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Friday, 3 May, 2024
होमदेशपेड़ों पर काली गुड़िया, देवी के पैरों के निशान — काला जादू कानून का महाराष्ट्र में बमुश्किल हुआ इस्तेमाल

पेड़ों पर काली गुड़िया, देवी के पैरों के निशान — काला जादू कानून का महाराष्ट्र में बमुश्किल हुआ इस्तेमाल

अंधविश्वास-रोधी कार्यकर्ता इसका कारण बार-बार बदलती सरकारों और प्रत्येक प्रशासन में इच्छाशक्ति की कमी को मानते हैं. उन्होंने कहा, बहुत कम मामले दर्ज किए गए और सजा की दर भी निराशाजनक है.

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मुंबई: दो महीने पहले महाराष्ट्र के नागथाना गांव के एक खेतिहर मज़दूर ज्ञानेश्वर सोलंकी को एक रिश्तेदार का फोन आया, जिसने दावा किया कि उसका बेटा हमेशा बीमार रहता है क्योंकि ज्ञानेश्वर की मां सिंधुताई ने उस पर काला जादू किया था. उसने ज्ञानेश्वर के परिवार को जान से मारने की धमकी भी दी.

ज्ञानेश्वर के अनुसार, रिश्तेदार वाशिम जिले में स्थित नागथाना में एक स्वयंभू बाबा से मिलने गया था.

इसके बाद खेतिहर मज़दूर शिकायत दर्ज कराने के लिए स्थानीय पुलिस थाने गया, लेकिन दावा किया गया कि पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया और इसके बजाय एक गैर-संज्ञेय रिपोर्ट (एनसीआर) दर्ज की.

इसके बाद उन्होंने तर्कवादी प्रोफेसर श्याम मानव द्वारा 1982 में स्थापित एक गैर-लाभकारी संस्था अखिल भारतीय अंधविश्वास निर्मूलन समिति (एबीएएनएस) से संपर्क किया, जो अंधविश्वासों को दूर करने की दिशा में काम करती है.

ज्ञानेश्वर सोलंकी ने दिप्रिंट को बताया, “मैंने एबीएएनएस से संपर्क किया क्योंकि हमारे साथ जो हुआ वो काला जादू कानून के तहत आता है, लेकिन पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया. मैं नहीं जानता कि क्या करना चाहिए.”

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उस साल 20 अगस्त को अंधविश्वास-रोधी योद्धा डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की दिनदहाड़े हत्या के बाद दिसंबर 2013 में महाराष्ट्र में मानव बलि और अन्य अमानवीय, दुष्ट, अघोरी प्रथाओं, काला जादू रोकथाम और उन्मूलन अधिनियम पारित किया गया.

इस कानून के तहत ऐसे अपराध गैर-ज़मानती हैं और इसमें छह महीने से सात साल तक की सज़ा और 50,000 रुपये तक का जुर्माना हो सकता है.

दिप्रिंट से संपर्क करने वाले अंधविश्वास-रोधी कार्यकर्ताओं ने बताया कि 10 साल बीत चुके हैं, लेकिन कानून अभी तक ठीक से लागू नहीं किया गया है.

पेड़ों पर लटकती काली गुड़िया से लेकर, “गांव वालों के घर में प्रवेश करने वाली देवी” तक, इन कार्यकर्ताओं ने पिछले कुछ साल में महाराष्ट्र में कई उदाहरण देखे हैं.

उन्होंने इसके लिए लगातार राज्य सरकारों द्वारा पहल की कमी को जिम्मेदार ठहराया, जिसके कारण कानून पारित होने के तुरंत बाद पुलिस कर्मियों के लिए आयोजित कई ट्रेनिंग सत्रों के बावजूद प्रभाव डालने में विफल रहा.

एक अन्य अंधविश्वास-रोधी संगठन (एएनआईएस) जिसकी स्थापना दाभोलकर ने की थी, की एक सदस्य नंदिनी जाधव ने कहा, “कानून लागू है, लेकिन इसे जनता तक पहुंचना चाहिए. ऐसा नहीं हो रहा है, इसे लागू नहीं किया जा रहा है.”

कानून पारित होने के तुरंत बाद, पृथ्वीराज चव्हाण के नेतृत्व वाली कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की राज्य सरकार ने इसकी योजना और कार्यान्वयन के लिए एक समिति गठित की थी.

जादू टोना विरोधी कायदा प्रचार प्रसार समिति, जो अभी भी अस्तित्व में है, का नेतृत्व सामाजिक न्याय मंत्री (इस मामले में, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, जिनके पास अतिरिक्त विभाग है) और एक राज्य मंत्री करते हैं. इसकी महीने में दो बार बैठक होती है. सदस्यों में विभिन्न सरकारी विभागों के सचिव और गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं.

समिति के सह-अध्यक्ष, एबीएएनएस के संस्थापक डॉ. श्याम मानव ने कहा, “अधिनियम का कार्यान्वयन बहुत खराब है और इसे लागू करने की सरकार की मंशा भी संदिग्ध है. मामले दर्ज नहीं हो रहे हैं क्योंकि पुलिस को खुद इस अधिनियम की जानकारी नहीं है.”

कार्यकर्ताओं ने यह भी कहा कि, आज तक, काला जादू रोधी कानून के तहत बहुत कम मामले दर्ज किए गए हैं और जो दर्ज किए भी गए हैं, उनमें सज़ा की दर बहुत कम है.

नंदिनी जाधव के अनुसार, कानून पारित होने के बाद से इसके तहत केवल एक हज़ार मामले दर्ज किए गए हैं. उन्होंने पूछा, “दोषसिद्धि (दर) बहुत कम है क्योंकि पुलिस खुद नहीं जानती कि मामले को कैसे तैयार किया जाए. हम लड़ते हैं क्योंकि हम कानून को जानते हैं, लेकिन आम नागरिकों का क्या जो इसे पूरी तरह से नहीं समझते हैं और पुलिस को समझाने में सक्षम नहीं हैं?”

कानून के कार्यान्वयन पर सामाजिक न्याय विभाग के साथ काम कर रहे एक अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया कि अंधविश्वास रोधी कानून पारित होने के बाद से 2022 तक इसके तहत केवल 250 मामले दर्ज किए गए हैं, जबकि एक हज़ार से अधिक शिकायतें प्राप्त हुई थीं.

दिप्रिंट ने टिप्पणी के लिए सामाजिक न्याय विभाग के सचिव सुमंत भांगे से संपर्क किया. उनसे जवाब मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.

मामले से जुड़े एक सरकारी अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “जैसा कि किसी भी सरकारी प्रक्रिया में होता है, इसमें भी कुछ समय लग रहा है. बीच में सरकार बदल गईं इसलिए समय लग रहा है, लेकिन हम सक्रिय रूप से इस अधिनियम का समन्वय और कार्यान्वयन कर रहे हैं.”


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कानून का अस्तित्व और यह क्या कहता है

जब डॉ. दाभोलकर द्वारा प्रारंभिक विधेयक का मसौदा तैयार किया गया था, तब से अंधविश्वास रोधी कानून को अंततः पारित होने में दम साल तक का समय लग गया. इसे पहली बार 2005 में महाराष्ट्र विधानसभा में पेश किया गया था. कथित तौर पर महाराष्ट्र इस तरह का कानून प्रस्तावित करने वाला पहला राज्य था.

इस बिल के पक्ष और विपक्ष में खूब विरोध प्रदर्शन हुए. कुछ समूहों ने इसे “हिंदू विरोधी” और धार्मिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाला बताया. जुलाई 2008 में विधेयक के समर्थन में कार्यकर्ताओं ने खुद को थप्पड़ मारकर तत्कालीन विलासराव देशमुख के नेतृत्व वाली सरकार की इसे मंजूरी देने की स्पष्ट अनिच्छा का विरोध किया.

2013 में दाभोलकर की हत्या के बाद हालात बदल गए. हत्या के एक दिन बाद तत्कालीन सीएम पृथ्वीराज चव्हाण के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने काला जादू-रोधी अध्यादेश लागू करने का फैसला किया. कानून अंततः दिसंबर में अस्तित्व में आया.

इस कानून के तहत अपराध मानव बलि से लेकर, भूत भगाने के बहाने किसी व्यक्ति पर हमला करना या उसे बांधना, “तथाकथित चमत्कार दिखाना और इस तरह पैसा कमाना” से लेकर “जनता के मन में भूत-प्रेत को लेकर दहशत पैदा करना” तक शामिल हैं.”

लागू करने के प्रयास

श्याम मानव के मुताबिक, कानून अस्तित्व में आते ही राज्य सरकार ने पुलिस को ट्रेनिंग देने और जागरूकता फैलाने का माहौल मुहैया कराया.

एबीएएनएस संस्थापक ने कहा, “पहले साल में हमने महाराष्ट्र के सभी जिलों में लगभग 40 प्रशिक्षण सत्र किए. हमने प्रमुख पुलिस अधिकारियों को ऐसे मामलों की पहचान करने के बारे में प्रशिक्षित किया और उन्हें अधिनियम समझाया. ये दिन भर चलने वाले सत्र थे लेकिन 7 घंटे तक चले.”

उन्होंने कहा, “पुलिस बल को अधिनियम के प्रति संवेदनशील बनाना एक बड़ा काम था. हमें यह समझाने के लिए व्यावहारिक तरीकों का उपयोग करना पड़ा कि काले जादू या अंधविश्वास के अंतर्गत क्या आ सकता है.” उन्होंने आगे कहा, सभी पुलिस कर्मियों को सत्र में भाग लेने के लिए प्रेरित करना एक मुश्किल काम था, लेकिन तत्कालीन सरकार ने इस प्रयास का समर्थन किया.

मानव ने कहा, “प्रशिक्षण के अच्छे परिणाम भी दिखने लगे थे.”

एक सीनियर इंस्पेक्टर पराग पोटे ने दिप्रिंट को एक घटना के बारे में बताया जो तब हुई थी जब वह 2015 में वर्धा जिले के सेवाग्राम पुलिस स्टेशन में तैनात थे.

उन्होंने कहा, “गांव में अफवाह फैल गई कि एक आदमी के घर में देवी-देवता आ गए हैं. कई लोग देवी-देवताओं के दर्शन करने के लिए घर के बाहर लाइन लगाने लगे. वे उनके घर को मंदिर की तरह मानने लगे और बाहर 200-300 लोग इकट्ठा हो जाते. कुछ लोगों ने पैसे, चावल, नारियल जैसे दान भी देना शुरू कर दिया.”

जांच करते समय, पोटे को पता चला कि उस घर में रहने वाले व्यक्ति ने ग्रामीणों को मूर्ख बनाने के लिए उसके घर में जाने वाले पैरों के निशान बनाए थे. इंस्पेक्टर ने कहा, “मैंने वह मामला काला जादू कानून के तहत दर्ज किया है. मैंने अब तक इसके चार मामले दर्ज किए हैं.”


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सरकार बदल गई, कोविड के कारण हुई देरी

2014 में ट्रेनिंग प्रोग्राम्स के जरिए से इस अधिनियम को लागू करने की एक परियोजना शुरू की गई थी, लेकिन सरकारों के बदलने से प्रयास बार-बार पटरी से उतर गए.

इसके अलावा, जागरूकता रैलियों और ट्रेनिंग प्रोग्राम्स के लिए आवंटित धनराशि खत्म होने लगी और कथित तौर पर अधिक धनराशि स्वीकृत नहीं की गई.

मानव ने कहा, “मुझे बताया गया था कि धनराशि स्वीकृत हो जाएगी, लेकिन 2015 से अगले तीन साल तक यहां बस टाल-मटोल होती रही.”

2019 में सरकार बदल गई और महा विकास अघाड़ी (शिवसेना, कांग्रेस, एनसीपी) सत्ता में आई. एक बार फिर तय हुआ कि प्रोजेक्ट मूर्त रूप लेगा. फरवरी 2020 में राज्य के बजट के तहत 12 करोड़ रुपये की धनराशि स्वीकृत की गई और पुलिस, शिक्षकों, ग्राम पंचायतों, स्कूलों, कॉलेजों और अन्य हितधारकों के लिए कार्यशालाएं अप्रैल 2020 से शुरू होनी थीं.

लेकिन कोविड-19 महामारी, विशेषकर सामाजिक दूरी ने एक बार फिर इन प्रयासों को रोक दिया. 2022 में एक बार फिर सरकार बदल गई.

ट्रेनिंग के अलावा, इसमें राज्य भर के 36 जिलों, 350 तालुकाओं और गांवों में जागरूकता कार्यक्रम शामिल थे.

कार्यकर्ताओं ने कहा कि राज्य सरकार को अंधविश्वास-रोधी कानून के बारे में जागरूकता के लिए बस स्टॉप जैसे सार्वजनिक स्थानों या बसों या पुलिस स्टेशनों पर पोस्टर लगाने की ज़रूरत है. उनका कहना है कि इस कानून को सरकार के माध्यम से जनता तक पहुंचाने की ज़रूरत है.

एएनआईएस ने शुरुआत में बहुत सारे ट्रेनिंग शिविर भी आयोजित किए. जाधव ने कहा, जैसे ही कानून पारित हुआ, उन्होंने जनता को जागरूक करने के लिए 85 दिनों के लिए ‘जनसंवाद यात्रा’ निकाली. उन्होंने पिछले अगस्त से 90 दिनों तक ऐसा एक और अभियान चलाया.

मानव ने कहा, “हमने जो समझा वो यह है कि नियम 10 साल बाद भी लागू नहीं हुए हैं और पुलिस को खुद कानून की जानकारी नहीं है.”

एबीएएनएस के संस्थापक के अनुसार, पिछले एक साल में मानव ने केवल तीन सत्र आयोजित किए थे. उन्होंने कहा, “सरकारी कैबिनेट पूरी तरह कार्यात्मक नहीं है और (सामाजिक न्याय) विभाग के हाथ खाली हैं. राजनीतिक मंशा की कमी है क्योंकि समिति की बैठकें भी कम हो गई हैं.”

समय की मांग

कार्यकर्ताओं ने कहा कि समय की मांग लोगों, विशेषकर पुलिस बल को संवेदनशील बनाना है. यहां तक कि पुलिस तबादलों से भी प्रक्रिया प्रभावित हो रही है, क्योंकि जिन लोगों को ट्रेनिंग दी गई है वो शिफ्ट हो जाते हैं. अधिनियम के अनुसार, सरकार द्वारा प्रतिनियुक्त सतर्कता अधिकारी ही इस कानून को लागू करता है.

एबीएएनएस के लिए ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता पंकज वंजारे ने दिप्रिंट से बात करते हुए एक घटना साझा की.

वंजारे ने कहा, “2015 में वर्धा जिले में रहने वाले एक व्यक्ति ने अपना नवजात शिशु खो दिया. इस घटना ने उनकी पत्नी को झकझोर कर रख दिया. फिर उसकी पत्नी का परिवार उसे ‘प्रेतवाधित’ समझकर अलग-अलग ‘बाबाओं’ के पास ले जाने लगा.”

परिणामस्वरूप, पत्नी ने काले जादू की अनुष्ठानों में भाग लेना शुरू कर दिया, जो आठ साल तक जारी रहा.

अंत में, उन्होंने वंजारे से संपर्क किया, जिन्होंने पुलिस से संपर्क करने का फैसला किया.

वंजारे ने कहा, “पुलिस ने शिकायत लेने से इनकार कर दिया. पुलिस स्टेशन, जिसके अधिकार क्षेत्र में यह घटना हुई, 2015 में अस्तित्व में ही नहीं था. इसलिए वे कार्रवाई करने से इनकार कर रहे थे.” उन्होंने आगे कहा, “कानून के अनुसार, शिकायत किसी भी थाने में दर्ज कराई जा सकती है. इस मामले में ऐसा नहीं हुआ. इसलिए हमने इसके बजाय महिला की मदद करने का फैसला किया.”

पोटे ने कहा, “बहुत कम पुलिस अधिकारियों को इस कानून की जानकारी है और अदालत में भी इसे एक विशेष मामले की तरह मानने या मामले में तेज़ी लाने का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए मेरे मामले अभी भी अदालत में लंबित हैं.”

कार्यकर्ताओं के अनुसार, कुछ पुलिस कर्मी स्वयं अंधविश्वास में विश्वास करते हैं, जिससे उनके लिए कानून लागू करना कठिन हो जाता है. मानव ने कहा, “पुलिस बल के बीच अंधविश्वास की परिभाषाओं को लेकर बहुत भ्रम है और इसलिए पीड़ितों को वापिस भेज दिया जाता है.”

सतारा जिले के एक गांव में जाधव को हर साल पेड़ों पर काली गुड़िया लटकाने की एक विचित्र परंपरा का सामना करना पड़ता है. उन्होंने पूछा, “हर साल हम इन काली गुड़ियों को उतारते हैं और जला देते हैं और स्थानीय पुलिस थानों ने काले जादू कानून के बारे में विज्ञापन देने के बावजूद मामला दर्ज नहीं किया है. सिस्टम कर क्या रहा है?”

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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