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Saturday, 16 November, 2024
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कोर्ट में सबसे ज्यादा मुकदमे केंद्रीय मंत्रालयों के, पेडिंग हैं 2.85 लाख केस, वित्त मंत्रालय टॉप पर

शीर्ष अदालत को छोड़कर विभिन्न अदालतों में 57 केंद्रीय मंत्रालयों के मामले लंबित हैं. केंद्र सरकार ने पिछले 10 वर्षों में मुकदमेबाजी की वजह से 511.1 करोड़ रुपये खर्च किए हैं.

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नई दिल्ली: दिप्रिंट को मिली जानकारी के मुताबिक कानून और न्याय मंत्रालय ने पिछले सप्ताह एक संसदीय पैनल को सूचित किया है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय श्रम और रेलवे के बाद केंद्रीय मंत्रालयों में सबसे बड़ा वादी है.

31 दिसंबर, 2022 तक जहां वित्त मंत्रालय के 64,270 मामले विभिन्न उच्च न्यायालयों, जिला और सत्र अदालतों में लंबित हैं, वहीं श्रम और रोजगार मंत्रालय के पास 38,757 मामले लंबित हैं, जबकि रेलवे 38,110 मामलों के साथ तीसरे स्थान पर है.

लंबित मामलों की उच्च संख्या वाले अन्य मंत्रालयों में रक्षा 23,046, गृह 20,022, उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण 15,766 और शिक्षा 12,762 शामिल हैं.

कुल मिलाकर, 57 केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों में उच्च न्यायालयों, जिला और सत्र न्यायालयों में 2,85,553 मामले लंबित हैं. पिछले दस वर्षों (2012-2013 से 31 जनवरी, 2023 तक) में, सरकार ने विभिन्न अदालतों और न्यायाधिकरणों में सरकारी अधिवक्ताओं/पैनल काउंसेलों को कानूनी शुल्क के भुगतान के लिए मुकदमेबाजी व्यय के रूप में 511.1 करोड़ रुपये खर्च किए.

ये आंकड़े विधि मंत्रालय के तहत आने वाले कानूनी मामलों के विभाग द्वारा कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति के साथ साझा की गई प्रतिक्रिया का हिस्सा हैं. संसदीय पैनल वित्त वर्ष 2023-24 में होने वाले खर्च के लिए मंत्रालय की अनुदान मांगों की जांच कर रहा था.

कानूनी विशेषज्ञों ने दिप्रिंट को बताया कि मामलों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है क्योंकि इसमें सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित मंत्रालयों के मामले शामिल नहीं हैं. यह सुनिश्चित करने के लिए, सरकार इन सभी मामलों में एक याचिकाकर्ता नहीं हो सकती है, लेकिन कई मामलों में एक प्रतिवादी पक्ष (एक जिसके खिलाफ मामला दर्ज किया गया है) हो सकता है.

लंबित कुल 2.85 लाख मामलों में से 2,27,444 उच्च न्यायालयों में और 58,109 जिला और सत्र अदालतों में हैं. अधिकतम मामले महाराष्ट्र (29,870) में उच्च न्यायालयों/जिला और सत्र न्यायालयों में लंबित हैं, इसके बाद दिल्ली (27,124), उत्तर प्रदेश (26,233), तमिलनाडु (24,490) और पश्चिम बंगाल (23,555) हैं.

Graphic by Soham Sen, ThePrint
ग्राफिकः सोहम सेन । दिप्रिंट

कार्यपालिका और विधायिका के विभिन्न विंग्स के गैर-प्रदर्शन को सरकार के सबसे बड़े वादियों के कारण के रूप में उद्धृत किया गया है, जो विभिन्न अदालतों में लंबित 4 करोड़ से अधिक मामलों में से लगभग 50 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है. मुकदमेबाजी की ज्यादा संख्या को देखते हुए, केंद्र सरकार अपने हिस्से को कम करने के लिए नेशनल लिटिगेशन पॉलिसी के साथ आई है.

हालांकि, परिणाम बहुत आशाजनक नहीं रहे हैं क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों की मुकदमेबाजी को कम करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाने के आरोप लगते रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी “न्यायपालिका पर भार कम करने” का आह्वान किया है, उन्होंने कहा, वह अपना अधिकतम समय उन मामलों की सुनवाई में बिताता है जहां सरकार एक पक्ष है. उनका भी मानना था कि मामले सोच-समझकर दर्ज किए जाने चाहिए.


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न्यायपालिका ने कई बार मुद्दा उठाया

इतनी बड़ी संख्या में लंबित मामले चिंता का कारण हैं. खासकर इसे भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों सहित न्यायपालिका के उच्चतम स्तर के लोगों द्वारा भी सार्वजनिक मंचों पर इसे उजागर किया गया है.

पिछले साल मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एन.वी. रमना ने शिकायत की थी कि अदालती फैसलों पर कोई सरकारी कार्रवाई नहीं होने के कारण अदालतों में अवमानना याचिकाएं बढ़ रही हैं नतीजतन जजों के ऊपर बोझ बढ़ता है. न्यायमूर्ति रमना ने कहा कि जानबूझकर सरकारी विभागों ने अदालती आदेशों पर निष्क्रियता दिखाई जो कि “लोकतंत्र के स्वास्थ्य” के लिए अच्छा नहीं है.

उन्होंने बढ़ते केसलोड के एक मूल कारणों में “नॉन-परफॉर्मिंग एग्जीक्यूटिव्स” को दोषी ठहराते हुए कानूनों में अस्पष्टता और प्रति 10 लाख लोगों पर 20 न्यायाधीशों जितने कम न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात को बढ़ते मामलों के कारणों में से एक के रूप में गिनाया.

बाद में सितंबर 2022 में आईएसबी लीडरशिप समिट को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की आधी समस्याओं का समाधान हो जाएगा अगर वह राज्य प्रायोजित मुकदमों को रोकने का फैसला करती है.

एक अन्य पूर्व सीजेआई टी.एस. ठाकुर ने पद पर रहते हुए भी इस मुद्दे पर अपनी चिंता व्यक्त की. CJI का पद संभालने से पहले, उन्होंने केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की “सबसे बड़ी वादी” होने की आलोचना करते हुए कहा कि इसके खिलाफ बड़ी संख्या में लंबित मामले “सुशासन का अच्छा संकेत नहीं है.” उन्होंने सरकार से “अदालतों में आने वाले मामलों को रोकने के लिए उत्तरदायी” होने का आग्रह किया.

बाद में, CJI के रूप में, जस्टिस ठाकुर ने अफसोस जताते हुए कहा कि जब सरकारी मामलों का लोड अधिक था, तो सरकार का न्यायपालिका पर बोझ को कम करने के लिए न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या को 21,000 से बढ़ाकर 40,000 करने का फैसला पर्याप्त नहीं था.

अपनी सेवानिवृत्ति के बाद भी, उन्होंने सरकार से इस मुद्दे को हल करने और उन मामलों को वस्तुनिष्ठ तरीके से तय करने के लिए कहा, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ा जाना है. पूर्व सीजेआई का विचार था कि चूंकि कोई भी अधिकारी निर्णय लेने के लिए तैयार नहीं है कि किस मामले में अपील की जा सकती है, निचली अदालतों के आदेशों के खिलाफ उच्च न्यायालयों में लापरवाही से याचिका दायर की गई थी. उन्होंने कहा कि अधिकारी कोई भी वस्तुनिष्ठ निर्णय लेने से डरते थे क्योंकि उन्हें डर था कि बाद में उनके फैसलों पर सवाल उठाया जा सकता है.

वरिष्ठ अधिवक्ता अजीत कुमार सिन्हा, जिन्होंने शीर्ष अदालत में कई राज्यों का प्रतिनिधित्व किया है, ने कहा कि मुकदमेबाजी को कम करने के उपायों को शुरू करने के बावजूद, केंद्र और राज्य दोनों इसका उचित उपयोग करने में विफल रहे हैं क्योंकि उनके अधिकारियों में वास्तव में इसके प्रति कार्य करने की इच्छाशक्ति की कमी है.”

उन्होंने कहा कि सरकार कभी भी वास्तविक, नियमित और जानबूझकर दर्ज किए गए मामलों में अंतर नहीं करती है. “प्रत्येक मंत्रालय के पास यह निर्धारित करने के लिए एक समिति होनी चाहिए कि किसी मामले को लड़ने की आवश्यकता है या नहीं. ऐसे मामले होते हैं जिन्हें मामूली जुर्माना लगाकर या अपराध को कम दिखा करके मुकदमेबाजी से पहले ही सुलझा लिया जा सकता है.”

उनके अनुसार, कुल सरकारी मुकदमों के करीब 20 प्रतिशत में देर से की जाने वाली अपीलें शामिल हैं जो समय सीमा से परे दायर की जाती हैं. “इस तरह की अधिकांश अपीलें संबंधित विभाग द्वारा इसे रिकॉर्ड पर रखने के उद्देश्य से दायर की जाती हैं और ये सभी समय सीमा का उल्लंघन करने की वजह से खारिज कर दी जाती हैं.”

सिन्हा ने कहा, एक अन्य उपाय जो समस्या का समाधान कर सकता है, वह उन मामलों का संकलन है जहां शामिल कानून का प्रश्न सामान्य है. “ऐसे कई मामले हैं जो एक ही कानूनी मुद्दे से निपटते हैं. सरकार को इन सभी मामलों को संकलित करना चाहिए और उन्हें शीर्ष अदालत से जोड़ना चाहिए ताकि वे एक सामान्य आदेश के माध्यम से सुलझाए जा सकें.”

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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