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Sunday, 28 April, 2024
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केनरा बैंक विवाद में राजनेताओं ने राइट ऑफ को कर्ज माफी मान लिया, क्या है इन दोनों के बीच का अंतर

पिछले हफ्ते केनरा बैंक ने एक आरटीआई खुलासे में कहा कि उसने पिछले 11 सालों में 1.29 लाख करोड़ रुपये के कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिया. इसके बाद विपक्षी नेताओं ने इसे जनता के पैसे की 'लूट' बताते हुए सरकार की खिंचाई की.

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नई दिल्ली: केनरा बैंक ने हाल ही में एक आरटीआई में खुलासा किया कि उसने पिछले 11 सालों में 1.29 लाख करोड़ रुपये के ऋण को बट्टे खाते (राइट ऑफ) में डाल दिया है. इसके बाद कर्ज राइट ऑफ और कर्ज माफी का मुद्दा एक बार फिर से चर्चा में आ गया.

हालांकि इस मसले के आसपास की चर्चा न सिर्फ कर्ज माफी और राइट ऑफ को एक साथ जोड़ रही है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बट्टे खाते में डालने के व्यवहार में महत्वपूर्ण सुधार के बारे में बात न करने से भी चूक रही है.

केनरा बैंक के खुलासे के बाद, कई विपक्षी नेताओं और राजनीतिक टिप्पणीकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा कर्ज राइट ऑफ करने को सार्वजनिक धन की कथित ‘लूट’ बताते हुए सरकार की आलोचना करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया. इनमें वकील प्रशांत भूषण और सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी भी शामिल हैं. कांग्रेस के प्रवक्ताओं और नेताओं के बयानों से भी यही लग रहा है कि उन्होंने बट्टे खाते में डाले गए कर्ज को गलती से कर्ज माफी मान लिया है.

वित्त राज्य मंत्री भागवत कराड द्वारा दो अगस्त को राज्य सभा में एक लिखित उत्तर में दिए गए आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले पांच सालों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाली गई राशि वित्तीय वर्ष 2021-22 में लगातार घटते हुए 1.08 लाख करोड़ रुपये हो गई, जो 2018-19 में बढ़कर 1.83 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गई थी.

साथ ही, राइट ऑफ लोन से वसूल की गई राशि 2021-22 में बढ़कर 24,739.1 करोड़ रुपये हो गई, जो 2017-18 में 10,451.14 करोड़ रुपये थी. बट्टे खाते में डालने वाली राशियों में इस कमी के साथ-साथ वसूली में वृद्धि का मतलब है कि राइट ऑफ लोन के अनुपात के रूप में वसूली 2017-18 में 8.2 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 22.9 प्रतिशत हो गई.

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हालांकि अभी भी रिकवरी का प्रतिशत कम है लेकिन सार्वजनिक बैंकिंग प्रणाली के लिए यह अच्छी खबर है कि पिछले कुछ सालों में रिकवरी में सुधार हुआ है. जबकि इनमें से दो साल कोविड-19 महामारी से बुरी तरह प्रभावित रहे थे.

Graphic: Ramandeep Kaur | ThePrint
चित्रण: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

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कर्ज माफी बनाम राइट-ऑफ

कर्ज माफी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति या संस्था की देनदारी हटा दी जाती है. यानी कर्ज को वापस चुकाने की जरूरत नहीं है. ज्यादातर कर्ज माफी किसानों के लिए राज्य या केंद्र सरकारों की ओर से दिए गए आदेश के रूप में सामने आती हैं. किसानों के वोट पाने के लिए यह एक राजनीतिक हथकंडा भी है.

भारतीय रिजर्व बैंक के नियमों के अनुसार, बैंकों के लिए राइट-ऑफ एक तकनीकी जरूरत है. जब लोन की रिकवरी नहीं हो पाती है तो बैंक उसे नॉन परफॉर्मिंग असेट घोषित कर देता है. ज्यादा एनपीए से बैंक की बैलेंस शीट गड़बड़ा जाती है. इसे ठीक करने के लिए बैंक कभी न वसूले जा सकने वाले लोन को राइट ऑफ कर देते हैं. यह बैंकों के लिए फायदेमंद है क्योंकि इससे उनकी उधार देने की क्षमता बढ़ जाती है.

एमओएस कराड ने दो अगस्त को उच्च सदन में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के लिखित उत्तर में कहा था, ‘आरबीआई के दिशानिर्देशों और बैंक बोर्डों द्वारा अनुमोदित नीति के अनुसार, नॉन परफॉर्मिंग लोन को राइट ऑफ के जरिए संबंधित बैंक की बैलेंस शीट से हटा दिया जाता है, जिनके संबंध में अन्य बातों के साथ, चार साल पूरे होने पर पूर्ण प्रावधान किया गया है.’

कर्ज माफी और राइट-ऑफ को एक समान नहीं माने जाने का एक और कारण है. दोनों के लाभार्थी अलग होते हैं. कर्ज माफी में लाभार्थी बैंक और उधारकर्ता हैं. जबकि राइट-ऑफ में लाभार्थी सिर्फ बैंक होता है. कर्जदारों को उनके कर्ज को बट्टे खाते में डालने से कोई फायदा नहीं होता है.

दूसरे शब्दों में, माफ किए गए कर्ज की वसूली नहीं होती है, क्योंकि प्रक्रिया कर्ज को खत्म करने के लिए होती है. इसलिए जब कोई सरकार छूट की घोषणा करती है, तो वह सीधे बैंक को भुगतान करती है और कर्जदार कर्ज से मुक्त हो जाता है. लेकिन बट्टे खाते में डाले गए कर्ज की वसूली एक सतत प्रक्रिया है और जब कर्ज बैंक की बैलेंस शीट से हटा दिए जाते हैं तो भी यह रुकती नहीं है.

कराड ने राज्य सभा में अपने जवाब में कहा था, ‘आरबीआई के दिशानिर्देशों और उनके बोर्ड द्वारा अनुमोदित नीति के अनुसार, बैंक अपनी बैलेंस शीट को क्लीन करने, कर लाभ का फायदा उठाने और पूंजी को बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने के लिए अपने नियमित अभ्यास के हिस्से के रूप में राइट-ऑफ के प्रभाव का मूल्यांकन/विचार करते हैं.’

उन्होंने समझाया, ‘राइट ऑफ किए गए कर्ज के लिए कर्जदार पुनर्भुगतान के लिए उत्तरदायी हैं और बट्टे खाते में डाले गए कर्ज खातों में उधारकर्ता से बकाया की वसूली की प्रक्रिया जारी रहती है. राइट ऑफ करने से कर्जदार को कोई फायदा नहीं होता है.’

बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने दिप्रिंट को बताया, ‘कुल मिलाकर, कर्ज माफी को एक बेहतर विकल्प माना जाता है. कम से कम वित्तीय दृष्टिकोण से ये सही विकल्प होता है, क्योंकि बैंक को पूरी तरह से भुगतान कर दिया जाता है और कर्जदार- अक्सर एक गरीब किसान- कर्ज के बोझ से मुक्त हो जाता है.’

सबनवीस ने समझाया, ‘अगर सरकार कहती है कि वह 100 रुपये के कृषि ऋण माफ कर रही है, तो सरकार को बैंक को 100 रुपये का भुगतान करना होगा ताकि कर्जदार की देनदारी पूरी तरह से खत्म जाए.’ वह आगे कहते हैं, ‘जहां तक बैंक का सवाल है, उन्हें कर्ज का भुगतान समय पर हो जाता है. इसलिए बैंक के लिए कर्ज माफी एक बेहतर विकल्प है.’

इसके विपरीत राइट-ऑफ में बैंक को न सिर्फ खराब लोन के लिए प्रावधान करना होता है, जो उसके मुनाफे को प्रभावित करता है, बल्कि वसूली प्रक्रिया भी जारी रखनी होती है.

हालांकि, जहां कर्ज माफी बैंक और कर्जदार दोनों के वित्त के संदर्भ में फायदेमंद हो सकती है. वहीं इस प्रक्रिया में कुछ कमियां भी हैं.

सबनवीस ने कहा, ‘कर्ज माफी के मामले में हमेशा एक नैतिक खतरा बना रहता है. कर्जदार बैंक को वापस भुगतान नहीं करने का हमेशा फायदा उठाता है. क्योंकि उसे पता होता है कि सरकार कर्ज माफी की घोषणा कर ही देगी.’

वह आगे कहते हैं, ‘कर्ज माफी आमतौर पर कृषि ऋण के लिए होती है. किसान अक्सर समय पर लोन का भुगतान नहीं करता है. क्योंकि वो जानता है कि चुनाव आ रहे हैं और छूट की घोषणा की संभावना अधिक है. वह उस छूट की उम्मीद में कर्ज वापस करना बंद कर देता है.’


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क्या कर्जमाफी कारगर है?

भारतीय स्टेट बैंक की जुलाई की ‘कृषि पर विशेष रिपोर्ट‘ में पाया गया कि 2014 के बाद से आठ राज्य सरकारों द्वारा घोषित कृषि कर्ज माफी किसानों को स्वयं लाभान्वित करने में काफी हद तक असफल रही है. अध्ययन में नौ राज्यों को शामिल किया गया था. यह इंगित करता है कि कुछ राज्यों ने लाभ पाने वाले राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘बहुत प्रचार और राजनीतिक संरक्षण के बावजूद राज्यों द्वारा कृषि कर्ज माफी लोगों को राहत देने में विफल रही है, चुनिंदा भौगोलिक क्षेत्रों में कर्ज अनुशासन को तोड़ रही है और बैंकों/वित्तीय संस्थाओं को आगे कर्ज देने से सावधान कर रही है.’

Graphic: Manisha Yadav | ThePrint
चित्रण: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

इसमें आगे कहा गया है कि 2014 के बाद से लगभग 3.7 करोड़ पात्र किसानों में से सिर्फ 50 प्रतिशत को ही कर्ज माफी (मार्च 2022 तक) का लाभ मिल पाया है. हालांकि कुछ राज्यों में 90 प्रतिशत से ज्यादा किसानों के कर्ज माफ किए गए थे. अनिवार्य रूप से यह राज्य द्वारा अपने लिए बनाया गया एक ‘स्वयं लक्ष्य’ था.

एसबीआई की गणना से पता चलता है कि 2014 में तेलंगाना में 51 लाख किसान कर्ज माफी की ओर देख रहे थे. जबकि राज्य सरकार की कर्ज माफी की घोषणा का लाभ इनमें से सिर्फ 5 प्रतिशत को ही मिल पाया. जबकि उसी साल आंध्र प्रदेश में 92 प्रतिशत योग्य लाभार्थियों को छूट से लाभ प्राप्त हुआ.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘कम प्रतिशत के संभावित कारण हो सकते हैं: (1.) राज्य सरकारों द्वारा कर्ज माफी के दावों की अस्वीकृति, (2) सीमित या लो फिस्कल स्पेस और (3) बाद के सालों में बदलती सरकार.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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