ओरछा, छत्तीसगढ़ः रविवार का दिन है. दोपहर में सूरज की चमक नीचे तक आ रही है और बांस से बने पोर्टाकेबिन वाली कक्षा में बच्चों के फुटबॉल खेलने की आवाजें सुनाई दे रही है. मगर, इन सब के बीच चौदह वर्षीय रिंकू कुमार बाहर से आती किलकारियों और हंसी से बेखबर अपनी बायोलॉजी की पाठ्यपुस्तक को पूरी तल्लीनता के साथ देखते हुए बैठा है, उसके सामने खुले पन्नों पर मानव हृदय का आरेख (डायग्राम) बना हुआ है.
रिंकू छत्तीसगढ़ के बस्तर के कोंगेरा गांव में रहता है, जो एक ऐसी जगह है जहां स्वास्थ्य सेवा की सुविधाएं न के बराबर है. उसका कहना है कि वह ‘एक हरफनमौला डॉक्टर बनना चाहता है, जो सबके लिए सुलभ हो, मानव शरीर को अच्छी तरह से जानता हो, और किसी को भी ठीक कर सकता हो.’
यह विचार उसे सिर्फ सात साल की उम्र में तब आया, जब उसने अपने बड़े भाई और अपने कुछ दोस्तों को एक ऐसी बीमारी से मरते हुए देखा, जिसका स्वास्थ्य सेवा तक खराब पहुंच के कारण पता नहीं चल पाया था. अन्य ग्रामीणों ने इन मौतों को एक ‘अभिशाप’ मान लिए और अपनी जिंदगी में आगे बढ़ गए. लेकिन रिंकू ऐसा नहीं कर सका.
आज, वह नारायणपुर जिले के एक गांव ओरछा में बने एक पोर्टाकेबिन स्कूल में पढ़ने वाले 570 लड़कों (लड़कियों के लिए भी ऐसे अन्य स्कूल हैं) में से एक हैं. भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली राज्य सरकार द्वारा संचालित, ‘ओरछा पोर्टाकेबिन आवासीय विद्यालय’ – जो पोर्टाकेबिन संरचनाओं की एक श्रृंखला को एक साथ मिलाकर बनाया गया है – अबूझमाढ़ के आसपास के दूरदराज के गांवों के बच्चों को जरूरतों को पूरा करता है. यह घने जंगलों वाला एक नक्सल क्षेत्र है, जहां कोई कनेक्टिविटी नहीं है.
साल 2012 में शुरू हुई, पोर्टाकैबिन स्कूल वाली पहल का उद्देश्य राज्य के आदिवासी समुदायों, ज्यादातर गोंड और हलबी, को शिक्षा प्रदान करना है. इन स्कूलों में पढ़ाई के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता है.
वामपंथ प्रेरित उग्रवाद, खराब सड़क संपर्क और अपर्याप्त शिक्षा सुविधाओं जैसी समस्याओं से जूझ रहे इस राज्य में एक से दस तक की कक्षाओं वाले ये आवासीय विद्यालय एक बड़ी राहत के रूप में आते हैं.
नारायणपुर के समाहर्ता (कलेक्टर) अजीत वसंत ने दिप्रिंट को बताया कि इस पहल के पीछे का विचार शिक्षा को सुलभ बनाना है. न केवल उन क्षेत्रों में जहां के स्कूल नक्सली हिंसा में नष्ट हो गए थे, बल्कि राज्य के दूरदराज के इलाकों में रहने वाले आदिवासी बच्चों के लिए भी.
इस जिले में ऐसे दो स्कूल हैं. ओरछा वाला स्कूल साल 2013 में खोला गया था .
वसंत कहते हैं, ‘इससे पहले, स्कूल दूरदराज के स्थानों पर स्थित थे जहां बिजली नहीं थी, कुछ ही शिक्षक थे, और जहां छात्रों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता था. यहां हम उन सभी को एक साथ लाते हैं ताकि उन्हें खाने और कपड़े सहित किसी भी चीज़ की परवाह न करनी पड़े और वे केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित कर सकें.’
ये स्कूल स्टेट काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एससीईआरटी) द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम का पालन करते हैं और स्कूल के सभी कर्मचारियों, शिक्षकों और छात्रावास के वार्डन (संरक्षक) से लेकर रसोइयों और स्वच्छता कर्मचारियों तक की भर्ती राज्य शिक्षा विभाग द्वारा की जाती है.
इन स्कूलों में स्थायी और तदर्थ नियुक्ति वाले दोनों तरह के कर्मचारी हैं, और रिंकू जैसे छात्रों के लिए, वे एक बेहतर जीवन का अवसर प्रदान करते हैं.
रिंकू कहता है, ‘हमारे लोग उन गांवों में रहते हैं जहां कोई डॉक्टर नहीं हैं. इतने सारे लोग बीमार पड़ते हैं लेकिन कोई नहीं जानता कि उन्हें हुआ क्या है. उन्हें बस शेड में डाल दिया जाता है और फिर वे मर जाते हैं. मैं एक डॉक्टर बनना चाहता हूं ताकि मैं अपने लोगों को और लंबा जीवन जीने में मदद कर सकूं. इसलिए बायोलॉजी मेरा पसंदीदा विषय है.’
जोखिम भरी राह
छात्रों को इस स्कूल में लाना भी एक चुनौती भरा काम है. इसके लिए, शिक्षक और स्थानीय स्वयंसेवक ऐसे जोखिम भरे रास्तों पर चलते हैं जिनमें लंबी पैदल यात्रा और नदियों को पार करना शामिल होता है. इस गांव से सुदूर स्थित गांव तक की उनकी यात्रा में कई दिन लग सकते हैं.
और फिर अभिभावकों, जिनमें से अधिकांश किसान हैं, को समझाने का काम होता है.
दिप्रिंट के साथ बात करते हुए ओरछा स्कूल के वार्डन राम किशोर कुर्रम कहते हैं, ‘ये वो स्वयंसेवक हैं जो गोंडी और हल्बी लोगों को जानते हैं. हम गांवों का दौरा करते हैं और अभिभावकों को उनके बच्चों के लिए पोर्टा कैबिन स्कूलों की खूबियों के बारे में बताते हैं.’
वे कहते हैं, ‘हम विभिन्न आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ भी नियमित संपर्क में रहते हैं, जो हमें उन गांवों के बारे में बताते हैं जिनमें स्कूल जाने की उम्र के बच्चे हैं. इसी आधार पर हम उन गांवों का दौरा करने की योजना बनाते हैं. हम अपनी बच्चों की यहां छोड़ने आये अभिभावकों से भी इसका प्रचार करने के लिए कहते हैं.’
हालांकि, इन स्कूलों का शिक्षा का माध्यम हिंदी है, मगर कक्षा 1 से 3 के लिए स्थानीय जनजातियों की भाषा मुरिया में भी पढ़ाई कराई जाती है.
ओरछा वाले स्कूल के एक शिक्षक तमेश वाइके ने दिप्रिंट को बताया, ‘ज्यादातर बच्चों को हिंदी का ज्ञान नहीं है, इसलिए हम कक्षा 1 से 3 तक हिंदी और मुरिया दोनों भाषाओं में कक्षाएं लेते हैं, जब तक कि वे हिंदी के साथ सहज नहीं हो जाते हैं. लेकिन वे बहुत जल्दी हिंदी सीख लेते हैं क्योंकि वे इस भाषा को जानने-समझने वाले बच्चों के साथ रहते हैं. जब तक वे कक्षा 3 में पहुंचते हैं, तब तक वे इसे अच्छी तरह से जान जाते हैं.’
यह स्कूल छात्रों को न केवल उच्च शिक्षा के लिए बल्कि विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने में भी मदद करते हैं.
मिडिल स्कूल के छात्रों को विज्ञान पढ़ाने वाले पंकज वर्मा ने दिप्रिंट को बताया, ‘कक्षा 5 से ही हम बच्चों को विशेष रूप से प्रशिक्षित करते हैं ताकि वे एकलव्य विद्यालय, नवोदय विद्यालय, रामकृष्ण मिशन स्कूल या किसी अन्य उच्च स्तरीय शिक्षा संस्थान में जा सकें. हमारा उद्देश्य उनकी बुनियादी नींव को मजबूत करना है, पढ़ाई में रुचि पैदा करना है और फिर वे बाकी का सारा काम वे अपने आप कर लेते हैं,’
जहां एकलव्य विद्यालयों की शुरुआत 1997-98 में देश के दूर-दराज के इलाकों में आदिवासियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए की गई थी, वहीं जवाहर नवोदय विद्यालय आवासीय विद्यालय हैं जो मुख्य रूप से ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चों को शिक्षा प्रदान करते हैं.
वर्मा बताते हैं कि ये छात्र वंचित वर्ग वाली पृष्ठभूमि से आते हैं और उनमें शिक्षा के प्रति, और साथ ही अपने जीवन में कुछ बनने की भी, भूख होती है.
रिंकू की ही तरह कई अन्य छात्र भी डॉक्टर बनना चाहते हैं और विज्ञान उनका पसंदीदा विषय बना हुआ है. इसलिए, स्कूल वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और अन्य संचार सुविधाओं से लैस एक टेलीविजन के साथ-साथ एक विज्ञान प्रयोगशाला की व्यवस्था करने पर काम कर रहा है.
छात्रों को खेल-कूद में भाग लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है. ओरछा स्कूल के वार्डन कुर्रम कहते हैं, ‘हमारे कई बच्चे खो-खो, कबड्डी, वॉलीबॉल और क्रिकेट में राज्य स्तरीय टूर्नामेंट के लिए चुने भी गए हैं.’
समाज में वापस योगदान देना
कुर्रम बताते हैं कि स्कूली जीवन की लय में आने के लिए बच्चों को कुछ समय लगता है, लेकिन एक बार जब वे ऐसा कर लेते हैं, तो वे अच्छी तरह से व्यवस्थित हो जाते हैं,
उनके दिन की शुरुआत सुबह 4 बजे होती है जब सभी बच्चे ‘पढ़ाई के समय’ के लिए उठते हैं. इसके बाद, वे सुबह 5 बजे कॉमन हॉल, स्कूल के ठीक बीच में बना एक टिन शेड में प्रार्थना के लिए इकट्ठा होते हैं.
कक्षाएं सुबह 9.45 बजे से शुरू होती हैं और दोपहर 3 बजे तक चलती हैं.
कक्षा 10 के छात्र सोहन मंडावी कहते हैं, ‘फिर, दोपहर के भोजन (लंच) और एक घंटे के आराम के बाद, हम खेलने जाते हैं. स्कूल में कई सारी गतिविधियां होती हैं और हम सभी रात 10 बजे तक सो जाते हैं क्योंकि हमें अपने अगले दिन की शुरुआत जल्दी करनी होती है.’
10वीं कक्षा का एक अन्य छात्र साइबो ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखने में व्यस्त है. भाटबेड़ा गांव का रहने वाला यह छात्र, जो कक्षा 3 से इस स्कूल में है, फरवरी 2023 में होने वाली अपनी बोर्ड की परीक्षा के लिए कक्षा के बाद भी पढ़ता है ताकि वह ‘अपनी कक्षा में सबसे अव्वल’ आ सके.
उसके गांव में स्कूल, सड़क या बिजली नहीं है, लेकिन उसने एक शिक्षक के रूप में वहां वापस लौटने का फैसला किया है.
थोड़ा सा शर्माते हुए वह कहता है, ‘मैं खुशकिश्मत हूं कि मैं यहां आ पाया और इसलिए मैं इस अवसर का लाभ उठाना चाहता हूं और एक शिक्षक बनना चाहता हूं, ताकि मैं अपने गांव लौट सकूं और वहां के बच्चों को पढ़ा सकूं. हर कोई इन स्कूलों में नहीं आ सकता है, लेकिन शिक्षक बनने के बाद मैं कक्षाएं लेने के लिए गांव-गांव जा सकता हूं. वही मेरा सपना है.’
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( अनुवाद: रामलाल खन्ना | संपादन: अलमिना खातून)
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