नई दिल्ली: ‘इस व्यवसाय में होना अंधेरे में हाथ-पैर मारने जैसा है’. उत्तर प्रदेश के एक पोल्ट्री किसान ने फोन पर हुई लंबी बातचीत को समेटते हुए कहा. उनके शब्दों में, इस इंडस्ट्री से जुड़े अन्य हजारों लोगों की तरह उनका बिजनेस भी धीमी मौत मर रहा है. किसान अपनी पहचान नहीं बताना चाहता था. उन्होंने कहा, ‘फिलहाल तो मैं इस कारोबार को छोड़ने पर विचार कर रहा हूं.’
कारण? फीड की बढ़ती लागत, फार्म-गेट की कीमतों में बेतहाशा उतार-चढ़ाव (किसानों को सीधे बड़े खरीदारों से प्राप्त मूल्य) और तीज-त्यौहारों के मौसम में घटती मांग व कानून अपने हाथ में लेने वाले कुछ लोगों की जबरदस्ती दुकान बंद करवाने जैसे कुछ झटके.
उदाहरण के तौर पर अंडे के थोक मूल्य ग्राफ को लें. 1 मई को उत्तर भारत के एक प्रमुख उत्पादन केंद्र, बरवाला, हरियाणा में कीमतें 2.87 रुपये प्रति पीस पर थीं. 30 जून तक, कीमतें बढ़कर 5.17 रुपये हो गईं- लगभग 80 फीसदी की छलांग. 24 जुलाई को कीमतें फिर से गिरकर 3.30 रुपये के निचले स्तर पर आ गईं– 36 प्रतिशत की भारी गिरावट.
एक अंडे का उत्पादन करने में एक किसान को लगभग 4.50 रुपये का खर्च आता है. जबकि फार्म-गेट की कीमतों में रोलर कोस्टर की तरह बदलाव के कारण मुर्गी पालन कारोबार से जुड़े लोगों का घाटा बढ़ता जा रहा है. उत्पादक कीमतों में उतार-चढ़ाव मांग के घटने-बढ़ने के कारण होती है जो आमतौर पर गर्मियों के मौसम में गिर जाती है.
अप्रैल में चैत्र नवरात्रि और अब सावन (मध्य जुलाई से मध्य अगस्त) जैसे धार्मिक आयोजनों के कारण मांग में बड़ी गिरावट आई. पोल्ट्री मालिकों के मुताबिक, उत्तर भारत में आबादी का एक वर्ग इस दौरान मांसाहारी खाने से परहेज करता है तो वहीं कुछ राज्यों में अंडे बेचने वाले छोटे खुदरा विक्रेताओं और ठेलों को जबरन बंद करवा देने से मांग में कमी आई.
एक ने कहा, समस्या यह है कि कीमतों में चाहे कितनी भी गिरावट आ जाए. लेकिन एक मुर्गी को अंडे देने से तो नहीं रोका जा सकता. वह बताते हैं ‘ऐसा कोई स्विच नहीं है जिसे हम जब चाहे चालू कर दें और बंद कर सके. हमे फीड, एनर्जी और लेबर कोस्ट पर तो खर्च करना ही पड़ता है. यही वजह है कि हम भारी नुकसान पर अपना उत्पाद बेचने के लिए मजबूर हैं.’
ऊपर उद्धृत उत्तर प्रदेश के पोल्ट्री फार्मर 15,000 क्षमता वाला मुर्गी फार्म चलाते हैं. उन्होंने जुलाई-अगस्त में लगभग 3.5 लाख रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया है.
ऐसा सिर्फ अंडे के साथ नहीं है. चिकन की कीमतों में भी समान रूप से उथल-पुथल वाली स्थिति बनी हुई है. दिल्ली में, ब्रायलर चिकन की दरें 1 जुलाई को जिंदा मुर्गी के 119 रुपये प्रति किलोग्राम से गिरकर 23 जुलाई को 76 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई. यानी 36 फीसदी की गिरावट. इसकी कीमतों की तुलना पोल्ट्री उत्पादक के 90-95 रुपये प्रति किलोग्राम की लागत से की जाती है.
स्थिति की गंभीरता का अंदाजा फार्म को चलाने के लिए जरूरी निवेश के स्तर से लगाया जा सकता है. 15,000 बर्ड लेयर (अंडे) के फार्म में लगभग 700 रुपये प्रति मुर्गी या कुल 1 करोड़ रुपये से ज्यादा के पूंजी निवेश की जरूरत होती है. यह लगभग 20 सप्ताह तक के लिए है जब तक कि मुर्गी अंडे देना शुरू करती है. इसके बाद किसानों को चारा और रखरखाव का खर्च उठाना पड़ता है.
पिछले एक साल में मक्का और सोयाबीन (डी-ऑयल केक) की कीमतों के रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचने के साथ फीड की लागत आसमान छू गई है. मौजूदा समय में फीड की लागत साल-दर-साल 25 प्रतिशत बढ़ रही है.
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आर्थिक नुकसान, बंद होते पोल्ट्री फार्म और कॉन्ट्रैक्ट
हरियाणा के करनाल के एक पोल्ट्री मालिक युद्धवीर अहलावत ने बताया, ‘2020 में महामारी की चपेट में आने और उसके बाद होने वाले लॉकडाउन के बाद, पोल्ट्री व्यवसाय अफवाहें (चिकन और अंडे को कोरोनावायरस से जोड़ना) और एक बर्ड फ्लू प्रकरण सहित बहुत मुश्किल दौर से गुजरा है. कई किसान तो आर्थिक संकट से उबर ही नहीं पाए और उन्हें अपने मुर्गी फार्म बंद करने पड़े.’
अहलावत ने कहा कि छोटे उत्पादक जो बार-बार कीमतों में उतार-चढ़ाव को झेल पाने में असमर्थ हैं, उन्होंने बड़े सप्लायर्स के साथ कॉन्ट्रैक्ट पर फार्म चलाना शुरू कर दिया है. उन्होंने बताया, ‘इससे छोटे मुर्गी पालक महज मजदूर बन कर रह गए हैं और उनकी आमदनी भी काफी कम हो गई है.’
आईबी ग्रुप, सुगुना फूड और स्काईलार्क जैसे कई राज्यों में मौजूदगी वाले बड़े पोल्ट्री इनपुट सप्लायर्स छोटे कारोबारियों को चूजों और फीड- इनपुट जो वे वर्किंग कैपिटल की कमी के कारण खरीद नहीं सकते हैं- की पेशकश कर रहे हैं. बदले में किसानों को वो प्रत्येक किलो चिकन के लिए 7 से 8 रुपये का भुगतान करते हैं.
भिवानी, हरियाणा के सतेंद्र कुमार ऐसे ही एक कॉन्ट्रैक्ट उत्पादक के तौर पर काम कर रहे हैं. वह ब्रायलर मुर्गियां पालते हैं. कुमार, जो कभी सालाना 6 से 7 लाख रुपये कमाते थे, पूंजी निवेश में 13 लाख रुपये का नुकसान झेलने के बाद अब लगभग 30,000 रुपये प्रति माह कमा रहे हैं.
कुमार ने कहा, ‘छोटे मुर्गी पालक अब इस बिजनेस में बने नहीं रह सकते हैं. जोखिम बहुत ज्यादा है- कीमतों में उतार-चढ़ाव, बढ़ती फीड लागत, बीमारी का प्रकोप और यहां तक कि प्रतिकूल मौसम, जैसे इस साल अप्रैल-मई में हीटवेव के कारण फार्म पर मुर्गियों की मृत्यु दर काफी बढ़ गई थी.’
हरियाणा के एक अन्य मुर्गी पालन कारोबार से जुड़े रविकांत ने कहा कि इंडस्ट्री पिछले तीन सालों से नीचे की ओर जा रही है. वह बताते हैं, ‘इस उद्योग में, बड़े खिलाड़ी और इनपुट सप्यालर दैनिक थोक दरों में हेरफेर करते हैं. वे सस्ते में अंडे खरीदते हैं, महीनों के लिए उन्हें कोल्ड स्टोर में स्टॉक करते हैं, मांग बढ़ने पर उन्हें बेचते हैं और भारी मुनाफा कमाते हैं. इस मार्केट में एक छोटे मुर्गी फार्म के किसान के पास बचे रहने का कोई रास्ता नहीं है.’
यह देखा जाना बाकी है कि यह लगातार और धीरे चलने वाला परिवर्तन- छोटे मुर्गी पालकों से लेकर उद्योग को संभालने वाले बड़े व्यवसायों तक- भविष्य में उपभोक्ता कीमतों को कैसे प्रभावित करता है. फिलहाल तो थोक कीमतों में गिरावट के बावजूद उपभोक्ता को एक अंडे के लिए 7 से 10 रुपये का भुगतान करना पड़ रहा है, जो कि फार्म-गेट की कीमत के दोगुने से भी ज्यादा है.
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