नई दिल्ली: पुणे की एक ट्रायल कोर्ट ने 2013 में तर्कवादी डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की गोली मारकर हत्या करने के लिए दो लोगों को दोषी ठहराया, लेकिन कहा कि पुणे पुलिस और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की जांच यह पहचान करने में विफल रही कि हत्या का मास्टरमाइंड कौन था. अदालत ने हत्या के तीन अन्य आरोपियों को भी बरी कर दिया.
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश प्रभाकर पी जाधव ने कहा कि हत्या को दो दोषियों ने अंजाम दिया था, लेकिन उन्होंने कहा कि “अपराध के पीछे मुख्य मास्टरमाइंड कोई और है”.
अदालत ने कहा, “उन्हें (पुणे पुलिस और सीबीआई को) आत्मनिरीक्षण करना होगा कि क्या यह उनकी विफलता है या सत्ता में किसी व्यक्ति के प्रभाव के कारण उनकी ओर से जानबूझकर निष्क्रियता है.”
कोर्ट ने सचिन प्रकाशराव आंदुरे और शरद भाऊसाहेब कालस्कर को उम्रकैद और 5 लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई. उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और 34 (सामान्य इरादा) के साथ-साथ भारतीय शस्त्र अधिनियम के तहत दोषी ठहराया गया था.
हालांकि, अदालत ने सभी पांच आरोपियों – जिनमें डॉ. वीरेंद्रसिंह शरदचंद्र तावड़े, संजीव गजानन पुनालेकर और विक्रम विनय भावे शामिल हैं – को गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967 और आपराधिक साजिश (आईपीसी की धारा 120 बी) के तहत आरोपों से बरी कर दिया.
तर्कवादी संगठन महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (एमएएनएस) के संस्थापक दाभोलकर एक सामाजिक कार्यकर्ता और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने वाले आंदोलनकारी थे. 20 अगस्त 2013 को पुणे के शनिवार पेठ इलाके के पास ओंकारेश्वर पुल पर दो मोटरसाइकिल सवार हमलावरों ने उस वक्त उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी, जब वह सुबह की सैर पर निकले थे.
2014 में सीबीआई को स्थानांतरित होने से पहले प्रारंभिक जांच पुणे अपराध शाखा द्वारा की जा रही थी.
शुक्रवार के फैसले में कहा गया, “(वर्तमान) मामला बहुत गंभीर है और राष्ट्रीय महत्व का है. न केवल डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की गई बल्कि उनकी विचारधारा को खत्म करने का प्रयास किया गया,”
‘हिंदू विरोधी’
निर्णय में अंधश्रद्धा निर्मूलन विधेयक 2005 (जिसे अंधविश्वास विरोधी विधेयक के रूप में भी जाना जाता है) के पीछे दाभोलकर की भूमिका का संदर्भ दिया गया है, जो अगस्त 2013 में उनकी मृत्यु के समय महाराष्ट्र विधानमंडल के समक्ष लंबित था.
फैसले में यह भी कहा गया है कि सनातन संस्था और उसके सहयोगी संगठनों – हिंदू जनजागृति समिति, वारकरी संप्रदाय और अन्य – ने दाभोलकर और एमएएनएस को “हिंदू विरोधी” मानते हुए विधेयक का विरोध किया. अभियोजन पक्ष ने दाभोलकर और सनातन संस्था के बीच इस दुश्मनी को हत्या का मुख्य मकसद बताया.
विधेयक अंततः 24 अगस्त 2013 को एक अध्यादेश के रूप में पारित किया गया.
सीबीआई ने अदालत में दलील दी कि पहले आरोपी डॉ. वीरेंद्रसिंह तावड़े कोल्हापुर में सनातन संस्था के समन्वयक थे और दाभोलकर के साथ उनके व्यक्तिगत मतभेद थे. जून 2016 में गिरफ्तार, तावड़े के खिलाफ प्रारंभिक आरोपपत्र मुख्य रूप से सह-अभियुक्तों के साथ हत्या की साजिश पर केंद्रित था.
सनातन संस्था से जुड़े दो अंतिम हत्या के दोषियों, सचिन अंदुरे और शरद कलास्कर को बाद में – अगस्त में अंदुरे और सितंबर 2018 में कालस्कर को महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते (एटीएस) द्वारा एक अलग मामले में गिरफ्तार किया गया था. बाद में उन्हें फरवरी 2019 में दायर एक पूरक आरोपपत्र में नामित किया गया था.
आगे की जांच में मुंबई स्थित वकील पुनालेकर और उनके सहायक भावे के नाम भी सामने आए. फैसले के अनुसार, सितंबर 2012 में, पुनालेकर ने दाभोलकर को एक पत्र लिखा था, जिसमें गणेश विसर्जन के कारण जल प्रदूषण पर दाभोलकर के विचारों का विरोध किया गया था. सीबीआई ने यह भी पाया कि कालास्कर पुनालेकर के मुंबई कार्यालय का दौरा किया था, जहां भावे भी मौजूद थे. सीबीआई ने आरोप लगाया कि भावे ने घटना से लगभग 15 दिन पहले टोह लेने के लिए अंदुरे और कालस्कर के लिए मोटरसाइकिल की व्यवस्था की थी. पुनालेकर और भावे को मई 2019 में गिरफ्तार किया गया था, और उस साल नवंबर में दायर एक अन्य पूरक आरोप पत्र में उनका नाम लिया गया था.
पुनालेकर पर सबूत नष्ट करने के अपराध के लिए आरोपपत्र दायर किया गया था. यह आरोप लगाया गया था कि जून 2018 में, कालस्कर पुनालेकर के कमरे में गए थे, जब भावे भी मौजूद थे. इसके बाद पुनालेकर ने कथित तौर पर कालस्कर को पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या सहित हत्या के मामलों में इस्तेमाल किए गए फायर आर्म्स को नष्ट करने की सलाह दी. इसके बाद कालस्कर ने कथित तौर पर चार देशी पिस्तौलें एक खाड़ी में फेंक दीं. हत्या का हथियार कभी बरामद नहीं हुआ.
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‘हिंदू संगठनों में थी शत्रुता’
अपने बचाव में, आंदुरे और कालस्कर ने बहाना बनाते हुए कहा कि वे दाभोलकर की हत्या के दिन अपनी बहनों के साथ थे क्योंकि उस दिन रक्षाबंधन था.
कालस्कर ने आगे आतंकवाद निरोधी दस्ते और सीबीआई पर कदाचार का आरोप लगाया. उन्होंने 2006 और 2008 के मालेगांव विस्फोटों का जिक्र करते हुए दावा किया कि एटीएस अधिकारियों ने विस्फोटक रखे और मुसलमानों और हिंदुओं दोनों को अलग-अलग मामलों में झूठा फंसाया. उनकी लिखित दलीलों में वर्ष 2006 से लेकर 2021 में उद्योगपति मुकेश अंबानी के आवास के पास विस्फोटक रखे जाने के मामले तक के मामलों का जिक्र करते हुए एटीएस पर आरोप लगाया गया था. उन्होंने यह भी दावा किया कि जांच के दौरान पुलिस द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया गया था.
पुनालेकर ने एटीएस पर भी ऐसे ही आरोप लगाए. उन्होंने अदालत को बताया कि 2008 से वह ठाणे, मडगांव आदि में दर्ज विस्फोटकों के कई मामलों में आरोपियों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. उन्होंने दावा किया कि एटीएस आरडीएक्स लगा रही थी और निर्दोष लोगों को फंसा रही थी.
हालांकि, कुछ गवाहों की जांच और जिरह के बाद, अदालत ने कहा कि “यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सनातन संस्था, हिंदू जनजागृति समिति और सहयोगी हिंदू संगठन मृतक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के खिलाफ कड़ी दुश्मनी पाल रहे थे.”
बचाव पक्ष ने दाभोलकर की मौत के कारण पर विवाद करने की भी कोशिश की थी, यह दावा करते हुए कि उनके शरीर पर एक महिला के “लंबे बाल” पाए गए थे, लेकिन उस दिशा में कोई जांच नहीं की गई. अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया कि “डॉ नरेंद्र दाभोलकर की मृत्यु के बाद भी, बचाव पक्ष ने उनकी छवि खराब करने के हर अवसर को भुनाने की कोशिश की है”.
अदालत ने बचाव पक्ष के ऐसे अन्य प्रयासों की भी निंदा की. उदाहरण के लिए, इसमें बताया गया कि बचाव पक्ष के वकीलों में से एक ने दाभोलकर की मृत्यु के 5 साल से अधिक समय बाद उनके एमएएनएस द्वारा प्रकाशित एक पत्रिका का हवाला दिया, जिसमें सार्वजनिक रूप से हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करने वाले आंदोलन पर जोर दिया गया था. अदालत ने कहा, यह दृष्टिकोण, “बहुत अजीब और निंदनीय है”.
‘उचित संदेह’
अभियोजन पक्ष ने दो प्रमुख चश्मदीदों को अदालत में पेश किया. एक पुणे नगर निगम का सफाई कर्मचारी था जो दाभोलकर पर हमले के समय अपराध स्थल के पास काम कर रहा था. दूसरा पुणे निवासी था जिसने अपनी बालकनी से इस घटना को देखा. अदालत ने उनकी गवाही को “मज़बूत” माना.
एक अन्य गवाह ने दावा किया था कि आंदुरे ने दाभोलकर की हत्या के बारे में उसके सामने न्यायेतर (Extra-Judicial) कबूलनामा किया था. इन सभी गवाहियों को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि आंदुरे और कालस्कर ने वास्तव में दाभोलकर की गोली मारकर हत्या कर दी थी.
अन्य आरोपियों के लिए, अदालत ने कहा कि तावड़े के खिलाफ ‘मकसद’ के सबूत थे और पुनालेकर और भावे के खिलाफ “उचित संदेह” था. हालांकि, इसमें यह भी कहा गया कि अभियोजन पक्ष अपराध में उनकी संलिप्तता स्थापित करने में विफल रहा है.
इसमें कहा गया, “मृतक की स्थिति को ध्यान में रखते हुए, यह मामला राष्ट्रीय महत्व का है. उक्त तथ्य के बावजूद, PW15 (तत्कालीन उप सचिव, गृह विभाग, मुंबई) और PW19 (तब मुंबई गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव) का लापरवाही भरा रवैया न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि निंदनीय है.”
जहां तक यूएपीए आरोपों का सवाल है, अदालत ने मुंबई गृह विभाग से अभियोजन के लिए दी गई मंजूरी को “वैध नहीं” पाया. ऐसा तब हुआ जब अदालत ने पाया कि गृह विभाग, मुंबई के तत्कालीन उप सचिव, तावड़े, पुनालेकर और भावे के लिए मंजूरी की समय सीमा का पालन करने में विफल रहे थे, और मुंबई गृह विभाग के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव ने “ आंदुरे और कालस्कर के लिए सीबीआई के मंजूरी प्रस्ताव को लेकर अपना दिमाग नहीं लगाया.
जहां तक सजा की बात है तो सरकारी वकील ने यह मानते हुए कि यह ‘दुर्लभतम’ मामला नहीं है आरोपियों के लिए मौत की सजा की मांग नहीं की थी. इसलिए, अदालत ने दोनों दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई.
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