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Saturday, 4 May, 2024
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बेड़ियों और यातनाओं में गुज़रता बचपन जिससे नहीं मूंदी जा सकती हैं आंखें

इन तमाम बच्चों से बातचीत से पता चला कि ये सिर्फ संख्या नहीं हैं. हर मासूम के मजदूर बनने के पीछे एक अलग कहानी है, अलग-अलग लाचारियां हैं, अपना-अपना दर्द है.

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“प्रत्येक बच्चे का एक नाम है, चेहरा है और वे कुछ जन्मसिद्ध अधिकारों के साथ पैदा हुआ है.”— नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी

बाल मज़दूरी—ये दो शब्द एक साथ कहां मेल खाते हैं? फिर भी यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे हम आंख नहीं मूंद सकते. बाल मजदूर एक समाज के रूप में हमारी सामूहिक विफलता तो उद्गाटित करते ही हैं, हमारी संवेदना और नैतिक मूल्यों पर भी तमाम सवाल खड़े करते हैं. हम सिर्फ नंबरों की बात करते हैं, लेकिन हमेशा भूल जाते हैं कि हर बाल मजदूर का एक नाम है, उसका चेहरा है और हज़ारों सपनों के गरीबी और शोषण तले दब कर चूर-चूर हो जाने की एक त्रासद कहानी है.

संख्या तो बस नंबरों का खेल है, लेकिन जब हमने इन तमाम बच्चों से बात की तो पाया कि ये सिर्फ संख्या नहीं हैं. हर मासूम के मजदूर बनने के पीछे एक अलग कहानी है, अलग-अलग लाचारियां हैं, अपना-अपना दर्द है.

भाई ने बेचा, अजनबी ने छुड़ाया

नल्ली सिर्फ 11 साल का ही था जब दुनिया उसके लिए अजनबी हो गई. पिता की मृत्यु हो गई और घर में बचा सिर्फ एक बड़ा भाई. नल्ली प्यार और सहारे के लिए अपने बड़े भाई की तरफ देख रहा था, लेकिन उसके दिमाग में कुछ और खिचड़ी पक रही थी. तीन साल बाद उसने अपना 70, 000 रुपए का कर्ज चुकाने के लिए भोले और मासूम नल्ली को बंधुआ मजदूरी के दलदल में धकेल दिया.

नल्ली के सपनों में अभी दुनियादारी नहीं है, उसके सपने भी बच्चों जैसे मासूम हैं. उसे महंगी कार और बड़ा घर नहीं चाहिए. उसका सपना है कि बस इतना कमा ले कि ठीक से खा सके और चैन की नींद सो सके.

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नल्ली के सपनों को पुनर्जीवन दिया नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी द्वारा स्थापित संगठन बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) ने. नल्ली के बचपन को आज़ाद कराने के लिए बीबीए के सदस्य चेन्नई से 300 किलोमीटर का सफर करके एदुमलाई गांव पहुंचे और उसे बंधुआ मजदूरी के दलदल से निकाला. नल्ली ने उसको बेचने वाले बड़े भाई के साथ जाने से इनकार कर दिया. उसे बाल आश्रय गृह भेजा गया जहां उसने पढ़ाई शुरू की.

नल्ली ने इस साल 52% अंकों के साथ दसवी बोर्ड की परीक्षा पास कर अपने सपनों को पूरा करने की ओर एक छोटा सा कदम बढ़ाया. उसका कहना है, “मैं यह सोच कर थर्राता हूं कि अगर मुझे बचाया नहीं गया होता तो मेरा क्या होता. यह मेरे जीवन का दूसरा अध्याय है और जिसने भी इसे लिखने में मेरी मदद का उन सभी का कोटि-कोटि धन्यवाद.”


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बेड़ियां और यातना: 15 साल के बच्चे का जीवन

रवि (बदला हुआ नाम) अपने चार भाई-बहनों में सबसे बड़ा था. पिता की कमाई इतनी नहीं थी कि वे सबका पेट भर सकें तो इन हालात में उन्होंने भी वही किया जो मजबूर मां-बाप करते हैं. उन्होंने पांच हज़ार रुपए महीने के बदले रवि को एक ढाबा मालिक के हवाले कर दिया.

दो महीने पहले ढाबा मालिक रवि को अपने गृहनगर समस्तीपुर से पटना के कुरथोल बाज़ार ले आया. वे रवि को सिर्फ खटा कर ही संतुष्ट नहीं था. कहीं इधर-उधर न जाए, इसके लिए उसने रवि के पांवों में बेड़ियां भी डाल रखी थीं.

दो महीने तक सैकड़ों लोगों ने बेड़ियों में जकड़े इस बच्चे को ढाबे पर खटते देखा पर किसी की अंतरात्मा नहीं जगी. किसी ने कोई शिकायत, कार्रवाई या पूछताछ करने की ज़हमत नहीं उठाई. क्या इससे साबित नहीं होता कि हम कितना निर्मम समाज बना चुके हैं.

आखिरकार बचपन आंदोलन को इसकी जानकारी मिली और उन्होंने रवि को छुड़ा लिया.

नन्हें कंधों पर इतना बोझ

महज़ 16 वर्ष के प्रशांत (बदला हुआ नाम) पिता की मृत्यु के समय सिर्फ सात साल के थे. पांच बहनें और दो भाइयों को अब सात साल के प्रशांत से सहारे की उम्मीद थी और उन्होंने अपने नन्हें कंधों पर यह जिम्मेदारी उठा भी ली. परिवार का मिट्टी के बर्तन और मूर्तियां बनाने का काम था. घड़े बनाने का काम गर्मियां खत्म होते ही बंद हो जाता था.

लिहाज़ा इस उम्मीद में वे काम की तलाश में दिल्ली आए कि कमा लेंगे और कुछ पैसे घर भी भेज देंगे, लेकिन आधे पेट रह कर 12 से 15 घंटे काम करने के बावजूद ज़रूरतें अधूरी ही रहतीं.

जब बचपन बचाओ आंदोलन की टीम और प्रशासनिक अमले ने 31 मई, 2023 को दिल्ली की गीता कालोनी की उस दुकान से प्रशांत को तो उसने बस इतना ही कहा, “मैं भी अपने घर रहना चाहता था, मैं भी पढ़ना चाहता था, लेकिन मेरे सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ था. मुझे कर्ज चुकाना है और अपनी बहनों की शादी करनी है.”


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भूखे पेट दूसरों को खिलाना

यहां पेट नहीं भरेगा, कहीं और चलते हैं. इसी उम्मीद में गरीबी से त्रस्त बंटी (बदला हुआ नाम) के माता-पिता और चारों भाई बिहार के समस्तीपुर जिले के गांव धोबगामा से दिल्ली आए, लेकिन जैसा कि लाखों परिवारों के साथ हुआ है, महानगरों में वे गरीबी के दलदल और गहरे धंसने लग गए. इस गरीब और कर्जदार परिवार में खाने वाले कई थे और कमाने वाले एकाध. ऊपर से बंटी की बीमार मां को बचाने के लिए इलाज की तुरंत ज़रूरत थी. इलाज हुआ नहीं और मां चल बसीं.

घर वालों का पेट भरने और कर्ज चुकाने के लिए बंटी एक ढाबे में काम करने लगा. सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक काम करने पर उसे सिर्फ दस रुपए मिलते थे. खाने में सिर्फ बचा-खुचा दिया जाता था. बंटी ने लगभग 6 महीने तक वहां काम किया.

बचपन बचाओ आंदोलन की टीम ने बंटी को आज़ाद कराने के बाद उससे पूछा कि तुम जीवन में क्या करना चाहते हो? उसने कहा, “मैं एक बार पूरी दिल्ली देखना चाहता हूं, लेकिन अभी नही. पहले मैं पढ़ना चाहता हूं और परिवार का कर्ज चुकाना चाहता हूं.”

(लेखक इंडिया फॉर चिल्ड्रेन के डायरेक्टर और मीडिया रणनीतिकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @aanilpandey है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)


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