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Friday, 22 November, 2024
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मोदी सरकार ने रेप, पॉक्सो मामले को निपटाने के लिए शुरू की थी फास्ट-ट्रैक कोर्ट, लक्ष्य से 9 राज्य पीछे

राज्यों की तरफ से केंद्र प्रायोजित योजना का अभी पूरी तरह पालन नहीं किया जा सका है. हालांकि, यूपी और एमपी जैसे राज्यों में पूरी तरह काम कर रही फास्ट ट्रैक, पॉक्सो अदालतों के बावजूद लंबित मामलों की संख्या सबसे अधिक है.

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नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने रेप और बच्चों के यौन शोषण से जुड़े मामलों के निपटारे में तेजी लाने के उद्देश्य के साथ फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (एफटीएससी) और विशेष पॉक्सो (यौन अपराध के खिलाफ बच्चों की सुरक्षा) अदालतों की स्थापना के लिए केंद्र प्रायोजित योजना (सीएसएस) शुरू की थी. लेकिन करीब तीन साल बीत जाने के बावजूद नौ राज्यों में अभी तक इस योजना पर पूरी तरह अमल नहीं हो पाया है, जबकि दो राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) ने इसके लिए अपनी सहमति ही नहीं दी है.

केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय के एक विश्लेषण से पता चलता है कि तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, बिहार, असम, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, ओडिशा और गोवा ने उतनी संख्या में एफटीएससी और विशेष पॉक्सो अदालतों की स्थापना नहीं की, जितना केंद्रीय कानून मंत्रालय की तरफ से इनमें से हर राज्य के संबंध में अनुमान लगाया गया था.

मंत्रालय के सूत्रों ने दिप्रिंट को यह भी बताया कि पश्चिम बंगाल और अरुणाचल प्रदेश ने इस योजना को अपनी मंजूरी नहीं दी है और अभी तक इन दो श्रेणियों के आपराधिक मामलों को विशेष अदालतों को सौंपा जाना बाकी है. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह एकमात्र केंद्र शासित प्रदेश है जिसने विशेष एफटीएससी और विशेष पॉक्सो अदालतें गठित करने पर अपनी सहमति नहीं दी है.

रेप और पॉक्सो से जुड़े मामले जल्द निपटाना सुनिश्चित करने के लिए उद्देश्य के साथ ही सीएसएस के तहत विशेष फास्टट्रैक अदालतें गठित करने की परिकल्पना की गई थी. सीएसएस नियमों के तहत 60 प्रतिशत वित्तीय योगदान केंद्र सरकार देती है और ऐसी अदालतों के गठन पर 40 फीसदी खर्चा राज्य और केंद्र शासित प्रदेश सरकारों को वहन करना होता है. सिक्किम, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर सहित पहाड़ी राज्यों के मामले में इस बंटवारे का अनुपात 90:10 होता है.

ये योजना आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018 पेश होने के बाद तैयार की गई, जिसके जरिये मौजूदा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), भारतीय साक्ष्य अधिनियम और पॉक्सो को मजबूती दी गई थी. इसमें बच्चों और महिलाओं से बलात्कार के लिए कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है.

2019 में सुप्रीम कोर्ट के सुझाव पर सीएसएस में उन जिलों में विशेष पॉक्सो अदालतों का प्रस्ताव भी शामिल किया गया, जहां बाल यौन शोषण के 100 से अधिक मामले लंबित थे. इन अदालतों में केवल पॉक्सो मामलों की ही सुनवाई करना निर्धारित किया गया.

इन विशेष अदालतों ने अक्टूबर 2019 में काम करना शुरू किया, और इनके संचालन के लिए दो वित्तीय वर्षों 2019-20 और 2020-21 के लिए सीएसएस का इंतजाम किया गया. हालांकि, सिफारिशों और कैबिनेट मंजूरी के आधार पर योजना को दो साल की अवधि के लिए और बढ़ा दिया गया है, जिसका अर्थ है कि यह अब मार्च 2023 तक लागू रहेगी.

मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि योजना के तहत पश्चिम बंगाल में 123 एफटीएससी और 20 विशेष पॉक्सो कोर्ट की जरूरत थी, और अरुणाचल प्रदेश को तीन स्पेशल फास्टट्रैक कोर्ट शुरू करनी थीं. हालांकि, दोनों राज्यों ने अभी तक विशेष अदालतें गठित करने के लिए सहमति नहीं दी है.

जिन राज्यों में ऐसी विशेष अदालतें आंशिक रूप से काम कर रही हैं, उनके डेटा से पता चलता है कि तेलंगाना ने केवल 34 एफटीएससी शुरू की हैं, जबकि 36 के गठन का सुझाव रखा गया है. वहीं राज्य में बच्चों के यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में सुनवाई के लिए 10 विशेष पॉक्सो कोर्ट शुरू की जानी थी लेकिन इन्हें अभी तक शुरू नहीं किया जा सका है.

महाराष्ट्र में प्रस्तावित 138 स्पेशल फास्टट्रैक कोर्ट में से केवल 33 काम कर रही हैं, जबकि सुझाव के मुताबिक 30 की जगह केवल 18 स्पेशल पॉक्सो अदालतें स्थापित की गई हैं.

डेटा आगे दर्शाता है कि केरल ने योजना के मुताबिक 17 स्पेशल पॉक्सो अदालतें तो गठित कर दी हैं और वे काम भी कर रही हैं. लेकिन, राज्य एफटीएससी में पिछड़ रहा है. प्रस्तावित 56 एफटीएससी में से अभी केवल 50 फीसदी ने ही काम करना शुरू किया है.


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दूसरी तरफ, आंध्र प्रदेश, बिहार, असम, कर्नाटक, ओडिशा और गोवा जैसे राज्यों ने दोनों में किसी एक आवश्यकता को ही पूरा किया है. मसलन आंध्र ने 13 विशेष पॉक्सो अदालतें स्थापित की हैं, जो कि सुझाई गई संख्या (8) की तुलना में अधिक हैं, वहीं, इसने 13 एफटीएससी स्थापित की हैं, जो सुझाई गई संख्या से पांच कम हैं.

इसी तरह, बिहार में 54 की जरूरत होने के सुझाव के मुकाबले 45 एफटीएससी गठित की गई हैं. लेकिन, साथ ही, इसमें केवल पॉक्सो मामलों की सुनवाई के लिए 45 अदालतें बनाई हैं जबकि योजना के तहत अनुमानित संख्या 30 ही थी.

लगातार बढ़ती लंबित मामलों की संख्या

साथ ही, कानून मंत्रालय का विश्लेषण यह भी बताता है कि 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में इन कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने इस महीने के शुरू में हाई कोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखकर विशेष अदालतों में मामलों की धीमी प्रगति पर उनका ध्यान आकृष्ट किया था.

31 जुलाई 2022 तक एफटीएससी और विशेष पॉक्सो अदालतों में कुल लंबित मामले 1,93,195 थे. जून 2019 में इस योजना की परिकल्पना किए जाने के दौरान ऐसी अदालतों द्वारा 1,66,882 मामलों के निपटारे का लक्ष्य रखा गया था.

उत्तर प्रदेश में इन अदालतों में अभी भी 75,000 से अधिक मामले लंबित हैं. न्याय विभाग (डीओजे) के एक अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘यह स्थिति तब है जब राज्य के सभी 218 एफटीएससी और 74 विशेष पॉक्सो अदालतें काम कर रही हैं. लेकिन, लंबित संख्या बताती है कि मामलों का निपटारा तेजी से नहीं हो रहा है.

इसके बावजूद कि मध्य प्रदेश में एफटीएससी और पॉक्सो अदालतें पूरी तरह काम कर रही हैं, राज्य बड़ी संख्या में लंबित मुकदमों का सामना कर रहा है. यहां अभी 13,000 से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से 10,000 से अधिक मामले की सुनवाई विशेष पॉक्सो अदालतों में चल रही है.

डीओजे अधिकारी ने कहा कि पॉक्सो कानून इसके तहत आने वाले मामलों का एक साल के भीतर निपटाना अनिवार्य बनाता है. उन्होंने कहा कि विभाग यह पता लगाने के लिए एक और विश्लेषण की योजना बना रहा है कि प्रत्येक अदालत पॉक्सो मामलों की सुनवाई पूरी करने में कितना समय लगाती है, इसे ध्यान में रखकर ही विभाग इस मामले को संबंधित उच्च न्यायालयों के साथ उठाएगा.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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