इस वर्ष मार्च महीने में ग्राम पंचायत के चुनाव और फिर कोरोना संकट को रोकने के लिए केंद्र सरकार द्वारा देश भर में लॉकडाउन की घोषणा के बाद अब तक तेंदूपत्ता संकलन का काम महज एक चौथाई तक ही होने से महाराष्ट्र के विदर्भ अंचल में अनेक आदिवासी गांवों की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है.
हालांकि, राज्य सरकार ने 20 अप्रैल से तेंदूपत्ता संकलन के कार्य को मंजूरी दी है. इसके बावजूद, ऐसी कुछ अड़चने हैं जिनके कारण मजदूरों के सामने अभी भी यह प्रश्न है कि मई यानि इस सीजन के समाप्त होने के पहले तक तेंदूपत्ता के संकलन का काम कैसे पूरा होगा? इस क्षेत्र से जुड़े जानकार बताते हैं कि इस वर्ष अब तक 75 प्रतिशत तेंदूपत्तों की नीलामी नहीं हुई है. वहीं, अकेले गडचिरोली जिले में ही 100 करोड़ रुपए के तेंदूपत्ते का कारोबार प्रभावित हुआ है.
विदर्भ के कई गांवों में विशेष तौर पर बड़ी संख्या में आदिवासी मजदूर परिवारों को तीन से चार महीने के दौरान नकद राशि देने और उनका वार्षिक बजट निर्धारित करने वाली तेंदूपत्ता संग्रहण की गतिविधि ठप होने से यहां का आर्थिक-सामाजिक ताना-बाना गड़बड़ा गया है.
हालांकि, विधानसभा अध्यक्ष नाना पटोले की मांग के बाद मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने तेंदूपत्ता संकलन के काम पर लगी रोक हटा दी है. इसके बावजूद, इस सीजन में तेंदूपत्ता संकलन के काम में जरूरत से ज्यादा देर होने के अलावा अन्य कारणों से इस क्षेत्र से जुड़े मजदूर एक बहुत बड़े संकट के दौर से गुजर रहे हैं.
गडचिरोली जिले में पातागुडम गांव के एक तेंदूपत्ता मजदूर किरण दुर्गम बताते हैं कि वे हर वर्ष मार्च महीने से जंगलों में जाकर तेंदूपत्ता तोड़ने का काम शुरू कर देते थे. पर, इस बार कई जगहों पर तेंदूपत्तों की नीलामी नहीं हुई है. इससे उनके सामने जीने का संकट पैदा हो गया है.
पहले आचार-संहिता फिर लॉकडाउन
बता दें कि इस वर्ष मार्च में महाराष्ट्र के ग्राम-पंचायत के चुनाव के कारण आचार-संहिता लागू थी. इसके कारण ज्यादातर जगहों पर तेंदूपत्तों के लिए नीलामी नहीं हो सकी थी. लेकिन, आचार-संहिता के बाद शुरू हुए कोरोना संकट ने इस काम में एक नई बाधा डाल दी है. इसके कारण देश भर में लॉकडाउन लगा दिया गया और संचार व यातायात सेवाएं लगभग बंद हो गईं.
यही वजह रही कि तेंदूपत्ता की नीलामी के लिए ज्यादातर ग्राम-पंचायतों ने अधिक सक्रियता नहीं दिखाई. लॉकडाउन के कारण तेंदूपत्ता से जुड़े कॉन्ट्रेक्टर गांवों में पहुंचकर नीलामी की प्रक्रिया से नहीं जुड़ सके. देखते-देखते अब अप्रैल महीने के दिन भी समाप्त हो रहे हैं. तेंदूपत्ते के संग्रहण का समय मार्च से मई तक ही रहता है. इस तरह, इस प्रक्रिया के लिए अब महज छह से सात सप्ताह की रह गए हैं.
ऐसे में किरण दुर्गम की तरह हजारों की संख्या में तेंदूपत्ता मजदूरों की समस्याएं बढ़ गई हैं. प्रश्न है कि इस अल्पावधि में तेंदूपत्तों की नीलामी का काम कैसे पूरा होगा? फिर समय रहते मजदूरों द्वारा तेंदूपत्ता संकलन के लिए जंगलों में जाने, तेंदूपत्तों को बांधने और उनके भंडारण से लेकर माल ढुलाई के लिए आवश्यक वाहनों तथा कर्मचारियों की व्यवस्था जैसी कई समस्यायों से पार पाना कठिन हो गया है.
गडचिरोली के सिरोंचा में रहने वाले एक तेंदूपत्ता कॉन्ट्रेक्टर गणेश इंग्ले के मुताबिक अभी सबसे बड़ा प्रश्न है कि सीजन समाप्त होने से पहले इन सारी समस्याओं से बाहर कैसे निकलेंगे? वे कहते हैं, ‘अब तक 25 प्रतिशत तेंदूपत्ते की नीलामी हुई है. आगे भी यातायात बंद रहेगा या नहीं? इस संदेह में ग्राम-पंचायतों ने नीलामी की प्रक्रिया में ज्यादा रूचि नहीं दिखाई.’
उन्होंने कहा,’ इसलिए, मजदूरों को अब तक ज्यादातर जगहों पर तेंदूपत्ता संग्रहण का मौका नहीं मिला है. ऐसे में अब सोचने की बात है कि इस सीजन में मजदूरों की कितनी आमदनी हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर रहेगा कि शेष दिनों में किस गति से तेंदूपत्तों के लिए नीलामी होगी और इसके बाद मजदूर मई के अंत तक कितना तेंदूपत्ता जमा कर सकते हैं.’
तेंदुपत्ता है जीविका का साधन
दरअसल, यह संकट बड़ा इसलिए है कि विदर्भ में तेंदूपत्ते के संग्रहण की आर्थिक गतिविधि में शामिल होकर कई छोटे किसान और मजदूर अपने परिवार की गृहस्थी चलाने के लिए साल भर की योजना बनाते हैं. मार्च से मई के बीच तेंदूपत्ता का यही सीजन होता है जब उनके हाथों में बहुत नकद राशि आती है.
किरण दुर्लभ इस बारे में अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं, ‘तेंदूपत्ते को तोड़ने के बाद मिले पैसे से गांव वालों के कई सपने पूरे होते हैं. इस सीजन से मिले पैसे खेती के कामों में तो खर्च होते ही हैं, बीमारी और शादी-विवाह के मौकों से लेकर घर बनाने जैसे कई कामों पर भी खर्च होते हैं. छोटे किसान धान की फसल उगाने के लिए यही पैसा खर्च करता है. मजदूर इससे पूरे साल का किराना लेता है. ये पैसा स्कूल जाने वाले बच्चों के काम आता है. इसके अलावा ये हर बुरे समय पर काम आता है.’
स्पष्ट है कि इस अंचल के लिए यह सीजन किस तरह तेंदूपत्ता मजदूरों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है. पर, इस वर्ष की परिस्थितियों ने विदर्भ के ग्रामीण भागों में अर्थव्यवस्था को संजीवनी देने वाली तेंदूपत्ता की गतिविधियों पर ‘कोरोना ग्रहण’ लग गया है.
सामाजिक दूरी
दूसरी तरफ, गणेश इंग्ले कहते हैं कि तेंदूपत्ता संग्रहण की गतिविधि में सामाजिक दूरी बनाए रखना अपनेआप में बहुत मुश्किल होगा. वजह, इस प्रकार के कार्य बड़ी संख्या में मजदूरों द्वारा समूहों में और बहुत नजदीक बैठने से होते हैं.
वे बताते हैं, ‘यह एक या दो लोगों का काम नहीं. फिर, इन मजदूरों को सामाजिक दूरी को बनाए रखने के मामले में जागरूक बनाने की भी जरूरत है. कई जगह पूरा गांव एक साथ मिलकर जंगल में पत्ते तोड़ने के लिए जाते हैं. इस दौरान कई महिलाएं अपने छोटे बच्चों को भी गोद में लेकर जंगल जाती हैं. वे जंगल में पेड़ों की शाखाओं से रस्सी बांधकर झूले लटकाती हैं और अपने छोटे बच्चों को झूलों में ही सुलाकर मजदूरी करती हैं. आमतौर पर सारे मजदूर दिन भर वृत्त आकार में नजदीक बैठकर तेंदूपत्ता जमा करते हैं. इसके बाद, प्रश्न है कि अन्य कर्मचारियों के साथ भंडारण और ढुलाई के दौरान भीड़ बढ़ने से वे किस प्रकार लोगों से दूरी बना सकते हैं. ऐसे में कोरोना संकरण का खतरा है. इसलिए, तेंदूपत्ता संग्रहण की पूरी प्रक्रिया ही इस संकट में एक ऐसी समस्या है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है. मतलब एक तरफ भूख है तो दूसरी ओर महामारी का डर.’
दूसरी तरफ, नुकसान के बारे में बात करते हुए तेंदूपत्ता कारोबार से जुड़े राजू मारबाते भी मानते हैं कि खासतौर पर कोरोना संकट में लॉकडाउन से इस बार गडचिरोली जिले में करीब 100 करोड़ रुपए का व्यवसाय प्रभावित हुआ है. पिछले वर्ष कोरची तहसील में 80 गांव के लोगों ने ही सात करोड़ रुपए से अधिक का व्यवसाय किया था.
वे कहते हैं, ‘इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां किस सीमा तक आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है. फिर, गडचिरोली जिले में दूर-दूर के अन्य जिलों से भी तेंदूपत्ता मजदूर आते हैं और हर साल मई महीने में अच्छी खासी मजदूरी लेकर अपने घर लौटते हैं. पर, लॉकडाउन के कारण हर जिले की सीमाएं सील कर दी गई हैं. इसलिए, सबसे ज्यादा नुकसान ऐसे प्रवासी तेंदूपत्ता मजदूरों का हुआ है.’
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दूसरी तरफ, गडचिरोली जिले के कुरखेडा गांव में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. सतीश गोगुलवार बताते हैं कि तेंदूपत्ता का काम बहुत जटिल और कई बार जानलेवा हो जाता है. कई तेंदूपत्ता मजदूर तेंदुआ और भालू जैसे जंगली जानवरों के हमलों से अपने प्राण गंवा चुके हैं. कई बार जंगल में आग लगने की घटनाएं भी उनकी जान जोखिम भी डाल देती हैं.
अंत में डॉ. सतीश कहते हैं, ‘इन सबके बावजूद वे जीने के लिए काम करते हैं. पर, इस वर्ष ऐसा लगता है कि उनके जीने की उम्मीद पर कोरोना नाम की वैश्विक महामारी ने अटैक कर दिया है. ऐसी स्थिति में यदि उन्हें सरकार से राहत नहीं मिली तो हालत बद से बदतर हो जाएगी.’
(लेखक शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और पठन-पाठन का काम करते हैं)