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Sunday, 5 May, 2024
होमदेश​वाह री छत्तीसगढ़ सरकार: खनन राजस्व से भरा भंडार, लहलहाते खेत हो गए बंजर गांव वाले हुए बीमार

​वाह री छत्तीसगढ़ सरकार: खनन राजस्व से भरा भंडार, लहलहाते खेत हो गए बंजर गांव वाले हुए बीमार

सरकार को खनन से सालाना 1200 करोड़ रुपए का राजस्व आता है. सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि इसका इस्तेमाल खनन प्रभावित क्षेत्र के विकास में किया जाये लेकिन ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा.

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रायपुर: डिस्ट्रिक्ट माईनिंग फंड (डीएमएफ) अर्थात ज़िला खनिज विकास निधि के दुरुपयोग की कहानी देशव्यापी है और इसमें छत्तीसगढ़ भी पीछे नही है. पिछली रमन सिंह सरकार में खनन की इस राशि पर मिलने वाली रॉयल्टी पर कलेक्टर का एकाधिकार होता था. अब सूबे की भूपेश बघेल सरकार ने नया कुछ करने के उद्देश्य से ज़िले के प्रभारी मंत्री को इस फंड का प्रभारी बना दिया है यानि पहले एक आदमी इसका दुरुपयोग करता था अब दो लोग मिलकर करेंगे. जल, जंगल, ज़मीन के पैरोकार तो डीएमएफ के स्ट्रक्चर पर ही सवाल खड़ा करते हैं. उनका आरोप है कि खनिज संसाधनों से भरपूर क्षेत्र को हथिया कर वहां के लोगों को विकास का झुनझुना पकड़ा देने का नाम है खनिज विकास निधि.

दरअसल आठ साल पहले बने इस कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि खनिजों के खनन से मिलने वाली रॉयल्टी की राशि को खनन प्रभावित क्षेत्र के विकास में लगाई जाये. मसलन उस क्षेत्र में स्कूल अस्पताल, सड़क, पानी, बिजली, रोज़गार,खेती के लिए पानी के अलावा वे सारी बुनियादी सुविधाएं विकसित होना चाहिए जो एक आम आदमी की ज़रूरत हैं. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.

सरकार के खजाने में आए 1200 करोड़

इसे रायगढ़ ज़िले के घटनाक्रम से समझा जा सकता हैं. अधिकारिक सूत्रों की यदि मानें तो राज्य के एक दो ज़िलों को छोड़ शेष 25 ज़िलों में कोयला, डोलामाईट,आयरनओर,बाक्साईड,टीन,रेती के अलावा अन्य ऐसे कीमती खनिजों का खनन होता है. जिससे रॉयल्टी के रूप में सरकार को सालाना 1200 करोड़ रुपए का राजस्व आता है जो डीएमएफ कहलाता है. रायगढ ज़िले की तमनार कोल माईन्स से पिछले साल 183 करोड़ रुपए की रॉयल्टी कलेक्टर रायगढ़ को मिली लेकिन इसका खर्च कहां हुआ इसे देखा जाये.

वैसे तो कोलमाईन्स के 10 किलोमीटर के एरिया में आने वाले गावों में यह पैसा खर्च होना था लेकिन 50 किलोमीटर दूर रायगढ ज़िला मुख्यालय में इस पैसे से लिफ्ट लगवा ली गई, कैलो नदी के दोनो तटों पर मरीन ड्राईव बना दिया गया, पिछली सरकार की विकास यात्रा के लिए सड़कों का पैच वर्क और हर साल होने वाला चक्रधर समारोह भी इसी पैसे से कर लिया गया! यहां तक कि चुनाव के दरम्यान ज़िला प्रशासन द्व्रारा कराई जाने वाली विडियोग्राफी भी इसे पैसे से कर ली गई. साथ ही 183 करोड़ की वसूली के एवज 200 करोड़ रूपये खर्च करने का प्लान भी बना दिया गया.

खनन के बाद पानी में घुला फ्लोराईड- आधी आबादी हो गई कुबड़ी

इस ज़िले की एक पूर्व विधायक  के गांव में स्कूल की बाउन्ड्री भी इसी पैसे से बन गई जबकि यह गांव इस सीमा में है ही नही.दरअसल जिन कामों में कमीशनखोरी की गुंजाईश रही वह सारे काम हो गए. अब इस खनन क्षेत्र में खनन शुरू होने से शुरू हुई बीमारियों पर नज़र डालें तो और भी गंभीर है. दरअसल यहां जब से कोल की माईनिंग शुरू हुई पानी में फ्लोराईड की मात्रा बढ गई. जिससे इस क्षेत्र के दो सरईटोला और मूढ़ा गांव की पूरी आबादी कुबड़ी हो गई है यानि महिलाओं और पुरुषों के कुबड़ निकल गए हैं. 

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आंगनबाड़ी के बच्चो के दांत काले हो गए हैं. यहां एक वाटर ट्रीटमेन्ट प्लान्ट के अलावा किसानों को सिंचाई के लिए पानी और रोज़गार की दरकार थी लेकिन ऐसा नही हो पाया और न ही हो रहा है. जनचेतना के सदस्य राजेश त्रिपाठी का कहना है कि ‘मनरेगा की तर्ज पर जब तक डीएमएफ का सोशल आडिट सिस्टम लागू नहीं होगा तब तक इसके दुरुपयोग को नही रोका जा सकता. इसके लिए ग्रामसभा से माईक्रोप्लान बनना चाहिए.’

राजधानी रायपुर से महज 70 किलोमीटर की दूरी पर बलौदा बाज़ार ज़िले को सीमेन्ट प्लान्टों का हब इसलिए कहा जाता है कि यहां पर डोलामाईट की खदानें हैं. इस ज़िले में लार्सन एंड टुब्रो ,इमामी,अल्ट्राटेक, जैसी सात सीमेन्ट कम्पनियों की चिमनियों से निकलने वाली राख ने किसानों की हज़ारो एकड़ ज़मीन को बंजर तो बना दिया हैं. लेकिन इन ज़मीनों को उपजाऊ बनाने के लिए कोई उपाय डीएमएफ फंड से नहीं किया गया अलबत्ता इस फंड से नया रायपुर में हरियर छत्तीसगढ़ के नाम से पेड़ लगवा दिए गए. यहां के आसपास के 40 गावों में लोगो के चर्मरोग की शिकायत हैं. यहां के लोगों का कहना है कि शिक्षा और स्वास्थ के लिए जब सरकारी खर्च का प्रावधान है तो डीएमएफ के फंड से नया मानव संसाधन तैयार होना चाहिए. ग्राम पंचायत को इसकी जानकारी नहीं दी जाती.

एमडीएफ के फंड से बीपीओ की बिल्डिंग में लगे फर्नीचर

सबसे अजीबोगरीब मामला तो नक्सल प्रभावित दन्तेवाड़ा ज़िले का है जहां एमडीएफ के फंड से बीपीओ की बिल्डिंग तैयार कर फर्नीचर लगा दिया गया लेकिन उसमे बैठने वाला कोई नहीं है बल्कि इस फंड के दुरुपयोग करने वाले तत्कालीन कलेक्टर ओपी चौधरी को यूपीए की सरकार ने बेस्ट ब्यूरोक्रेट्स का इनाम दिया और केन्द्र में एनडीए की और राज्य में भाजपा की सरकार रहते रहते वे कलेक्टरी छोड़ भाजपा में शामिल हो गए. चुनाव लड़े और हार भी गए लेकिन दन्तेवाडा ज़िले में डीएमएफ फंड से हुए कामकाज अब घोटालों के रूप में सामने आ रहे हैं.

दरअसल इस ज़िले देश की सबसे बड़ी माईनिंग कंपनी एनएमडीसी दन्तेवाडा ज़िले के बचेली और किर्दुल में आयरन ओर का खनन करती है इस लिहाज से सवाधिक रायल्टी यहा दन्तेवाडा ज़िले को मिलती हैं. दरअसल यहा महिला सशक्तीकरण के नाम पर बड़ा खेल खेल दिया गया. महिलाओं के लिए 300 से अधिक इ-रिक्शे खरीदे गये जबकि सड़क पर 30 भी नही हैं. शिक्षा के नाम पर लाइवलीहुड कालेज,आवासीय विद्यालय जैसे उपक्रम तो तैयार हो गए लेकिन उसकी उपयोगिता पर सवाल खड़े हो गए.

कोरबा ज़िले को डीएमएफ से सालाना 300 करोड़ रुपए मिलते हैं लेकिन उसके दुरुपयोग की गाथा भी अलहदा हैं. इस पैसे से 248 करोड़ रुपए का एक एजुकेशन हब खड़ा कर दिया गया हैं जिसमें मल्टी लेवल पार्किंग से आडिटोरियम जैसे इन्फ्रास्च्रक्चर खड़े कर दिए. जबकि सीएसआर से 250 करोड़ से बने इंजीनियरिंग कालेज में 25 बच्चे नही पढ़ पा रहे और अब उसे प्लास्टिक इजीनियरिंग के नाम पर चलाया जा रहा है. अजीबोगरीब तो यह है कि डीएमएफ के पैेसों से तीन सौ करोड़ रुपए के उज्जवला गैस कनेक्शन बाट दिए गए हैं. कोयले पर 15 फीसदी सेस लगता है जिसमें साढ़े सात फीसदी पैसा पर्यावरण पर खर्च करने की बाध्यता है लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है बल्कि कोरबा राज्य का सबसे प्रदूषित ज़िला हैं. लगभग 1200 मीट्रिक टन सालाना कोयला खनन के चलते आसपास के 200 गांव प्रभावित है.

दरअसल इस ज़िले की अधिकांश ज़मीन फारेस्ट की है और इस फारेस्ट से एक ग्रामीण परिवार सालाना 60 से 70 हज़ार रुपए की वनोपज बेचता है लेकिन जैसे ही गांव कोल खनन क्षेत्र में आता हैं आदिवासियों को गांव से बेदखल कर दिया जाता है. लेकिन उनके रोज़ी रोज़गार की कोई व्यवस्था नही रहती. स्वयंसेवी संगठन सार्थक के सचिव लक्ष्मी चौहान का कहना है ‘इस फंड के लिए सरकार स्टेक होल्डर बने. इसका यदि दुरुपयोग नही रुका तो खनन के लिए आबादी तो उजड़ेगी लेकिन समावेशी विकास का सपना चूर चूर हो जाएगा.’

इस सबसे अलग नदी घाटी मोर्चा के संयोजक गौतम बन्दोपाध्याय तो डीएमएफ की अवधारणा पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं.  वे कहते हैं ‘विकास के नाम पर पहले गांव उजड़ते है फिर जल जंगल ज़मीन बिकती है और जब प्रभावित की बारी आती है तो सरकार का पाखंड शुरू हो जाता हैं. इसलिए डीएमएफ जैसी स्कीम से खनन प्रभावित क्षेत्र के लोगों का भला होगा एसा दिखता नही हैं.’ जबकि छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के सयोजंक आलोक शुक्ला को नई सरकार से यह उम्मीद है कि ‘अब प्रभारी मंत्री को इसका प्रभार दिए जाने से कुछ बदलाव आएगा उनका कहना है इससे पहले डीएमएफ कलेक्टरों की पॉकेट मनी हुआ करती थी.’

जिसकी ज़मीन  है, जिसके खनन से राज्य को राजस्व मिल रहा है उन्ही लोगों की कोई नहीं सुन रहा. सरकारें बदल गई पर नीति में साफ नीयत नज़र नहीं आती. अब कलेक्टर की जगह मंत्री के तहत इस फंड का इस्तेमाल होगा – पर क्या बच पायेगा इसका दुरुपयोग?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .)

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