रही है और इसके लिए ऊंचे दर के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर रही है.

गोस्वामी ने बताया, ‘पर्ल मिलेट या बाजरा ‘पोषक अनाज’ के रूप में जाना जाता है. भारत की गेहूं और चावल जैसी अनाज की मुख्य फसलों की तुलना में बाजरा कहीं बेहतर है.’

यह इसके उच्च पोषण मूल्य के कारण है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘कार्बोहाइड्रेट के मामले में यह लगभग गेहूं और चावल के समान ही है. हालांकि इसमें वसा की मात्रा चावल या गेहूं की तुलना में अधिक होती है, लेकिन इनमें से 74 प्रतिशत गुड फैटी एसिड होते हैं.’

गेहूं या चावल की तुलना में बाजरा में प्रोटीन की मात्रा भी अधिक होती है. इन वैज्ञानिक ने कहा कि इसके अलावा, भारत में उगाए जाने वाले अधिकांश बाजरे को आयरन और जिंक से बायोफोर्टिफाइड भी किया जाता है.

‘हाई-एंड’ प्रोडक्ट के रूप में मार्केटिंग 

विनुथा ने कहा कि व्यापक बाजार के लिए इसे और ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए उनकी टीम ने इसकी पैकेजिंग पर विशेष रूप से ध्यान दिया.

इसका मतलब यह सुनिश्चित करना था कि यह बाजार में उपलब्ध अन्य लक्जरी खाद्य उत्पादों की बराबरी में दिखे.

आईसीएआर अपनी खुद की दुकान में इस आटे को ‘हॉलूर’ ब्रांड नाम से 50 रुपए प्रति किलो की दर से बेचता है. विनुथा ने कहा कि इस आटे को पहले ही भारत के खाद्य नियामक यानी कि भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण से लाइसेंस मिल चुका है, और यह ‘अमला अर्थ’ जैसे चुनिंदा ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर भी बेचा जाता है.

हालांकि, इसकी कुछ कमियां भी हैं. एक तो, ग्लूटेन के प्रति एलर्जी वाले लोगों द्वारा इस उत्पाद का सेवन नहीं किया जा सकता है. दूसरे, जैसा कि गोस्वामी ने कहा, वाइटल व्हीट ग्लूटेन का उत्पादन घरेलू स्तर पर नहीं किया जाता है और इसे चीन, सिंगापुर, कोरिया, अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों से आयात किया जाता है.

शोधकर्ताओं के लिए, इसका मतलब यह है कि उन्हें इसे अपनी प्रयोगशाला में बनाना होगा.

वे कहती हैं, ‘भारत में, हमारे पास ग्लूटेन बनाने वाला कोई उद्योग नहीं है. लगभग 50 प्रतिशत इंपोर्ट ग्लूटेन का उपयोग बेकरी उत्पादों के लिए किया जाता है, 20 प्रतिशत का उपयोग स्पोर्ट्स ड्रिंक्स में किया जाता है और बाकी का उपयोग पास्ता और नूडल्स बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले आटे को फोर्टिफाइ करने में किया जाता है.’ साथ ही, उन्होंने कहा कि भारत में ग्लूटेन का बड़े पैमाने पर उत्पादन न केवल इसके आयात में कटौती करने में मदद करेगा बल्कि घरेलू उद्योग को बढ़ावा भी देगा.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: सिसोदिया को भले क्लीन चिट न दें, पर खीरे की चोरी में हीरे की डकैती वाली साजिश से चौकन्ने रहिये


 

share & View comments