नई दिल्ली: शहरीकरण और शहरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर फिल्मों की अपनी तरह की पहली स्क्रीनिंग ‘अर्बन क्लाइमेट फिल्म फेस्टिवल’ में भाग लेने के लिए वीकेंड में सैकड़ों लोग आए. आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के तहत दिल्ली स्थित थिंक टैंक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स (एनआईयूए) द्वारा आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम के पीछे का विचार ‘डि-जॉर्गनाइज़ दि क्लाइमेट वर्ल्ड टू डिकार्बनाइज़’ था.
25-26 मार्च तक आयोजित कार्यक्रम के दौरान, दर्शकों को नौ देशों की 11 शॉर्टलिस्ट फिल्में दिखाई गईं, जो शहरी जीवन पर जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों को उजागर करती हैं.
फेस्टिवल की शुरुआत एक फ्रेंच फिल्म रिवाइल्ड से हुई, जो कि भूमि को फिर से उर्वर बनाने और जंगलों की कटाई से होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर शुरू किए गए प्रयास की कहानी कहती है.
अंतिम फिल्म, सीड: द अनटोल्ड स्टोरी दिखाई गई जो कि बीज के जरिए अमेरिका की कहानी कहती है जिसमें इसे ‘टाइम कैप्सूल’ और ‘लिविंग एम्ब्रियो’ के रूप में दिखाया गया है जो कि मानव सभ्यता को जिंदा रखता है. इसमें जेनेटिकली मॉडीफाइड फसलों और फर्टिलाइजर के प्रयोग व एग्री-कॉर्पोरेशन के कार्यों की आलोचना की गई है.
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एनआईयूए के निदेशक हितेश वैद्य ने शुक्रवार को फेस्टिवल के उद्घाटन के अवसर पर कहा, “जलवायु परिवर्तन उन कई शहरी चुनौतियों में से एक है जिसका दुनिया सामना कर रही है. और जबकि दुनिया भर की फिल्में जलवायु के मुद्दों की वकालत कर रही हैं, मुझे लगता है कि समय आ गया है कि एक और एक्शन-ओरिएंटेड एप्रोच अपनाया जाए.
वैद्य ने जोर देकर कहा कि “जलवायु के मुद्दे या क्लाइमेट लैंग्वेज को शहरों की भाषा बनना होगा” और याद दिलाया कि जलवायु परिवर्तन पर फिल्मों के लिए एक फेस्टिवल आयोजित करने का विचार भारत की कल्चर और हेरिटेज को प्रदर्शित करने पर चर्चा के दौरान दो साल पहले शुरू हुआ था.
उन्होंने कहा, “जब U-20 (अर्बन-20 एक जी-20 देशों के शहरों की सिटी डिप्लोमेसी पहल है) आया, तो जलवायु पर हमारा ध्यान बढ़ गया. हमने सोचा कि चलो एक जलवायु फिल्म समारोह का आयोजन करते हैं.”
मार्च की शुरुआत की समय सीमा के साथ जनवरी में दुनिया भर की फिल्मों के लिए एंट्रीज शुरू की गईं. 45 दिनों की अवधि में प्राप्त 150 प्रस्तुतियों में से, एनआईयूए ने 12 देशों की 27 फिल्मों को शॉर्टलिस्ट किया.
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‘जलवायु परिवर्तन केवल फैंसी ग्राफ के बारे में नहीं’
एनआईयूए के कार्यक्रम निदेशक नईम केरूवाला ने कहा कि फेस्टिवल का आयोजन अब चार अन्य शहरों में भी किया जाएगा. उन्होंने कहा, “हम अप्रैल में मुंबई में, मई में बेंगलुरू में, जून में कोलकाता और जुलाई में अहमदाबाद में होंगे.”
रविवार को क्लोजिग रिमार्क में उन्होंने कहा, “पिछले दो दिनों में 500 से अधिक लोग इस हॉल में आए या चले गए.”
फेस्टिवल से पहले अपने अनुभव के बारे में बात करते हुए, केरूवाला ने कहा कि चयन प्रक्रिया के दौरान उन्हें बताया गया था कि “कुछ फिल्में बहुत डरावनी हैं”. इस पर उन्होंने जवाब दिया, ‘हां.. यही सच्चाई है. ये फिल्में हमें यही बताने की कोशिश कर रही हैं. इसके बारे में हर रोज बहुत कुछ कहा और किया जाता है और इसमें से बहुत कुछ अनसुना, अनदेखा भी हो गया है और इस अंतर को कुछ हद तक तोड़ने के लिए, हमने इस फिल्म महोत्सव का आयोजन करके फिल्मों की शक्ति का लाभ लेने का फैसला किया है.”
उन्होंने कहा कि सार्थक सिनेमा का निर्माण करना ही पर्याप्त नहीं है और ऐसे सिनेमा को जन-जन तक ले जाना आवश्यक है.
केरूवाला ने कहा, “जब हम फील्ड में जाते हैं, तो हम देखते हैं कि जलवायु परिवर्तन केवल कुछ फैंसी ग्राफ्स तक सीमित नहीं है, लोगों का जीवन रोजाना के हिसाब से प्रभावित हो रहा है. ऐसे लोग हैं जो अपनी जान गंवा रहे हैं, अपनी आजीविका खो रहे हैं, वे अपने घर खो रहे हैं. यह एक वास्तविक भावनात्मक मुद्दा है. फिर हमने सोचा कि फिल्म फेस्टिवल आयोजित करने से बेहतर क्या हो सकता है.’
उद्घाटन समारोह में विशेष अतिथि, नीति आयोग के पूर्व प्रमुख अमिताभ कांत ने जलवायु परिवर्तन को “आज की दुनिया में हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती” करार दिया.
गरीबी, बेरोजगारी, कर्ज संकट और मंदी के आंकड़ों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, “चुनौती यह है कि आज के शहरों को कहीं अधिक टिकाऊ होना है. उन्हें ऐसा बनाना है कि चलने के लिए लोग पैदल और साइकिल का ज्यादा उपयोग करें. पब्लिक ट्रांसपोर्ट को प्रमोट किया जाना चाहिए और ड्रेनेज, सीवेज व सॉलिड वेस्ट के निस्तारण की उचित व्यवस्था होनी चाहिए.
वर्तमान में भारत के G20 शेरपा कांत ने कहा, “भारत जैसे देश के लिए, जो शहरीकरण की अपनी प्रक्रिया शुरू कर रहा है, हम अगले 4-5 दशकों में 500 मिलियन लोगों को शहरीकरण की प्रक्रिया में शामिल होते देखेंगे. इसका मतलब है कि आप अगले पांच दशकों में दो अमेरिका और हर 3-4 साल में एक शिकागो बना रहे होंगे.”
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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