मधुबनी: ‘सिस्टर, घबराना नहीं है, डबल वैक्सीनेटेड हैं तो कुछ तो बचाव है.’ कोविड वार्ड में घुसने से पहले यह कहकर मधुबनी के कोविड केयर अस्पताल में तैनात 25 डॉक्टरों में से एक 37 वर्षीय डॉ. पंकज कुमार ने अपने साथ मौजूद नर्स को आश्वास्त करने की कोशिश की.
एक मिनट पहले ही नर्स रचना ने डॉ. कुमार से पूछा था कि क्या वो लोग अगला साल देखने के लिए जिंदा रहेंगे.
महमारी की दूसरी लहर के दौरान मधुबनी अस्पताल में 40 दिन से ड्यूटी कर रहे डॉ. पंकज कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं उसे और क्या कह सकता था? हम सब अपनी जिंदगी को लेकर ही निश्चिंत नहीं हैं. हर दिन डॉक्टरों और नर्सों को वायरस के कारण मरते देखते हैं. सब कुछ अनिश्चितता से भरा है.’
जिला मुख्यालय से आठ किलोमीटर दूर रामपट्टी स्थित इस नर्सिंग कॉलेज को देश में महामारी की पहली लहर के दौरान कोविड अस्पताल में बदल दिया गया था. डॉ. पंकज कुमार—जिन्होंने भागलपुर से एमबीबीएस की डिग्री, बीएचयू से एमडी डिग्री ली है और दिल्ली एम्स में सीनियर रेजिडेंसी की हैं—ने तब भी अस्पताल में काम किया था. गुरुवार को 120 मरीजों की क्षमता वाले इस अस्पताल में 89 मरीज भर्ती थे.
उन्होंने कहा, ‘पिछली लहर इतनी घातक नहीं थी. यहां पर पिछले साल कोविड के कारण केवल एक मौत हुई थी लेकिन दूसरी लहर में अब तक 65 मौतें हो चुकी हैं.’
इस सबसे मेडिकल स्टाफ के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर पड़ा है, जिन्हें अपनी जान की चिंता सताती रहती है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की तरफ से उपलब्ध कराए गए आंकड़ें बताते हैं कि दूसरी कोविड लहर में जान गंवाने वाले 329 डॉक्टरों में से 96 बिहार के ही हैं. यह देश में कोविड के कारण मरे कुल डॉक्टरों का लगभग 29 प्रतिशत है.
डॉक्टर अपने परिवारों के बारे में भी चिंतित हैं—उनसे दूर रहना मुश्किल है, क्योंकि घर के लोग लगातार उस व्यक्ति को लेकर चिंतित रहते हैं जो अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरे लोगों का इलाज कर रहा है. लेकिन डॉक्टरों को घर में रहते हुए आइसोलेशन का कड़ाई से पालन करना चाहिए.
इसी तरह ही कई अस्पतालों में सीमित बुनियादी ढांचा और ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचाने की चुनौती के साथ मरीजों के बीच चिकित्सीय मदद को लेकर जानकारी के अभाव और झिझक से जूझना पंकज कुमार जैसे डॉक्टरों की निराशा को और बढ़ा देता है.
डॉ. कुमार ने कहा, ‘हम गंभीर मरीजों का एक दिन अच्छी तरह निरीक्षण करते हैं और फिर अगर हमें लगता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद मरीज के बचने की संभावना कम है, तो हम परिवार को मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार करना शुरू कर देते हैं, जैसे ‘हरसंभव प्रयास कर रहे हैं, ऑक्सीजन भी दे रहे, दवाई भी जारी है…’ फिर परिवार का कोई व्यक्ति कहता है ‘कुछ भी कीजिये मरीज को बचा लीजिए, जिसके बाद हमारे पास कहने के लिए कुछ नहीं बचता है.’
ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों के सामने आने वाली चुनौतियों का पता लगाने के लिए दिप्रिंट की टीम ने एक दिन डॉ. पंकज कुमार के साथ बिताया.
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चार भयावह शब्द
समस्तीपुर निवासी पंकज कुमार सुबह 10 बजे अस्पताल पहुंचने के लिए रोजाना 40 किलोमीटर का सफर तय करते हैं. वह अस्पताल के क्लिनिकल कोऑर्डिनेटर भी हैं, इसलिए उनके पास अतिरिक्त प्रशासनिक जिम्मेदारियां भी हैं, जिसमें जिला मजिस्ट्रेट के साथ कोऑर्डिनेशन भी शामिल है.
लेकिन जिस बात से वह सबसे ज्यादा डरते हैं, वो है ऐसा क्षण आना जब उन्हें किसी मरीज के परिजन के सामने ये चार भयावह शब्द बोलने पड़ते हैं—‘वो नहीं रहा/रही है.’
वह उदाहरण के तौर पर एक 40 वर्षीय शिक्षक का मामला बताते हैं, जिनका परिवार सांस लेने में दिक्कत के बाद एक दिन सुबह-सुबह ही अस्पताल लेकर आया था और उनका ऑक्सीजन लेवल गंभीर रूप से नीचे पहुंच चुका था.
उन्होंने बताया, ‘उनकी पत्नी उनका सिर अपनी गोद लेकर हाथ फेर रही थी. उन्हें लग रहा था कि वह अभी भी जिंदा है. लेकिन वह क्षण दिल दहला देने वाला था जब मुझे उसे बताना पड़ा कि वह पहले ही मर चुके हैं.
बाद में कोविड टेस्ट ने उनके कोविड पॉजिटिव होने की पुष्टि की. उनकी पत्नी और 10 वर्षीय बेटा भी पॉजिटिव पाए गए थे. उन्होंने कहा, ‘ऐसे क्षणों में हम क्या कह सकते हैं? हमें उन लोगों के बारे में भी सोचना होगा जो पीछे बचे हैं.’
वह जिस दूसरी सबसे बड़ी चुनौती से लगातार जूझ रहे हैं, वह है ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे का अभाव. उन्होंने कहा, ‘कोविड नहीं भी था तब भी ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त स्वास्थ्य ढांचा नहीं था. महामारी ने स्थिति को और बदहाल कर दिया है.
बिस्तर, दवाएं और ऑक्सीजन की आपूर्ति आदि के सीमित संसाधनों के साथ डॉ. कुमार के लिए अक्सर यह तय करना काफी मुश्किल होता है कि उपलब्ध आपूर्ति का बेहतर ढंग से इस्तेमाल कैसे करें. आपूर्ति के बेहतर प्रबंधन और मरीज के परेशानहाल परिजनों के बीच स्थिति बिगड़ने न देना सुनिश्चित करने के लिए जिला प्रशासन ने अस्पताल में पुलिस सुरक्षा और एक उपमंडल अधिकारी (एसडीओ) की तैनाती कर रखी है.
डॉ. कुमार ने कहा, ‘यह लेवल 2 कोविड अस्पताल है—जिसमें ऑक्सीजन सपोर्ट होता है, लेकिन वेंटिलेटर नहीं होते. लेकिन यहां आने वाले ज्यादातर मरीजों को लेवल 3 केयर (वेंटिलेटर सपोर्ट) की जरूरत होती है. अक्सर ही ऐसे मरीजों को दरभंगा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (डीएमसीएच) रेफर करना पड़ता है, क्योंकि यही सबसे बड़ा अस्पताल है जिससे हम आधिकारिक तौर पर जुड़े हैं. डीएमसीएच भी अपनी पूरी क्षमता से काम कर रहा है, ऐसे में कई बार हमारे रेफर किए गए मरीज वापस फिर यहीं आ जाते हैं. और अक्सर ही हम उन्हें बचा पाने में असमर्थ होते हैं.’
इसके अलावा मैनपॉवर भी काफी कम है. डॉक्टर ने बताया कि उन्हें तो अक्सर ही यह भी पता नहीं चल पाता कि वार्ड बॉय कौन है, क्योंकि वे बदलते रहते हैं.
उन्होंने बताया, ‘बहरहाल, रामपट्टी कोविड केयर सेंटर की नर्सें समर्पित भाव से काम करती है और पूरी मदद करने के साथ-साथ वह स्थिति को संभालने में भी सक्षम हैं क्योंकि कोविड की पहली लहर के दौरान से ही यहां तैनात हैं.
ग्रामीण क्षेत्र की चुनौतियां
कुमार ने बताया कि ग्रामीण इलाकों में जो बात डॉक्टरों का काम और भी मुश्किल बना देती है, वो यह है कि लोगों को मेडिकल सहायता लेने में झिझक होती है. मरीज की स्थिति गंभीर होने पर ही उसे अस्पताल लाया जाता है.
उन्होंने कहा, ‘ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों की स्थिति एकदम अलग होती है. शहरों में अधिक जागरूकता है.’
हताशा भरे स्वर में डॉ. कुमार ने कहा, ‘सबसे पहले तो वो बीमारी की गंभीरता नहीं समझते. फिर, टेस्ट कराने में भी हिचकिचाते हैं. वे एकदम आखिर में हमारे पास आते हैं. कई बार तो वे कोविड वार्ड में भी नहीं पहुंचते हैं. रास्ते में एंबुलेंस में ही दम तोड़ देते हैं’
डॉक्टर का कहना है कि ग्रामीण बिहार में झोलाछाप डॉक्टरों का काफी दबदबा रहता है.
कुमार ने कहा, ‘वे लोगों को अस्पताल आने से रोकते हैं, यह भी काफी चिंताजनक है.’
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परिवारों का डर
डॉ. कुमार गुरुवार को पीपीई सूट पहनकर पसीने और बारिश की टपकती बूंदों के बीच कोविड वार्ड का एक चक्कर लगाने पहुंचे—गुरुवार को मधुबनी में बारिश हुई थी—और उन्होंने एक मरीज का ऑक्सीजन सपोर्ट सिस्टम ठीक किया, दूसरे की नब्ज देखी और व्यथित परिवारों को सांत्वना दी.
60 वर्ष के करीब उम्र वाली एक कोविड मरीज टिल्ला देवी, जिसे 30 ऑक्सीजन लेवर के साथ अस्पताल लाया गया था, ने शिकायत की, ‘सांस नहीं आ रहा, बाबू.’ बिहार में ‘बाबू’ शब्द किसी बच्चे के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है और यह मेडिकल इमरजेंसी की इस स्थिति के बीच उनका दिल पिघला देती है. उसकी ओर मुड़ते हुए डॉ. कुमार ने मैथिली में जवाब दिया, और उसे आराम करने की सलाह देते हुए कहा कि वह जल्द ही ठीक हो जाएंगी.
जैसे ही वह वार्ड से बाहर निकलने वाले थे, एक 20 वर्षीय युवक सुमी अहमद घबराया हुआ दौड़कर उनके पास आया और लगभग खींचते हुए उन्हें अपने पिता के बेड के पास लेकर गया. कोविड मरीज उसके पिता इस बात से चिंतित थे कि उन्हें कुछ ‘हल्का’ ही भोजन करने को कहा गया है—जो उनके परिवार की नजर में उनकी हालत में सुधार न होने का संकेत था.
डॉ. कुमार उन्हें आश्वस्त करते हैं और मरीज से कहते हैं, ‘कोशिश करना है, ठीक होना है.’
इस बीच, जब तक वह घर नहीं लौटते डॉ. कुमार के परिवार का दिन हमेशा की तरह उनकी चिंता करते ही बीतता है.
यह स्पष्ट करते हुए परिवार के संक्रमित होने के जोखिम के बावजूद वह हर शाम घर क्यों लौटते हैं, डॉ. कुमार ने कहा, ‘अगर हम अपने परिवार से नहीं मिलेंगे तो अवसाद में चले जाएंगे. हमारा परिवार हमारी चिंता करता है और हम उनकी.’
डॉक्टर के बुजुर्ग माता-पिता घर के एक कमरे में क्वारंटाइन हैं. उनकी चार और सात साल की दो बेटियों अपने पिता के गले नहीं लग पाती है. उन्हें दूर से देखकर ही सही डॉक्टर को थोड़ा सुकून जरूर मिलता है, जो रात भर के लिए अपने मरीजों को छोड़कर घर आते हैं.
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