वेसू, अनंतनाग: डर से संदीप कौल का दिल जोरों से धड़क रहा था, जब वो कश्मीर के अनंतनाग में अपनी पांच साल की बेटी के लिए एक एटीएम के बाहर पैसा निकालने के इंतजार में खड़े थे. ये एक नियमित काम था लेकिन उन्हें डर था कि इसमें उन्हें मारा जा सकता है.
उस मौके को याद करते हुए थोड़ी कांपती हुई आवाज में उन्होंने कहा, ‘मेरे आगे खड़ा एक नौजवान अपनी जेब से फोन निकालने की कोशिश कर रहा था. मुझे लगा कि वो मुझे मारने के लिए पिस्टल निकाल रहा है. मैं बहुत डर गया था’.
कौल जो एक सरकारी कर्मचारी हैं अनंतनाग के वेसू में कश्मीरी पंडितों के लिए बनाए गए एक ट्रांजिट कैंप में रहते हैं, और समुदाय के लिए शुरू की गई प्रधानमंत्री रोजगार पैकेज के एक ‘लाभार्थी’ हैं. लेकिन वो घाटी में ‘पुनर्वासित’ किए जाने से थक गए हैं, और किसी ऐसी नई जगह पर बसना चाहते हैं जहां उन्हें हर थोड़ी देर में पीछे मुड़कर नहीं देखना होगा.
संदीप अकेले नहीं हैं जो ख़ौफ और बेचैनी में जी रहे हैं. हजारों कश्मीरी पंडितों को जिनमें वो 4,500 लोग भी शामिल हैं जो 2010 से पीएम रोजगार योजना के तहत कश्मीर में निवास और काम कर रहे हैं, अब अहसास हो रहा है कि घर-वापसी और रोज़गार, उनकी जान के जोखिम की कीमत पर मिले हैं.
कश्मीर में इस साल लक्षित नागरिक हत्याओं की बाढ़ सी आ गई है- जिसके शिकार हिंदू और मुसलमान दोनों हुए हैं- लेकिन कश्मीरी पंडितों के बीच खौफ और गहरा गया, जब 12 मई को समुदाय के एक सरकारी कर्मचारी राहुल भट्ट की बडगाम के चदूरा में तहसील ऑफिस के अंदर हत्या कर दी गई. पिस्टल से लैस उग्रवादियों ने जिस समय उनपर गोलियां चलाईं, वो अपने ऑफिस में थे जो एक उच्च-सुरक्षा जोन है.
उसके बाद से बहुत से कश्मीरी पंडितों ने, खासकर वो जिन्हें रोजगार स्कीम के तहत ‘पुनर्वासित’ किया गया था, उनके हाथों मारे जाने के डर से घाटी से भागना शुरू कर दिया है, जिन्हें जेएंडके सुरक्षा एजेंसियां ‘हाईब्रिड’ या ‘अंश-कालिक’ आतंकवादी कहती हैं- दरअसल ये वो युवा लोग हैं जो चोरी-छिपे उग्रवादियों का काम करते हैं लेकिन जिनकी पहचान करना मुश्किल होता है क्योंकि उनका कोई पहला आपराधिक रिकॉर्ड नहीं होता.
लेकिन, घाटी से बाहर निकलना उतना आसान नहीं रहा है, चूंकि सरकार ने ट्रांजिट कैंप को आदेश दिया है कि पंडितों को बाहर निकलने न दिया जाए- भले ही इसके लिए उन्हें एक तरह से बंद रखना पड़े.
जो लोग अभी भी यहां हैं वो बस कहीं ज्यादा सुरक्षित जगह पर जाने के इंतजार में हैं और उन्हें उम्मीद है कि वो उनका आखिरी पलायन होगा क्योंकि अब वो कभी वापस नहीं लौटना चाहते रोजगार या पैसे के लिए भी नहीं.
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एक तीसरा प्रवास
अनंतनाग की वेसू पंडित कॉलोनी में साफ-सुथरे छोटे छोटे घरों की बहुत सारी कतारें हैं. यहां के निवासियों का कहना है कि यहां कभी 900 कर्मचारी रहते थे लेकिन इस साल मई से क़रीब 300 लोग अपनी सुरक्षा के डर से अंधेरी रात में यहां से निकल गए.
लोगों को निकलने से रोकने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) कर्मी यहां के प्रवेश और निकास बिंदुओं की चौकसी करते हैं. आवाजाही पर प्रतिबंध है और बहुत से लोगों का कहना है कि जरूरत पड़ने पर वो दूध, किराना और दवाएं भी नहीं खरीद पाते.
30 की उम्र पार कर चुके एक सरकारी कर्मचारी संदीप रैना कहते हैं, ‘मैं 10 साल का था जब हम पहली बार 1990 के दशक में, कश्मीर से प्रवास करके जम्मू आए थे. मेरा दूसरा प्रवास 2010 में हुआ जब मुझे यहां नौकरी मिली और बिगड़ती सुरक्षा स्थिति की वजह से अब हम तीसरे प्रवास से गुजर रहे हैं लेकिन हमें यहां से निकलने की इजाजत नहीं है. ये विशुद्ध राजनीतिक आतंकवाद है’.
कश्मीर के दूसरे हिस्सों में भी ऐसी ही मायूसी है और बारामूला, कुपवाड़ा और शेखपुरा के शिविरों में भी परिवारों को रात के अंधेरे में बाहर निकलते हुए देखा गया है.
वेसू में, बाकी बचे परिवार कश्मीर से बाहर विस्थापित किए जाने और नौकरियां दिए जाने के लिए विरोध प्रदर्शन जारी रखे हुए हैं लेकिन हर गुजरते दिन के साथ उनकी उम्मीदें टूट रही हैं.
विपक्षी दलों की ओर से बढ़ती आलोचना के बीच केंद्रीय गृह मंत्री और बीजेपी नेता अमित शाह ने पिछले हफ्ते कश्मीर में सुरक्षा के हालात को लेकर एक ‘उच्च-स्तरीय बैठक’ की, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि अभी तक पंडितों को आने जाने की आजादी मिलने के कोई आसार हैं.
दिप्रिंट से बात करते हुए केंद्र-शासित क्षेत्रों जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लिए बीजेपी महासचिव (संगठन) अशोक कौल ने कहा कि पार्टी कश्मीरी पंडितों को किसी नई जगह बसाने के ‘पक्ष में नहीं है’, हालांकि जिसे भी जरूरत हो उसे सुरक्षा मुहैया कराई जाएगी.
‘सामान्य हालात का दिखावा बने रहना चाहिए’
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) नेता और पूर्व जम्मू-कश्मीर मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का कहना है कि अगर बीजेपी का बस चले तो पंडितों को कहीं जाने नहीं दिया जाएगा.
उन्होंने कहा, ‘(सामान्य हालात का) दिखावा बने रहना चाहिए, भले ही उसके लिए (पंडितों को) जानवरों की तरह बंद रखना पड़े’. वो 2019 में जम्मू एंड कश्मीर से धारा 370 ख़त्म किए जाने और पूर्व राज्य के एक केंद्र-शासित क्षेत्र की हैसियत से केंद्र के अंतर्गत आने की ओर इशारा कर रहीं थीं
उनका आरोप था कि कश्मीरी पंडितों की हत्याएं ‘बीजेपी के लिए जरा सी असुविधा से ज्यादा कुछ नहीं हैं’ क्योंकि वो सिर्फ इस नैरेटिव को आगे बढ़ाने में मदद करती हैं कि हिंदू ख़तरे में हैं…चाहे मुसलमान हों या पंडित, बीजेपी के लिए हम बस तोपों का चारा भर हैं’.
कश्मीरी पंडितों के घाटी छोड़कर जाने पर, पूर्व
जम्मू एंड कश्मीर मुख्यमंत्री और नेशनल कॉनफ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्लाह ने इस हफ्ते इंडियन एक्सप्रेस के साथ एक इंटरव्यू में कहा कि वो इसे एक ‘व्यक्तिगत नाकामी’ मानते हैं.
उन्होंने कहा,‘मैं उस सरकार का हिस्सा था जिसने इस पैकेज (पीएम रोजगार) को लाकर लागू किया था…हर एक सरकारी कर्मचारी जो यहां से वापस जाता है, उसे मैं अपनी एक व्यक्तिगत नाकामी मानता हूं’.
किसी को जिम्मेदारी ठहराने के सवाल को अलग कर दें तो भी कश्मीर के सुरक्षा तंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि हाल ही में उग्रवाद ने एक कपटी रूप ले लिया है.
‘हाईब्रिड’ आतंकवादी- ऑनलाइन कट्टरपंथी बनाए गए पार्ट-टाइम हत्यारे
इस साल मार्च से पूरी घाटी में 18 नागरिकों की गोली मारकर हत्या की गई है. उनमें 12 मुसलमान थे, एक कश्मीरी पंडित था, जम्मू से एक डोगरा महिला थी, राजस्थान का एक बैंक मैनेजर था और एक बिहार का प्रवासी मजदूर था.
जम्मू एंड कश्मीर के एक सुरक्षा अधिकारी के मुताबिक इनमें से बहुत सारी हत्याएं ‘हाईब्रिड आतंकवादियों’ द्वारा अंजाम दी गईं- स्थानीय निवासियों की एक नई श्रेणी जिन्हें आतंकवादी गुर्गे ऑनलाइन के जरिए से कट्टरपंथी बनाते हैं और फिर उन्हें कुछ जिम्मेदारियों पर लगा देते हैं, जिनके बीच वो अपनी सामान्य जीवन जीते रहते हैं. इनमें बहुत से युवा लोग होते हैं जिनका कोई पहला आपराधिक रिकॉर्ड नहीं होता.
कश्मीर में पुलिस महानिरीक्षक विजय कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘पहले दहशतगर्दों के बीच में एक चेन-ऑफ-कमांड स्ट्रक्चर हुआ करता था. अगर आपने किसी एक को पकड़ लिया, तो आपको पूरे ग्रुप के बारे में जानकारी मिल जाती थी. लेकिन अब पूरा दृश्य बदल गया है. ये हाईब्रिड मॉड्यूल्स अपने हैंडलर्स तक को नहीं जानते. वो सोशल मीडिया के जरिए संचार करते हैं और वर्चुएल नंबरों समेत वीपीएन (वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क्स) का इस्तेमाल करते हैं. उन्हें ट्रेनिंग देने की भी जरूरत नहीं होती- उन्हें बस मारने के लिए गोली चलानी होती है’.
पुलिस आंकड़ों से पता चलता है कि अक्तूबर के बाद से 27 हत्याओं में, कम से कम 11 को हाईब्रिड आतंकवादियों ने अंजाम दिया था. सिर्फ इस साल में सुरक्षा अधिकारियों ने ‘हाईब्रिड आतंकवादियों’ और मुठभेड़ में मारे जाने वालों से 145 पिस्टल बरामद किए हैं लेकिन बहुत सारे और हथियार अभी भी चलन में बताए जाते हैं.
पार्ट-टाइम आतंकियों की इस नई नस्ल के निशाने पर केवल कश्मीरी पंडित ही नहीं हैं.
‘उसे एक ऐसे लड़के ने मारा जो हमारे सामने पलकर बड़ा हुआ था’
कश्मीर में गोलियों के निशाने पर हिंदुओं के मुकाबले मुसलमान कहीं ज्यादा रहे हैं हालांकि उनकी कहानियां अकसर ज्यादा खबरों में नहीं आतीं.
दिप्रिंट ने श्रीनगर के खोनमोह इलाके का दौरा किया जहां के चुने हुए मुसलमान सरपंच समीर भट्ट की 9 मार्च को हत्या कर दी गई थी.
समीर भट के परिजनों का कहना है कि उनकी हत्या पड़ोस के ही एक जान पहचान के युवक ने की थी- एक लड़का जो बिजली कनेक्शन जैसे मामलों में अकसर सरपंच से सलाह लिया करता था.
समीर भट के बड़े भाई एजाज कहते हैं, ‘मेरा भाई हमेशा लोगों की मदद करता था. अपने आखिरी दिन तक उसकी मंशा बिजली के लिए उस लड़के की मदद करने की थी…वही लड़का जिसने उसकी जान ली’. लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े दि रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) ने हत्या की जिम्मेदारी ली थी. अपनी हत्या के समय समीर भट एक होटल से बाहर निकले हुए थे, जहां कश्मीर के दूसरे पंचायत सदस्यों की तरह उसे भी सुरक्षा में रखा गया था.
नाम न बताने की शर्त पर समीर के एक दोस्त ने कहा, ‘वो पूरे कश्मीर में सबसे साफ बोलने वाला और सबसे योग्य सरपंच था. उसे सरपंचों के उस प्रतिनिधि मंडल के लिए चुना गया था, जो धारा 370 रद्द किए जाने के बाद सितंबर 2019 में गृह मंत्री अमित शाह से मुलाक़ात करने गया था’.
भट के परिवार के सदस्य और पड़ोसी अभी भी हमले से उबर नहीं पाए हैं. दिप्रिंट से बात करने वाला उसका दोस्त साफ तौर पर घबराया हुआ लग रहा था और उसकी निगाहें चारों ओर घूम रहीं थी जैसे वो किसी घात लगाए जाने की अपेक्षा कर रहा हो.
उसका कहना था, ‘इसके बाद अगर मैं कहूं कि मैं डरा हुआ नहीं हूं, तो वो झूठ बोलना होगा. मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों के लिए हालात उससे भी खराब हैं जैसे 1990 के दशक में थे. उस समय हमें पता होता था कि कौन दहशतगर्दों की जमात में शामिल हो गया है लेकिन अब हमें पता नहीं चलता. समीर की हत्या एक ऐसे लड़के ने की जो हमारे सामने पलकर बड़ा हुआ था’.
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प्रवासियों को भूख और गोलियों के बीच चुनाव करना है
‘बाहरियों का स्वागत नहीं है’. सुरक्षा प्रतिष्ठान के सूत्रों का कहना है कि ये वो संदेश है जो दहशतगर्द प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाते समय देना चाहते हैं, और इसमें धर्म कहीं आड़े नहीं आता.
इसी महीने, बिहार के एक 17 वर्षीय प्रवासी मजदूर खुशदिल की दहशतगर्दों ने बडगाम में हत्या कर दी. उसी दिन कुलगाम में राजस्थान के एक बैंक मैनेजर विजय कुमार को भी मार डाला गया.
जम्मू एंड कश्मीर श्रम विभाग के अनुसार, कश्मीर में हर साल दूसरे सूबों से करीब 140,000 प्रवासी मजदूर आते हैं. हालांकि, दूसरे सरकारी अनुमानों में कथित रूप से ये संख्या करीब चार लाख बताई जाती है.
लेकिन फिर भी, बहुत से ‘बाहरियों’ के लिए कश्मीर उनका घर बन गया है.
कुछ प्रवासी सर्दियां शुरू होने पर घर वापस चले जाते हैं लेकिन कुछ यहीं बने रहते हैं, जैसे कि पश्चिम बंगाल के मालदा से आया 34 वर्षीय रफीक जो पिछले 15 साल से शोपियां में काम कर रहे हैं.
उसका कहना है, ‘हम पिछले कुछ सालों से गैर-स्थानीय लोगों के खिलाफ ये हिंसा देख रहे हैं. हमें अपनी जान का डर रहता है लेकिन यहां काम करने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है. यहां तो अपने वतन में हमारे परिवार भूखे मर जाएंगे या कश्मीर में हम गोलियों से मारे जाएंगे’.
रफीक राज मिस्त्री के काम में महारत रखते हैं और अपनी तकरीबन पूरी कमाई वापस घर भेज देता है क्योंकि उनका मैनेजर जो एक कश्मीरी मुस्लिम है, घाटी में उसके रहने और खाने का ख्याल रखते हैं. 36 वर्षीय मोमिन जो रफीक के साथ काम करते हैं और प्रवासी ही है, वो भी इसी वजह से वहां रहते हैं.
मोमिन कहते हैं, ‘हम महीने में 15,000-20,000 रुपए कमा लेते हैं और तकरीबन पूरी कमाई घर भेज देते हैं. ये उससे कहीं अधिक है जो हम देश के किसी भी दूसरे हिस्से में कमा सकते थे. इसके अलावा कश्मीरियों का बर्ताव भी हमारे साथ बहुत अच्छा है’.
‘लेकिन अब दिन-ब-दिन मुश्किल होती जा रही है, क्योंकि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं रह गया है. आज हम जिंदा हैं, कल हमारी हत्या हो सकती है’.
दूध की जगह पानी, तंग कमरे, कोई आजादी नहीं
जम्मू-कश्मीर राजमार्ग पर 2010 में स्थापित किए जाने के बाद से, वेसू ट्रांज़िट कैंप सैकड़ों कश्मीरी पंडितों का घर रहा है जिनमें अधिकतर सरकारी कर्मचारी और उनके परिवार हैं.
पहली नजर में देखने पर कैंप बहुत आकर्षक लगता है, जिसमें पक्के रास्ते बने हैं और ढलान वाली छतों के छोटे छोटे घर हैं लेकिन ये बस पूर्वनिर्मित केबिन्स हैं जो एजबेस्टस शीट्स से बनाए गए हैं.
छोटे से घरों के अंदर दीवारों को भड़कीले रंगों से पोता गया है- गुलाबी, हरे और नारंगी- लेकिन जो जगह दी गई है वो बिल्कुल भी काफी नहीं है. या तो एक या कई परिवारों के कम से कम छह सात लोग एक ही केबिन में ठूंस दिए जाते हैं, जो आमतौर पर एक मामूली 1 बीएचके के बराबर होता है- करीब 300 वर्गफीट.
एकांतता की कमी उनकी सबसे छोटी समस्या है. बहुत से परिवारों में बीमार बच्चे, बुजुर्ग मां-बाप या दादा-दादी हैं, लेकिन भोजन और दवाओं की सप्लाई पर्याप्त नहीं है. ये परिवार एक दयनीय जीवन जीते आ रहे हैं. पिछले साल सरकार ने इनसे बड़े दो मंजिला आवास बनवाए थे लेकिन अभी तक केवल 20 परिवारों को वहां आवंटन किया गया है. ज्यादातर इकाइयों को सीआरपीएफ ने ले लिया है.
यहां पर चीजों की किल्लत परेशान करने वाली है लेकिन आजादी के साथ आने जाने की कमी उससे ज्यादा तकलीफदेह है.
1 जून को, जब पांच साल की हियाश्वी को तेज बुखार था तो उसके पिता संदीप कौल को उसे डॉक्टर के पास ले जाने के लिए, वेसू कैंप के सीआरपीएफ कर्मियों से मिन्नतें और लड़ाई करनी पड़ी क्योंकि वो बेकाबू होकर रोए जा रही थी. उनका कहना था कि उनकी पत्नी गर्म दूध देकर उसे बहलाना चाहती थी लेकिन वो सिर्फ गर्म पानी का बंदोबस्त कर सकी.
कैंप किसी जेल की तरह है लेकिन इसकी चारदीवारी से बाहर निकलकर वो खुद को असहाय और खतरे में महसूस करते हैं. उस दिन जब वो अपनी बेटी को किसी तरह एक क्लीनिक ले जाने में कामयाब हो पाए और उसके बाद पैसा निकालने के लिए पास के एक एटीएम पर गए तो उन्हें आशंका थी कि वो गोलियों का निशाना बन जाएंगे.
दूसरे बहुत से पंडितों की भावनाओं को व्यक्त करते हुए वो कहते हैं, ‘यही वो डर है जिसके साथ हम जी रहे हैं. ये सरकार घाटी में कश्मीरी पंडितों को सुरक्षा देने के बारे में डींगें हांकती है जबकि सच्चाई ये है कि वो हमारा संरक्षण करने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं और अब हम यहां से निकलना चाहते हैं’.
82 की उम्र में प्रभा कौल (बदला हुआ नाम) भी अब थक गई हैं. उन्होंने 90 के दशक में कश्मीर छोड़ दिया था और 2010 में अपनी बेटी के साथ यहां वापस आईं. वो कहती हैं कि हाल ही में उनपर दमे का हमला हुआ था लेकिन उनकी बेटी उन्हें अस्पताल तक नहीं ले जा पाई थी.
‘अगर मैं यहां मर भी जाती हूं तो मुझे अब परवाह नहीं है, ये मेरी जमीन है लेकिन मैं बस सरकार से ये गुजारिश करना चाहती हूं कि अगर वो हमें यहां सुरक्षा नहीं दे सकती तो कम से कम हमारे बच्चों को घाटी छोड़कर जानें दें.’ ये कहते कहते वो रो पड़ती हैं.
फिर भी कुछ पंडित ऐसे हैं जो घाटी में ही बने रहना चाहते हैं- ये वो लोग हैं जो कभी यहां से गए ही नहीं.
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‘यहां से जाना कोई विकल्प नहीं’
समुदाय के अधिकारों की पैरवी करने वाली एक इकाई- कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, कम से कम 808 कश्मीरी पंडित परिवार 1990-1991 के पलायन के दौरान घाटी से नहीं गए थे. उन्हीं में से एक जीएन लाल का परिवार है जो श्रीनगर के बल्हामा जिले में रहता है.
63 वर्षीय लाल का कहना है कि पिछले 33 सालों में उनके परिवार ने ‘बहुत तकलीफें सही हैं’ लेकिन यहां से जाना ‘कोई विकल्प नहीं है’. वो बताते हैं कि उनके सभी दोस्त और हितैषी यहीं पर रहते हैं.
लाल कहते हैं, ‘हमारे सभी के साथ अच्छे रिश्ते हैं और अगर हम यहां से चले जाते हैं तो हम इन सब को खो देंगे. बेशक यहां डर का माहौल है लेकिन मैं समझता हूं कि वो सब के लिए है यहां तक कि मुस्लिम परिवारों के लिए भी है. बल्कि उन्हें तो दहशतगर्दों और सुरक्षा बलों दोनों पक्षों के गुस्से का शिकार होना पड़ता है’.
उनका मानना है कि धारा 370 हटाए जाने के बाद से कश्मीर में सुरक्षा की स्थिति और बिगड़ गई है जिसमें पंडित और मुसलमान दोनों पीड़ा झेल रहे हैं.
वो कहते हैं, ‘हर कश्मीरी पर दहशतगर्द का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता. हम यहां मुसलमानों से घिरे हुए हैं लेकिन यहां जब भी हत्याएं शुरू हुईं, वो चट्टान की तरह हमारे साथ खड़े रहे हैं. हां, उग्रवादी मौजूद हैं लेकिन हमें उग्रवादियों और आम लोगों में फर्क करना होगा, जिन्हें शांति के अलावा और कुछ नहीं चाहिए’.
लाल का मानना है कि निशाना दहशतगर्दी होनी चाहिए न कि मुसलमान. वो कहते हैं, ‘कश्मीर के बाहर भी बहुत से हिंदू मजहब के लिए मुसलमानों की हत्या कर रहे हैं, लेकिन उसका ये मतलब नहीं है कि पूरे मजहब को बदनाम कर दिया जाए. इसी तरह, अगर कश्मीर में उग्रवाद है तो उसके लिए हर मुसलमान को निशाना नहीं बनाया जा सकता. इससे कश्मीरी हताश हो जाएंगे, उनके पास कोई विकल्प नहीं बचेगा और उग्रवादियों को फायदा पहुंचेगा- घाटी में इस समय हम यही देख रहे हैं’.
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खीर भवानी मेले में इलाज का थोड़ा सा अहसास
गंदरबल के राज्ञा देवी मंदिर में कड़ी सुरक्षा भी भीड़ के उत्साह को ठंडा नहीं कर सकती, जहां दो वर्षों के अंतराल के बाद माता खीर भवानी का रंगारंग समारोह शुरू हो रहा है.
कश्मीरी पंडितों के लिए ये समारोह धार्मिक कैलेण्डर का शायद सबसे प्रत्याशित समारोह है, लेकिन ये एक और कारण से भी महत्वपूर्ण है- ये हिंदू और मुसलमान सब को एक जगह ले आता है.
68 वर्षीय मोहम्मद सुल्तान दार कहते हैं, ‘मैं इस उम्मीद के साथ मेले में आया था कि अपने पुराने पंडित दोस्त से मुलाक़ात हो जाएगी, जो पलायन के दौरान घाटी छोड़ गया था. वे मेरा पड़ोसी था और उसे रोकने के लिए मैं कुछ नहीं कर सका. अब मैं बस उससे मिलना चाहता हूं, और उसे अपने घर ले जाना चाहता हूं’.
लेकिन, खीर भवानी के प्रबंधन का कहना है कि इस साल मेले में पहले से काफी कम भीड़ है. पिछले सालों में जहां 30,000 से 40,000 लोग मेले में शरीक होते थे, इस साल सिर्फ 2,500 के क़रीब लोग देखे गए हैं.
श्रीनगर के एक 37 वर्षीय कश्मीरी पंडित रमन कौल कहते हैं, ‘इस साल डर और आघात का अहसास इतना ज़्यादा है, कि घाटी के केवल वही पंडित यहां उत्सव में आए हैं, जो घाटी से कभी गए ही नहीं थे. जो लोग यहां से प्रवास कर गए थे या जो पुनर्वासित किए गए हैं, वे इस साल नज़र नहीं आए हैं. भीड़ में ज़्यादातर देश भर से आए हिंदू पर्यटक और घाटी के मुसलमान हैं’.
फिर भी, पुरानी मिलनसारी अभी भी बरक़रार है. एक 31 वर्षीय कश्मीरी पंडित विवेक कौल कहते हैं, ‘यहां पर हिंदुओं से ज़्यादा संख्या मुसलमानों की है. हर साल वो यहां की सभी तैयारियां और सजावट तक करते हैं. वो अपनी भरसक कोशिश करते हैं कि हमें यहां गर्मजोशी और सुरक्षा का अहसास रहे’.
ये उत्सव अकेला धार्मिक ग्राउंड नहीं है जहां समुदायों के बीच निकटता- मशहूर कश्मीरियत- का मुजाहिरा होता है.
मसलन, पिछले हफ्ते एक मुस्लिम मौलवी मौलाना फयाज अमजदी ने अनंतनाग में अपनी सभा में लोगों से कहा कि इस्लाम जिहाद के नाम पर लोगों को मारने की इजाजत नहीं देता. उन्होंने ये भी कहा कि दूसरी बिरादरियों के अपने भाईयों के लिए मुसलमान अपनी खुद की जमीनें छोड़ने को तैयार हैं. स्थानीय लोगों की इस सभा में उनके भाषण को बड़े उत्साह के साथ लिया गया.
घाटी के दूषित वातावरण में इस तरह के बयान हवा के एक ताजा झोंके की तरह आते हैं, भले ही उनका असर सिर्फ एक लमहे के लिए हो.
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