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Thursday, 25 April, 2024
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‘बॉन्ड, रोमियो, जूलियट’ और व्हाट्सएप ग्रुप चैट: क्यों उमर खालिद को नहीं मिली दिल्ली दंगों के मामले में जमानत

दिल्ली की अदालत ने इस दलील को खारिज कर दिया कि दंगों के दौरान खालिद दिल्ली में था ही नहीं, और उसने इस पूर्व छात्र-नेता की जमानत याचिका को खारिज करने के लिए संरक्षित गवाहों के बयानों पर ही भरोसा किया.

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नई दिल्ली: ‘बॉन्ड’, ‘रोमियो’ और ‘जूलियट’ जैसे संरक्षित गवाहों के बयानात के साथ-साथ कुछ व्हाट्सएप ग्रुप चैट – वे कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से दिल्ली की एक अदालत ने गुरुवार को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र उमर खालिद की 2020 के पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों की साजिश के मामले में हुई गिरफ्तारी के डेढ़ साल बाद भी उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी.

अपने आदेश में, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने कहा कि ‘यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि आरोपी उमर खालिद के खिलाफ लगाए गए आरोप प्रथमदृष्टया सत्य हैं’. इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कड़कड़डूमा स्थित इस अदालत ने कई संरक्षित गवाहों के बयानों पर भरोसा किया, हालांकि उसने इस बात का भी जिक्र किया कि इन बयानों में ‘कुछ विसंगतियां’ हैं.

मामले में दायर आरोप पत्र और अदालती आदेश दोनों ही- ‘बॉन्ड’, ‘सैटर्न’, ‘स्मिथ’, ‘इको’, ‘सिएरा’, ‘हीलियम’, ‘क्रिप्टन’, ‘जॉनी’, ‘प्लूटो’, ‘सोडियम’, ‘रेडियम’, ‘गामा’, ‘डेल्टा’, ‘बीटा’, ‘नियॉन’, ‘होटल’, ‘रोमियो’ और ‘जूलियट’ जैसे उपनामों के तहत संरक्षित गवाहों के बयानों पर भरोसा करते हैं. चार्जशीट और कोर्ट के आदेश भी ‘दिल्ली प्रोटेक्ट सपोर्ट ग्रुप’, ‘जामिया को-ऑर्डिनेशन कमेटी’, ‘मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑफ जामिया’, और ‘पिंजरा तोड़ ‘ जैसे विभिन्न समूहों के व्हाट्सएप चैट पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं, जो खालिद और उसके सह-आरोपियों के बीच की आम कड़ी है.

अदालत ने इस दलील को भी खारिज कर दिया कि दंगों के दौरान खालिद दिल्ली में थे ही नहीं. इस पर अदालत का कहना था कि ‘किसी साजिश के मामले में, यह जरूरी नहीं है कि सभी आरोपी मौके पर मौजूद हो’.

खालिद को एफआईआर नंबर (प्राथमिकी संख्या) 59/2000 के तहत जमानत देने से इनकार कर दिया गया. 6 मार्च 2020 को दर्ज की गई इस प्राथमिकी में कहा गया है कि पूर्वोत्तर दिल्ली के दंगे ‘जेएनयू के छात्र उमर खालिद और उसके सहयोगियों द्वारा रची गई एक पूर्व नियोजित साजिश’ थी.

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खालिद को पहली बार दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 12 सितंबर 2020 को उस साल फरवरी में हुए पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों के सिलसिले में तलब किया था और उसे अगले दिन जांच में शामिल होने के लिए कहा गया था.

खालिद, 13 सितंबर, रविवार, को दोपहर करीब 1 बजे लोधी कॉलोनी स्थित स्पेशल सेल के दफ्तर गये थे, जहां से उन्हें उसी दिन रात करीब 11 बजे गिरफ्तार किया गया था.


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क्या होता है ‘आतंकवादी कृत्य’?

अपने आदेश में, अदालत ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट, 1967) के तहत एक ‘आतंकवादी कृत्य’ की परिभाषा पर गौर किया. अन्य बातों के अलावा, एफआईआर नंबर 59/2020 में आरोपी पर सख्त कानून माने जाने वाले यूएपीए की धारा 13, 16, 17 और 18 के तहत भी आरोप लगाए गए हैं. ये धाराएं क्रमशः गैरकानूनी गतिविधि, कोई आतंकवादी कृत्य करने, किसी आतंकवादी कृत्य के लिए धन एकत्र करने और किसी आतंकवादी कृत्य को अंजाम देने की साजिश रचने के अपराधों से संबंधित हैं.

न्यायाधीश रावत ने कहा कि वर्तमान मामले में, आरोप पत्र को उसके मूल स्वरूप (फेस वैल्यू) में लेने के अनुसार, ‘विघटनकारी चक्का जाम की एक पूर्व नियोजित साजिश की गई थी और दिल्ली में 23 अलग-अलग पहले से निर्धारित स्थलों पर एक पूर्व नियोजित विरोध कार्यक्रम होना था, जिसे टकराव वाले चक्का जाम और ऐसी हिंसा के लिए उकसाने की ओर बढ़ावा देना था जिसकी वजह से दंगे हों.’

अदालत ने कहा, ‘ऐसे कार्य जो भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा करते हैं, सांप्रदायिक सद्भाव में वैमनस्य पैदा करते हैं और लोगों के किसी भी वर्ग को घिरा हुआ महसूस करा के ऐसा आतंक पैदा करते हैं जिसकी वजह से हिंसा, भी एक आतंकवादी कृत्य है.’

इससे पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने खालिद के सह-आरोपियों – पिंजरा तोड़ संगठन की कार्यकर्ता नताशा नरवाल और देवांगना कलिता तथा जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत देते हुए पिछले जून में जोर देकर कहा था कि भड़काऊ भाषण देना और विरोध करना, भले ही उन्होंने शांतिपूर्ण विरोध की सीमा पार कर ली हो, यूएपीए के तहत किसी ‘आतंकवादी कृत्य’ के रूप में माने जाने योग्य नहीं है.

हाईकोर्ट ने कहा था, ‘यहां तक कि अगर हम तर्क के आधार पर – इस बारे में कोई विचार व्यक्त किए बिना – यह मान भी लें कि वर्तमान मामले में भड़काऊ भाषण देने, चक्का जाम करने, महिला प्रदर्शनकारियों को उकसाने और अन्य ऐसी कार्रवाइयों, जिसमें अपीलकर्ता के एक पक्ष में होने का आरोप लगाया गया है, ने हमारी संवैधानिक गारंटी के तहत शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन की अनुमति के लिए निर्धारित सीमा रेखा को पार कर लिया है; फिर भी यह किसी ‘आतंकवादी कृत्य’ या ‘साजिश’ अथवा यूएपीए के तहत आतंकवादी कृत्य समझे गए किसी कृत्य की ‘पूर्व तैयारी’ के रूप में नहीं माना जा सकता.’

हालांकि, इस आदेश के कुछ ही दिनों के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया था. हालांकि, उसने जमानत आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन उसका कहना था कि उच्च न्यायालय द्वारा की गई यूएपीए की व्याख्या को तब तक ‘एक मिसाल के रूप में नहीं माना जाएगा’ जब तक कि यह मामले की स्वयं सुनवाई नहीं करता.


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‘बॉन्ड’, ‘रोमियो’, ‘जूलियट’

कड़कड़डूमा अदालत ने अपने आदेश में संरक्षित गवाहों द्वारा लगाए गए आरोपों को ध्यान में रखते हुए कहा कि ‘साजिश और दंगों के संदर्भ में खालिद की भूमिका स्पष्ट है’. इसने कहा कि इन गवाहों के बयानों में ‘आरोपी व्यक्तियों की भूमिका और हिंसा, दंगों, वित्त (पैसों) और हथियारों पर खुली चर्चा’ का उल्लेख किया गया है.

उदाहरण के लिए, इन गवाहों में से एक, ‘बॉन्ड’ ने दावा किया कि खालिद ने 13 दिसंबर 2019 को जामिया मिलिया इस्लामिया परिसर का दौरा किया था, और कहा था कि ‘वर्तमान सरकार एक हिंदू सरकार है जो मुसलमानों के खिलाफ है और उन्हें सरकार को उखाड़ फेंकना होगा और वे सही समय पर ऐसा करेंगे.‘

हालांकि, खालिद के वकील ने यह दलील दी कि ‘बॉन्ड’ का बयान विश्वसनीय नहीं है और इसे काफी अधिक देरी के बाद दर्ज किया गया था, मगर अदालत ने यह कहते हुए उनकी इस बात पर गौर करने से इनकार कर दिया कि ‘किसी गवाह के बयान की विश्वसनीयता का परीक्षण मामले की सुनवाई के स्तर पर किया जाना होता है, जमानत अर्जी पर फैसला करते समय नहीं.‘

अदालत ने खालिद के इस दावे को भी खारिज कर दिया कि संरक्षित गवाहों के बयान या तो ‘झूठे, विरोधाभासी और मनगढ़ंत है या फिर जबर्दस्ती लिए गए हैं. इसने कहा, ‘जमानत के इस स्तर पर, सभी गवाहों के बयान उनके फेस वैल्यू पर लिए जाने चाहिए और उनकी सत्यता की जांच मामले में जिरह के समय की जाएगी.’

इसके बाद इसने विभिन्न व्हाट्सएप समूहों पर चैट पर भी भरोसा जताया, जिसमें कहा गया है कि इन सभी समूहों के सदस्य ‘एक साथ काम कर रहे थे’ और ‘एक समूह के सदस्य दूसरे समूह में भी सदस्य थे और उनकी रणनीति में जानकारी और सामंजस्य था.‘

‘किसी आरोपी की थीसिस उसके मन की स्थिति का आकलन करने का आधार नहीं हो सकती’

अदालत ने, हालांकि, खालिद के ‘मस्तिष्क के झुकाव’ पर अभियोजन पक्ष द्वारा पेश उस तर्क पर गौर करने से इनकार कर दिया, जो कि ‘वेलफेयर आस्पेक्ट्स ऑफ आदिवासिस ऑफ झारखंड’ विषय पर उसकी डॉक्टरेट थीसिस और उसके अन्य लेखों पर निर्भर करता था.

यह कहते हुए कि जमानत अर्जी पर विचार करते समय यह आवश्यक नहीं होगा, अदालत ने कहा, ‘यदि इसी तरह से ‘मस्तिष्क के झुकाव’ का आकलन किया जाना है, तो फिर सह-आरोपी शरजील इमाम ने तो दंगों पर ही अपनी थीसिस लिखी है. लेकिन किसी भी आरोपी द्वारा किया गया कोई भी थीसिस या शोध कार्य, अपने आप में, मेंस रीआ यानि कि उसके ‘मस्तिष्क का आकलन’ करने का आधार नहीं हो सकता है.’

सितंबर 2020 में जब खालिद को गिरफ्तार किया गया था, तब इस मामले में एक 17,000 पन्नों का आरोप पत्र दायर किया गया था. फिर, अक्टूबर 2020 में, एक और 197-पृष्ठ लंबी चार्जशीट में खालिद को ‘देशद्रोह का पुरोधा’ कहा गया, और इसमें ऐसे कथानक (नैरेटिव) शामिल थे कि जिसके बारे में उसके वकील ने तर्क दिया था कि यह पढ़ने में अमेज़ॅन प्राइम टीवी के शो ‘द फैमिली मैन की ‘स्क्रिप्ट’ की तरह लगता है.

अपने आदेश में, न्यायाधीश रावत ने कहा कि जमानत अर्जी पर निर्णय लेने में इतना समय इसलिए लगा क्योंकि यह मामला काफी ‘गर्मजोशी से लड़ा गया’ था, और दोनों पक्षों ने ‘आरोप पत्र और संलग्न अनुलग्नकों के बारे में गहराई से बात की है’.

उन्होंने यह भी कहा कि सुनवाई के दौरान, वकीलों ने आरोप पत्र से परे की विषय वस्तु का उल्लेख किया और साथ ही ‘अपनी बातों पर जोर देने के लिए वेब-सीरीज़ के विभिन्न उदाहरणों से सम्बंधित संदर्भ भी दिए.’ उन्होंने जोर देकर कहा कि यह सब ‘अनावश्यक’ था क्योंकि जमानत आवेदन पर निर्णय लेने के चरण में, अदालत को केवल यह देखने की आवश्यकता होती है कि उसके रिकॉर्ड पर क्या उपलब्ध है- जो आरोप पत्र और उसके अनुलग्नक ही होते हैं.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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