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Saturday, 20 April, 2024
होमदेश‘आरक्षण का अधिकार मेरिट में बाधक नहीं’- SC ने मेडिकल कोर्स में क्यों बरकरार रखा OBC कोटा

‘आरक्षण का अधिकार मेरिट में बाधक नहीं’- SC ने मेडिकल कोर्स में क्यों बरकरार रखा OBC कोटा

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को जारी एक विस्तृत फैसले में अपने 7 जनवरी के अंतरिम आदेश के कारणों का खुलासा किया, जिसमें यूजी और पीजी मेडिकल में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय आरक्षण व्यवस्था में ओबीसी का 27% कोटा बरकरार रखा गया था.

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नई दिल्ली: आरक्षण मेरिट में बाधक नहीं बनता है, बल्कि अवसरों को समान रूप से आगे बढ़ाता है, सुप्रीम कोर्ट ने यह बात गुरुवार को अपने एक विस्तृत फैसले में कही जिसमें उसने स्नातक और स्नातकोत्तर मेडिकल कोर्स में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय कोटा (एआईक्यू) में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 फीसदी कोटा बरकरार रखने के अपने 7 जनवरी के अंतरिम आदेश के कारण गिनाए हैं.

जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस ए.एस. बोपन्ना की पीठ ने कहा, ‘समानता के अधिकार जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं’ को आगे बढ़ाने के लिए मेरिट को ‘सामाजिक स्तर पर प्रासंगिक और समानता के एक साधन के तौर पर फिर से परिकल्पित’ किया जाना चाहिए, न कि इसे सिर्फ ‘ओपेन कंपटीटिव एग्जाम में प्रदर्शन की संकीर्ण परिभाषा तक सीमित’ करना चाहिए.

पीठ ने कहा, ‘किसी परीक्षा में हाई स्कोर हासिल करना ही योग्यता का परिचायक नहीं होता है.’

अदालत ने कहा, ‘प्रतियोगी परीक्षाएं केवल शैक्षिक संसाधनों की बंटवारे के लिए बुनियादी योग्यता का आकलन करती हैं, लेकिन किसी व्यक्ति की दक्षता, क्षमता और संभावनाओं को नहीं दर्शाती, जो कि उसके अपने जीवन के अनुभवों, प्रशिक्षण और चारित्रिक विशेषताओं से आकार लेती हैं.’ कोर्ट ने कहा कि वे ‘सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लाभ नहीं मिल पाते हैं जो कुछ वर्गों को हासिल होते हैं और ऐसी परीक्षाओं में उन्हें सफलता दिलाने में मददगार होते हैं.’

शीर्ष कोर्ट ने 7 जनवरी के अपने आदेश के साथ मेडिकल कोर्स के लिए काउंसिलिंग को हरी झंडी दे दी थी, जो मेडिकल प्रवेश के लिए एआईक्यू में ओबीसी कोटा और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने के कारण लंबित थी.

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हालांकि, कोर्ट ने ओबीसी कोटे को वैधानिक घोषित किया है लेकिन फिलहाल ईडब्ल्यूएस कोटे पर कोई राय नहीं दी है. कोर्ट को ईडब्ल्यूएस कोटे के लिए योग्यता के निर्धारण में आठ लाख रुपये की वार्षिक आय सीमा के निर्धारित पात्रता मानदंड को लेकर कुछ संदेह थे. शीर्ष कोर्ट की तरफ से आगामी मार्च में ईडब्ल्यूएस मुद्दे पर विस्तृत दलीलें सुनने की उम्मीद है. हालांकि, अंतरिम व्यवस्था के तौर पर इसने मौजूदा मानदंडों के आधार पर ईडब्ल्यूएस प्रवेश की अनुमति दी है.


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‘पीजी कोर्स में ओबीसी आरक्षण पर कोई रोक नहीं’

जस्टिस चंद्रचूड़ की तरफ से गुरुवार को लिखे गए फैसले में खासतौर पर स्पष्ट किया गया है कि पीजी कोर्स में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है. कोर्ट ने यह दलील सिरे से खारिज कर दी कि चूंकि अभ्यर्थी स्नातक की योग्यता हासिल कर चुका होता है इसलिए उसे पिछड़े की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.

कोर्ट की राय में स्नातक की योग्यता हासिल करने से कुछ सामाजिक और आर्थिक मजबूती भले ही हासिल हो जाए लेकिन इससे अगड़े और पिछड़े वर्ग के बीच समानता का स्तर पैदा नहीं होता.

कोर्ट ने ये दलील भी खारिज कर दी कि आरक्षण के कारण अयोग्य उम्मीदवारों को फायदा हुआ. इसने कहा कि क्रीमीलेयर में आने वाले ओबीसी उम्मीदवारों को इस लाभ के दायरे से बाहर रखा गया है.

शीर्ष कोर्ट ने कहा कि आरक्षण ऐसे अवसर सुनिश्चित करता है जिससे पिछड़ा वर्ग भी समान रूप से लाभान्वित हो सके जो ऐसे मौके ‘ढांचागत बाध्यताओं के कारण गंवा देते हैं.’ ऐसे में एकमात्र उपाय यही है कि ‘सदियों से कायम खामियों और असमानताओं को दूर करने की लोकतांत्रिक ताकत’ को तरजीह दी जाए.

अदालत ने कहा, ‘इसके बिना व्यक्तिगत स्तर पर योग्यता के दावे और कुछ नहीं बल्कि विरासत की कमियों को छिपाने का साधन भर हैं.’


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अनुच्छेद 15(4) और 15(5) की व्याख्या

पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 15(5) की व्याख्या करते हुए कहा कि ये दोनों अनुच्छेद 15(1) का कोई अपवाद नहीं हैं. बल्कि मौलिक समानता के नियम के एक विशेष पहलू का पुनर्कथन बन जाते हैं जिसे अनुच्छेद 15(1) में निर्धारित किया गया है.

अनुच्छेद 15(1) धर्म, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव रोकता है. वहीं. अनुच्छेद 15(4) सरकार को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के हितों और कल्याण को ध्यान में रखकर विशेष व्यवस्था करने का अधिकार प्रदान देता है और अनुच्छेद 15(5) में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है.

कोर्ट ने माना कि अनुच्छेद 15(5) यूजी और पीजी मेडिकल कोर्स के बीच कोई अंतर नहीं करता. साथ ही कहा कि हालांकि यह माना गया है कि सुपर-स्पेशियलिटी कोर्स में कोई आरक्षण नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसा फैसला कभी भी नहीं किया गया कि मेडिकल पीजी कोर्स में आरक्षण की अनुमति नहीं होनी चाहिए.

पात्र समूहों की पहचान के तरीकों के साथ अनुच्छेद 15(4) और 15(5) का उपयोग वास्तव में समानता कायम करने में किया जाता है. कोर्ट ने माना कि इससे तब कुछ विसंगति पैदा हो सकती है जब आरक्षण के लाभार्थी समूह का कोई सदस्य व्यक्तिगत स्तर पर पिछड़े के दायरे में न आता हो या आरक्षण के दायरे में न आने वाले किसी समूह का कोई सदस्य किसी निर्दिष्ट पिछड़े समूह की कुछ चारित्रिक विशेषताओं को साझा करता हो.

आदेश में आगे कहा गया है, ‘किसी व्यक्ति विशेष के मामले में यह विशेषाधिकार, किस्मत या परिस्थितियों का नतीजा हो सकता है लेकिन इस वजह से पूरी व्यवस्था को पहुंचने वाले नुकसान से बचने के लिए आरक्षण की भूमिका को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है.’

न्यायाधीशों की राय थी कि ओपन कंपीटीटिव एग्जाम को उसी स्थिति में एक समान अवसर कहा जा सकता है जब शैक्षणिक सुविधाएं भी समान तौर पर उपलब्ध या पहुंच के दायरे में हों. लेकिन इसमें कायम असमानता कुछ वर्गों के लोगों को प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रभावी तरीके से हिस्सा लेने से वंचित कर सकती है.

इसलिए, कोर्ट का मानना था कि, ‘ऐसे विशेष प्रावधान (जैसे आरक्षण) ही वंचित वर्गों को ऐसी बाधाएं दूर करने में सक्षम बनाते हैं जिनका उन्हें अगड़े समूहों के साथ प्रतिस्पर्द्धा में प्रभावी रूप से सामना करना पड़ता हैं और उन्हें सही मायने में समानता के अवसर भी मुहैया कराते हैं.


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‘सामाजिक नेटवर्क, सांस्कृतिक पूंजी के विशेषाधिकार’

न्यायाधीश ने अगड़े वर्गों को हासिल ‘विशेषाधिकारों’ पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि न केवल स्कूली शिक्षा और कोचिंग सेंटर की सुविधा के संदर्भ में, बल्कि सामाजिक नेटवर्क और सांस्कृतिक पूंजी (कम्युनिकेशन स्किल, हावभाव या शैक्षणिक उपलब्धियां) के संदर्भ में भी उन्हें तमाम चीजें विरासत में ही मिली होती हैं.

सांस्कृतिक पूंजी से यह सुनिश्चित होता है कि बच्चे जाने-अनजाने कई चीजें अपने पारिवारिक परिवेश के कारण ही सीख जाते हैं और ऐसे बच्चे उन लोगों की तुलना में आगे रहते हैं जिन्हें ऐसा माहौल नहीं मिला होता है.

फैसले में कहा गया है, ‘उन्हें (ओबीसी) अगड़े समुदाय के अपने साथियों के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे.’

फैसले में कहा गया है कि पारिवारिक परिवेश, सामुदायिक जुड़ाव और विरासत में मिली दक्षता आदि की वजह से अगड़े वर्ग के लोग कुछ खास वर्गों की तुलना में लाभ की स्थिति में रहते हैं जिसे बाद में मेरिट, रिप्रोड्यूसिंग और सामाजिक पदानुक्रम निर्धारित करने के लिए वर्गीकृत किया जाता है.

पूर्व में बी.के. पवित्रा बनाम भारत संघ मामले में आए एक फैसले– जिसमें कहा गया था कि परीक्षाओं में स्पष्ट तौर पर तटस्थ प्रणाली दरअसल सामाजिक असमानता को बरकरार रखती है- का संदर्भ लेते हुए कोर्ट ने कहा, ‘यह समझना होगा कि योग्यता केवल किसी एक का विशेषाधिकार नहीं है.’

कोर्ट ने कहा, ‘योग्यता साबित करने का मौका न देना उन लोगों की गरिमा को घटाने का प्रयास है जिन्हें आगे बढ़ने में ऐसी तमाम बाधाओं का सामना करना पड़ता है जो उनकी खुद की खड़ी की हुई नहीं हैं.’ अदालत ने साथ ही ‘किसी परीक्षा में अंकों के आधार पर मेरिट तय करने के विचार’ पर फिर से गहन विश्लेषण करने की जरूरत बताई.

परीक्षा के नतीजे जैसे मानकीकृत उपायों को उम्मीदवारों के बीच गुणात्मक अंतर का सबसे सटीक मूल्यांकन नहीं माना जा सकता है.

कोर्ट ने कहा, ‘परीक्षा ज्यादा से ज्यादा केवल किसी व्यक्ति की मौजूदा क्षमता को दर्शा सकती है लेकिन उसकी उस दक्षता, क्षमता और भविष्य की संभावनाओं को बताने का पैमाना नहीं है जो कि उसके अपने जीवन के अनुभवों, प्रशिक्षणों और व्यक्तिगत चारित्रिक खूबियों के कारण आकार लेती हैं. मेरिट भले ही शैक्षणिक संसाधनों के वितरण का एक सुविधाजनक तरीका हो लेकिन इसके मायने को सिर्फ यहीं तक सीमित करके कम नहीं किया जा सकता.’

कोर्ट ने साथ ही मेरिट के मायने फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता भी जताई.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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