नई दिल्ली: दिल्ली के कालकाजी एक्सटेंशन स्लम पुनर्वास परियोजना की नींव रखे जाने के लगभग एक दशक बाद, 2 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इलाके के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 3,024 फ्लैटों का उद्घाटन किया.
यह परियोजना दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) की 376 झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले लोगों के पुनर्वास के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई)- हाउसिंग-फॉर-ऑल, के दिशानिर्देशों के अनुसार 2015 में शुरू की गई थी. इसका लक्ष्य 2022 तक भारतीय शहरों को स्लम मुक्त बनाने का था.
कालकाजी एक्सटेंशन फ्लैट इन-सीटू स्लम पुनर्विकास (आईएसएसआर) का एक उदाहरण है, जिसमें उन्हीं इलाकों की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों का बहुमंजिला इमारतों में पुनर्वास किया जाता है. ऐसा ही कुछ कालकाजी में भी किया गया है. दरअसल ये फ्लैट लोगों को विस्थापित करने और उनकी आजीविका को नुकसान पहुंचाने से बचने के लिए उसी जगह पर बनाए जाते हैं, जहां ये लोग पहले से रह रहे होते हैं.
आवास और शहरी मामलों का मंत्रालय PMAY को लागू करने के अपने अभियान में चार मॉडल का अनुसरण करता है. ISSR उन चार मॉडलों या कार्यक्षेत्रों में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है.
दिल्ली में इस स्लम पुनर्विकास कार्य को कैसे किया जा रहा है और यह अन्य राज्यों और शहरों की तुलना में कैसे अलग हैं? आईए इस पर एक नजर डालते हैं.
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पीएमएवाई के दिशा निर्देश और ISSR
पीएमएवाई की गाइडलाइन के मुताबिक, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को पहले 2011 की जनगणना में सूचीबद्ध सभी झुग्गियों पर डेटा इकट्ठा करना होगा. साथ ही उसके बाद उन्हें ‘स्थायी’ या ‘अस्थायी’ के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा.
केंद्र सरकार ने अस्थायी मलिन बस्तियों को परिभाषित करते हुए कहा है कि जो बस्तियां बारिश का पानी ले जाने वाले बड़े नालों, रेलवे लाइनों, प्रमुख ट्रांसपोर्ट अलाइनमेंट और नदियों या जल निकायों के पास बसी है. इन मलिन बस्तियों का इस्तेमाल ISSR मॉडल के लिए नहीं किया जा सकता है, लेकिन अन्य तीन मॉडल इन पर काम कर सकते हैं.
दूसरी ओर स्थाई मलिन बस्तियों की पहले ‘तकनीकी’ और ‘वित्तीय’ व्यवहार्यता की जांच की जाती है. इसके बाद वहां रहने वाले लोगों को पुनर्विकास के लिए PMAY- हाउसिंग फॉर ऑल (एचएफए) योजना में शामिल किया जाता है.
आईएसएसआर सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल के माध्यम से किया जाने वाला मॉडल है. इसमें प्राइवेट सेक्टर कंस्ट्रक्शन और फाइनेंस का काम करता है तो पब्लिक सेक्टर पुनर्वास के लिए जमीन मुहैया कराता है. प्राइवेट सेक्टर कंस्ट्रक्शन के दौरान फ्लैट पाने के पात्र झुग्गीवासियों को बदले में रहने की जगह दिलाने के लिए जिम्मेदार होता है.
ISSR परियोजनाओं के दो हिस्से हैं – ‘झुग्गी पुनर्वास’ और ‘फ्री सेल’
सबसे पहले वाले हिस्से में पात्र झुग्गीवासियों के लिए सभी जरूरी सुविधाओं के साथ घर मुहैया कराना शामिल है और बाद वाले हिस्से में कुछ निश्चित फ्लैटों को प्राइवेट डेवलपर्स को बाजार में बेचने के लिए दिया जाता है. ऐसे प्रोजेक्ट को ‘क्रॉस-सब्सिडी’ के तौर पर जाना जाता है. दूसरे शब्दों में कहें तो फ्लैट बनाने में लगी पूंजी की वित्तीय वसूली. डीडीए की गाइडलाइन के मुताबिक इन दो घटकों के लिए क्रमशः 60 से 40 के अनुपात की रूपरेखा तैयार की जाती है.
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‘दिल्ली मॉडल’
अभी हाल ही में पूरे हुए कालकाजी प्रोजेक्ट के अलावा, दिल्ली में कठपुतली कॉलोनी और जेलोरवाला बाग में झुग्गी पुनर्वास के प्रयास चल रहे हैं. जेलोरवाला बाग का प्रोजेक्ट इस साल दिसंबर तक तैयार हो जाने की संभावना है. डीडीए के अनुसार, कठपुतली प्रोजेक्ट कब तक पूरा हो पाएगा, अभी इसकी तारीख का अंदाजा लगाना मुश्किल है.
डीडीए हाउसिंग कमिश्नर, कठपुतली कॉलोनी प्रोजेक्ट वी.एस. यादव के अनुसार, मौजूदा समय में इसे रहेजा डेवलपर्स के साथ पीपीपी मॉडल के जरिए विकसित किया जा रहा है. इसे पहली बार 2008 में घोषित की गया था. लेकिन कई सालों तक यह योजना ठप्प पड़ी रही थी.
उन्होंने पहले दिप्रिंट को बताया था, ‘… कठपुतली कॉलोनी का पुनर्वास किया जा रहा है. इसके निर्माण का जिम्मा एक प्राइवेट कंपनी को दे दिया गया है. कुल जमीन (डीडीए द्वारा प्रदान की गई) के 60 प्रतिशत हिस्से में स्लम निवासियों के लिए फ्लैट बनाए जाएंगे. और बाकी बची 40 प्रतिशत जमीन पर कमर्शियल उद्देश्य के लिए फ्लैट बनाए जाएंगे. इन्हें बेचकर कंपनी अपना खर्च निकालेगी.’
पीपीपी मॉडल में भी प्राइवेट डेवलपर्स को ही वहां रहने वालों के लिए अलग से घर की व्यवस्था करनी होती है. कठपुतली कॉलोनी के मामले में रहेजा डेवलपर्स ने इन लोगों को कॉलोनी से 1.8 किलोमीटर दूर आनंद पर्वत पर घर मुहैया कराया है.
पीपीपी मॉडल के विपरीत, कालकाजी एक्सटेंशन और जेलोरवाला बाग प्रोजेक्ट्स को डीडीए ने ही शुरू किया था. कालकाजी एक्सटेंशन के निवासियों के लिए डीडीए द्वारा दिए गए नए घर आसपास के क्षेत्र में ही थे.
फिर भी ये परियोजनाएं आईएसएसआर वर्टिकल के अंतर्गत आती हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें पहले शुरू किया गया था. कालकाजी प्रोजेक्ट की घोषणा 2011 में की गई थी और पीएमएवाई शुरू होने से पहले 2013 में इसकी आधारशिला रखी गई थी. इसका मतलब है कि पीपीपी को आईएसएसआर के लिए पसंदीदा विकल्प बनाने वाले दिशानिर्देश अभी तक लागू नहीं हुए थे.
यादव ने समझाया, ‘पीएमएवाई दिशा निर्देश यह भी कहते हैं कि अगर पीपीपी व्यवहार्य नहीं है, तो अन्य विकल्पों का पता लगाया जा सकता है.’
योजना में घर पाने वाले लोगों को निर्धारित समय सीमा के अंदर सरकार द्वारा निर्धारित लागत का भुगतान डीडीए को करना होता है.
डीडीए के कार्यकारी अभियंता के अनुसार, कालकाजी निवासियों के लिए यह राशि 1.42 लाख रुपए है. इसमें पांच साल की मेंटेनेंस कॉस्ट (30,000 रुपए) भी शामिल है. पांच साल पूरे होने के बाद कितना मेनटिनेंस लिया जाएगा, अभी यह तय नहीं है, लेकिन इसे लाभार्थियों को ही देना होगा.
लॉटरी सिस्टम के जरिए घरों को सौंपा गया है. क्योंकि ज्यादातर लाभार्थी पहली मंजिल को प्राथमिकता दे रहे थे. इन घरों में सभी बुनियादी सुविधाओं के साथ दो कमरे, एक रसोई, एक बाथरूम, एक शौचालय और एक बालकनी दी गई है, ताकि झुग्गी में रहने वाले लोगों को एक स्वच्छ, स्वस्थ और सम्मानजनक जीवन शैली तक पहुंचाया जा सके.
यादव ने यह भी कहा था कि डीडीए की भविष्य की सभी परियोजनाओं के लिए पीपीपी मॉडल का इस्तेमाल किया जाएगा. 2022-23 के अपने वार्षिक बजट के अनुसार, एजेंसी ने रोहिणी, दिलशाद गार्डन, शालीमार बाग और हैदरपुर क्षेत्रों में छह अन्य इन-सीटू स्लम पुनर्वास परियोजनाओं को शुरू करने की भी योजना बनाई है.
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अन्य राज्यों के साथ इसकी तुलना कैसे की जाएगी?
डीडीए ने मुंबई, अहमदाबाद और सूरत में आईएसएसआर प्रोजेक्ट का दौरा करने वाले अधिकारियों के साथ, अपने खुद के मॉडल को विकसित करने के लिए दो अन्य राज्यों – महाराष्ट्र और गुजरात – में आईएसएसआर के कार्यान्वयन का अध्ययन किया था.
महाराष्ट्र स्लम रिहैबिलिटेशन अथॉरिटी (एसआरए) ने जिस नीति को अपनाया है, उसके तहत, डेवलपर 70 प्रतिशत निवासियों की सहमति लेने के बाद, स्लम रिहैबिलिटेशन अथॉरिटी के सहयोग से SRA को एक प्रस्ताव भेजते हैं.
और फिर राज्य सरकार की ओर से तय की गई संपत्ति की कीमत के 25 प्रतिशत की दर से डेवलपर स्लम की ली गई जमीन के लिए प्रीमियम का भुगतान करता है.
एसआरए उस राशि का 90 फीसदी जमीन का मालिकाना हक रखने वाली एजेंसी को देता है, अब चाहे वह एजेंसी सरकारी हो, सेमी गवर्नमेंट हो या फिर कोई स्थानीय निकाय. बची हुई 10 प्रतिशत राशि को प्रशासनिक शुल्क के रूप में यह अपने पास रखता है.
SRA का खास प्रोजेक्ट धारावी का पुनर्विकास.
गुजरात के अहमदाबाद और सूरत में राज्य की 2013 की स्लम पुनर्वास नीति के तहत इन-सीटू पुनर्वास परियोजनाएं शुरू की गई.
गुजरात पीएमएवाई के अंतर्गत शहरी क्षेत्रों में मलिन बस्तियों के इन-सीटू पुनर्विकास के लिए पीपीपी मॉडल अपनाने वाला पहला राज्य भी था. दिल्ली की परियोजनाओं में लाभार्थियों से 1.42 लाख रुपए प्रति फ्लैट लिया जाता है. लेकिन इसके उलट यहां ईडब्ल्यूएस फ्लैटों को झुग्गी में रहने वालों को मुफ्त में वितरित किया गया था.
नीति आयोग के विकास निगरानी और मूल्यांकन कार्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2020 तक गुजरात में 13 ISSR परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं.
यहां एक और चीज है जो दिल्ली से अलग है. गुजरात में जिन लाभार्थियों के पास झुग्गी-झोपड़ियों में दुकानें थीं, उन्हें पुनर्विकसित जमीन पर दुकानें आवंटित की गयी. महाराष्ट्र में भी ऐसा ही प्रावधान है.
केंद्र सरकार की PMAY योजना को तमिलनाडु ने भी अपनाया है. राज्य सरकार ने योजना के लिए मिशन निदेशालय के रूप में ‘तमिलनाडु शहरी आवास विकास बोर्ड’ को नामित किया है. इसे पहले तमिलनाडु स्लम क्लीयरेंस बोर्ड के रूप में जाना जाता था.
ग्रेटर चेन्नई कॉर्पोरेशन जैसी नगर निगमों ने जलमार्गों के किनारे स्थित मलिन बस्तियों के इन-सीटू पुनर्विकास के लिए आस-पास की जमीन की पहचान करना शुरू कर दिया है. इन झुग्गियों को पहले अतिक्रमण के तौर पर देखा जाता था. उन्हें यहां से बेदखल करने और शहर के बाहरी इलाके में उनका पुनर्वास करने का प्रयास किया गया था.
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आईएसएसआर को लेकर चिंताएं
आईएसएसआर को कई राज्यों ने काफी तेजी से अपनाया है. इसके बावजूद आईएसएसआर मॉडल में बनी ऊंची इमारतों में पुनर्वास को लेकर काफी चिंताएं भी है.
उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र एसआरए के प्रयासों की कथित तौर पर आम जन के फायदे की बजाय अधिक ‘विकास-केंद्रित’ होने के लिए इसकी आलोचना की गई. आलोचकों ने उन पर परियोजनाओं की प्रोजेक्ट में निवेश करने से इनकार करने, प्राइवेट डेवलपर्स को प्रमुख अचल संपत्ति देने और कार्यान्वयन के लिए उन पर बेहद ज्यादा निर्भर होने का आरोप लगाया था. कहा गया कि वह झुग्गी निवासियों के लिए ‘बेहतर आवास’ सुनिश्चित करने में विफल रहे.
तर्क यह भी दिया गया कि ऊंची बिल्डिंग वाले ये प्लैट पहले से झुग्गी-झोपड़ियों में रहते आ रहे लोगों के अनुरूप नहीं हैं. ऐसा कहा जाता है कि यह उनके आपसी सामुदायिक तालमेल में रुकावट डालते हैं और इससे उनके सामाजिक ताने-बाने पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
यह उन्हें उनके जीवन-यापन के साधनों को भी कम कर रहे है. ये लोग अक्सर सड़कों पर अपनी रोजी -रोटी को लिए निर्भर होते हैं. दरअसल इनका डिजाइन वहां रहने वाले लोगों की आर्थिक स्थिरता और उनके छोटे-मोटे कामों के लिए खतरा है, जिनसे वो अपना घर चलाते हैं.
पीएमएवाई नीति में और भी कई खामियां हैं. यहां यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि जिस जमीन का इस्तेमाल नहीं किया गया है, उसका प्रबंधन कैसे किया जाए. चेन्नई में नागरिक समूहों ने सोचा कि इससे बाहरी इलाके में और अधिक पुनर्वास घरों का निर्माण हो सकता है.
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पुनर्वास के अन्य मॉडल
आईएसएसआर के अलावा पुनर्वास के तीन और मॉडल हैं. इनमें से एक क्रेडिट-लिंक्ड सब्सिडी स्कीम (CLSS) तो वहीं दूसरी स्कीम एफोर्डेबल हाउसिंग इन पार्टनरशिप (AHP) है. तीसरा मॉडल यानी बेनेफिशियरी-लेड इंडिविजुअल हाउस कंस्ट्रक्शन (BLC) के लिए दी जाने वाली सब्सिडी हैं.
CLSS एकमात्र ऐसा मॉडल है जिसे सरकार की ओर से स्थानीय अधिकारियों के जरिए लागू नहीं किया जाता है. इसके तहत बैंकों, हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों और ऐसे अन्य संस्थानों से 6 लाख रुपए तक के हाउसिंग लोन की मांग करने वाले ईडब्ल्यूएस और निम्न आय समूह (एलआईजी) वर्ग के लोगों को 15 साल के लिए 6.5 प्रतिशत की दर से ब्याज सब्सिडी दी जाती है.
यह कर्ज नए निर्माण, या मौजूदा घरों में अतिरिक्त कमरा, रसोई या शौचालय फिर शौचालय बनाने के लिए दिया जाता है.
एएचपी में सरकार निजी डेवलपर्स को कुछ रियायतें देती है जैसे कर सब्सिडी, सस्ती कीमत पर जमीन और स्टांप शुल्क में छूट. ऐसा कर उन्हें अपने कुल आवासों में से ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के लिए 35 प्रतिशत घर तैयार करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए किया जाता है.
ऐसे में राज्य या केंद्र शासित प्रदेश ईडब्ल्यूएस घरों की बिक्री मूल्य पर ‘ऊपरी सीमा’ तय करते हैं ताकि उन्हें खरीदने आसान बना रहे.
बीएलसी में शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) से संपर्क करने वाले लाभार्थियों को उनके स्वामित्व वाली जमीन की उपलब्धता के संबंध में पर्याप्त दस्तावेज शामिल हैं. इन आवेदनों के आधार पर, शहरी स्थानीय निकाय यह सुनिश्चित करते हैं कि प्रस्तावित घरों का निर्माण शहर के प्लानिंग लॉ के अनुसार किया गया है. इसके अलावा वे ये भी सुनिश्चित करते हैं कि निर्माण के लिए जरूरी आर्थिक मदद लाभार्थी को उनके स्वयं के योगदान और केंद्र एवं राज्य सरकारों सहित विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध हो.
PMAY से पहले वाली योजनाएं
पीएमएवाई और यूपीए सरकार द्वारा 2009 में शुरू की गई पहले से मौजूद कार्यक्रम ‘राजीव आवास योजना (RAY)’ के बीच तुलना करते हुए भी इन्हें समझा जा सकता है.
दोनों योजनाओं में 2022 तक ‘सभी के लिए आवास’ और भारत को ‘झुग्गी-झोपड़ी मुक्त’ बनाने के समान उद्देश्य थे.
RAY में केंद्र सरकार एक बड़ी भूमिका निभाती थी. दरअसल सरकार परियोजना लागत का 75 प्रतिशत वहन करती थी, बाकी का खर्च राज्य सरकारों को उठाना होता था. इसका फायदा ये हुआ कि लाभार्थियों को बहुत कम भुगतान करना पड़ा.
दोनों योजनाओं में इन-सीटू डिग्रेडेशन और इन-सीटू पुनर्विकास या पुनर्वास के लिए नीतियां थीं.
नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक इंडिया सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च एंड डेवलपमेंट में राष्ट्रीय सलाहकार बोर्ड के सदस्य राजेश सिन्हा ने कहा कि 2015 में पीएमएवाई ने इसे अपने में शामिल कर लिया था. उसके बाद से RAY का जीवनचक्र समाप्त हो गया.
आरएवाई से पहले 2005 में, जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (JNNURM) योजना थी. दरअसल यह शहरों में बुनियादी ढांचे और जीवन स्तर में सुधार के लिए एक मिशन था.
शहरी गरीबों के लिए बुनियादी सेवाएं (बीएसयूपी) और एकीकृत आवास और स्लम विकास कार्यक्रम (IHSDP) जेएनएनयूआरएम का हिस्सा थे. सिन्हा ने इन्हें ‘थोड़ा व्यापक’ योजना बताया, क्योंकि इसमें शहरी परिवहन जैसे घटक भी शामिल थे.
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