गुरुग्राम : राज्य के कृषि मंत्री जे.पी. दलाल के अनुसार, हरियाणा पहले से ही किसानों को सीधे बीज बोने वाली चावल तकनीक का उपयोग करके धान की खेती के लिए प्रोत्साहन दे रहा है, जिससे पानी की बचत होती है, साथ ही अन्य फसलों में विविधता आती है.
“मेरा पानी, मेरी विरासत’ योजना के तहत, हरियाणा सरकार धान के अलावा अन्य फसलें बोने के लिए किसानों को 7,000 रुपये प्रति एकड़ का भुगतान कर रही है. पिछले साल एक लाख से ज्यादा किसानों ने इस योजना के तहत लाभ उठाया था. इस साल के आंकड़े फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं.” दलाल ने बुधवार को दिप्रिंट को बताया, “इसी तरह, सरकार चावल की सीधे बुआई के लिए प्रति एकड़ 4,000 रुपये का प्रोत्साहन दे रही है. इस वर्ष लगभग 2.5 लाख किसानों ने योजना के फायदे के लिए आवेदन किया.”
उनकी टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट के उस सुझाव के बाद आई हैं जिसमें कहा गया था कि धान पंजाब की मूल फसल नहीं है और कम पानी के खर्च वाली फसलों के लिए इसकी खेती को राज्य के साथ-साथ पड़ोसी राज्य हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली से चरणबद्ध तरीके से खत्म किया जाना चाहिए.
हालांकि, किसानों और कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में हरियाणा और पंजाब दोनों देश के बासमती के कटोरे के रूप में उभरे हैं, और धान की खेती इन राज्यों के लिए आदर्श है और इसे समाप्त करना आसान नहीं होगा.
कृषि विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि पराली जलाने का मुद्दा, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह हर शरद ऋतु में उत्तर भारत में प्रदूषण का कारण बनता है, इसे धान की बुआई को चरणबद्ध तरीके से खत्म किए बिना भी प्रबंधित किया जा सकता है.
पंजाब और हरियाणा दोनों में पानी के संरक्षण के लिए एक कानून के तहत धान की फसल चक्र को शिफ्ट करने के बाद, किसान, गेहूं की फसल के लिए अपने खेतों को जल्दी से तैयार करने को लेकर हर साल अक्टूबर-नवंबर में धान की पराली जला रहे हैं.
दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण पर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि पराली जलाना वायु प्रदूषण में एक “महत्वपूर्ण” भूमिका निभाता है और इसे सशक्त दखल या प्रोत्साहन के जरिए रोका जाना चाहिए.
पंजाब के महाधिवक्ता गुरमिंदर सिंह के सुझाव पर अदालत इस बात पर सहमत हुई है कि धान को पंजाब और अन्य पड़ोसी राज्यों की फसल प्रणाली से चरणबद्ध तरीके से बाहर किया जाना चाहिए.
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‘धान सुनिश्चित उपज देता है’
हरियाणा के सिरसा के किरपाल पट्टी गांव के एक प्रगतिशील किसान गुरजीत सिंह मान ने दिप्रिंट को बताया कि इस आधार पर कि धान इस क्षेत्र की मूल फसल नहीं थी, फसल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का वैध आधार नहीं था, क्योंकि उस स्थिति में, तो गेहूं भी क्षेत्र का नहीं था.
उन्होंने कहा, “हरियाणा और पंजाब आज देश के बासमती बेल्ट में शामिल हैं, जहां से चावल कई देशों में निर्यात किया जाता है. हरित क्रांति के परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में गेहूं के साथ-साथ धान भी आया और इन दोनों फसलों ने किसानों की स्थिति में काफी हद तक सुधार किया है.”
अन्य फसलों की संभावनाओं के बारे में बात करते हुए, उन्होंने बताया: “आज, गन्ना सबसे अधिक लाभकारी नकदी फसल है, लेकिन जलवायु परिस्थितियों और चीनी मिलों से दूरी के कारण इसे हर जगह नहीं उगाया जा सकता है. धान के अलावा ऐसी कोई अन्य खरीफ फसल नहीं है जो किसानों को कीमत में उतार-चढ़ाव के बिना सुनिश्चित उपज दे सके. मक्का, कपास, सूरजमुखी, सरसों और सोया जैसी अन्य सभी फसलों की कीमत और उपज में कई फैक्टर्स के कारण बहुत उतार-चढ़ाव होता है. इसके विपरीत, धान प्रति एकड़ लगभग 1 लाख रुपये का लाभकारी रिटर्न प्रदान करता है.”
ख़रीफ़ की फ़सलें जून-जुलाई में बोई जाती हैं और अक्टूबर-नवंबर में काटी जाती हैं.
मान ने जोर देकर कहा कि जब तक सरकार न केवल बुआई के लिए बल्कि वैकल्पिक फसलों के विपणन के लिए भी प्रोत्साहन नहीं देती, किसानों के पास धान की खेती जारी रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक वीरेंद्र सिंह लाठर ने दिप्रिंट को बताया कि धान को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की बात कहना आसान हैं खत्म करना उतना ही कठिन, क्योंकि यह फसल खरीफ सीजन में पंजाब में 70 प्रतिशत और हरियाणा में 50 प्रतिशत भूमि पर उगाई जा रही है.
उन्होंने कहा कि, कृषि लागत और मूल्य आयोग के अनुसार, गन्ने के बाद गेहूं और धान की फसल का पैटर्न किसानों के लिए दूसरा सबसे फायदेमंद रहा है.
लाठर ने कहा, “चालू ख़रीफ़ सीज़न (2023) के दौरान, पंजाब और हरियाणा में लगभग 48 लाख हेक्टेयर में धान की खेती की गई है, जिसमें से लगभग 14 लाख हेक्टेयर बासमती की खेती हुई है. आमतौर पर किसान धान के भूसे को चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं. बाकी 34 लाख हेक्टेयर धान मोटे अनाज वाली किस्मों के हैं, जिन्हें स्थानीय तौर पर परमल किस्मों के नाम से जाना जाता है. परमल के भूसे का इस्तेमाल चारे के रूप में नहीं किया जाता है बल्कि काफी समय से जलाकर नष्ट कर दिया जाता रहा है, जिससे वायु प्रदूषण होता है.”
उनके अनुसार, पिछले दशक में सरकार के प्रयास, धान की पराली के ऑफ-साइट प्रबंधन पर केंद्रित रहे हैं.
लेकिन, उन्होंने दावा किया, यह तरीका किसान-हितैषी नहीं था और लगभग विफल हो गया था.
लाठर ने कहा, “किसानों के पास धान की फसल की कटाई और अगली फसल की बुआई के बीच कम समय उपलब्ध होने के कारण वे धान की पराली का जल्दी से निपटान कर देते हैं. लाठर ने कहा, पराली जलाने की अधिकतम घटनाएं 30 अक्टूबर के बाद ही सामने आती हैं.”
एक रणनीति
लाठर ने न केवल पराली जलाने को रोकने, बल्कि पानी के संरक्षण के लिए चार-आयामी रणनीति का सुझाव दिया, जिसमें चावल की सीधे बुआई (डीएसआर) और धान के ठूंठ को इन-सीटू (क्षेत्र के भीतर) प्रबंधन के साथ कम अवधि वाली धान की किस्मों को अपनाना शामिल है.
रणनीति के बारे में बताते हुए लाठर ने कहा कि किसान सबसे पहले पीआर-126 और पीबी-1509 जैसी कम अवधि वाली चावल की किस्मों को अपना सकते हैं; दूसरा, जहां 15 मई से बुआई शुरू होती है वहां डीएसआर तकनीक अपनाएं, न कि रोपाई विधि, जहां कि 15 जून से पहले बुआई की अनुमति नहीं है; तीसरा, धान की खरीद 10 अक्टूबर को बंद करने के साथ 15 सितंबर तक शुरू करना; और अंत में, गहरी जुताई करके डंठल को मिट्टी में दबा दें.
उन्होंने कहा, “अगर कटाई सितंबर के अंत तक समाप्त हो जाती है, तो किसानों को अगली रबी फसल की बुआई के लिए 50 दिनों का वक्त मिलेगा. खरीद की तारीखों को आगे बढ़ाने से किसानों को लंबी अवधि की किस्मों को रोपाई विधि से रोका जा सकेगा क्योंकि वे अपनी फसल बाजार में नहीं बेच पाएंगे.”
उन्होंने आगे कहा, “2 से 4 इंच गहरी ऊपरी परत वाली जुताई के मुकाबले गहरी जुताई, जो 10 से 12 इंच गहरी होती है, इससे किसानों को पराली को गहराई तक दबाने और ऊपरी परत पर अपनी रबी फसल बोने में मदद मिलेगी.”
लाठर ने कहा, “एकमात्र समस्या यह है कि गहरी जुताई के लिए 50 हॉर्स पावर (एचपी) ट्रैक्टर की आवश्यकता होती है, जबकि किसानों के पास ज्यादातर 20 से 25 एचपी ट्रैक्टर होते हैं. हालांकि, किसानों को 1,000 रुपये प्रति एकड़ का भुगतान करके, जिसे हरियाणा सरकार पहले से ही धान की पराली न जलाने के लिए प्रोत्साहन के रूप में दे रही है, इस चीज का ध्यान रखा जा सकता है.”
लाठर ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने अपने सुझाव हरियाणा कृषि विभाग और केंद्र सरकार को ईमेल कर दिए हैं.
करनाल के प्रगतिशील किसान भरत कादयान, जिनके पास जिले के मिरगाहन गांव में खेत हैं, ने कहा कि वह 2006 से धान की बुआई के लिए डीएसआर तकनीक का सफलतापूर्वक उपयोग कर रहे हैं और 2016 से धान की पराली के इन-सीटू प्रबंधन के लिए गहरी जुताई कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, “मैंने 2006 के आसपास बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन द्वारा वित्त पोषित एक परियोजना के तहत डीएसआर तकनीक से धान की बुआई शुरू की. 2016 से, मैं धान के भूसे का इन-सीटू प्रबंधन कर रहा हूं. इन सबसे मुझे पानी बचाने के साथ-साथ प्रदूषण से बचने में भी मदद मिली है. इन-सीटू प्रबंधन के तहत, धान की पुआल को खेत में गलाया जाता है और फिर मिट्टी में गहराई तक दबा दिया जाता है. इससे पिछले कुछ वर्षों में मेरी मिट्टी के सेहत में भी सुधार हुआ है.”
(अनुवाद और संपादन : इन्द्रजीत)
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