भोजपुर (बिहार): 8 बाई 11 फीट के क्लीनिक में कपूरी कुमार सीमेंट के प्लास्टिक बैग से ढके बिस्तर पर लेटे एक मरीज को लगे वीगो में इंजेक्शन लगाते हैं. वहीं, एक अन्य महिला भी बेड पर लेटी है जिसके दाहिने हाथ में आईवी ड्रिप लगी हुई है. दोनों मरीज डायरिया के कारण डिहाइड्रेशन के शिकार हो गए हैं.
सुई लगाने के बाद एकदम संतुष्ट भाव से कुमार कहते हैं, ‘किसी की जिंदगी बचा पाने से बड़ा कोई आनंद नहीं है. इससे बहुत अच्छा महसूस होता है.’
वह बिहार में काम करने वाले बिना लाइसेंस वाले हजारों ‘मेडिकल प्रैक्टिशनर्स’ में से एक हैं, जो ज्यादातर राज्य के ग्रामीण इलाकों में सक्रिय हैं. कुछ रिपोर्टों के अनुसार, राज्य में प्रैक्टिस करने वाले ऐसे नीम-हकीमों की संख्या लाखों में हो सकती है.
कुमार बिहार के भोजपुर जिले के एक कस्बे अरहरा में एक डॉक्टर के यहां—सुबह 10 बजे से शाम पांच बजे तक—एक कंपाउंडर के तौर पर काम करते हैं. अपने ड्यूटी पूरी करने के बाद वह नजदीक स्थित गांव बम्पाली में अपने मरीज देखते हैं.
उन्होंने बताया, ‘मेरे पास ज्यादातर लोग खांसी, बुखार और सर्दी जैसी बीमारियों के साथ आते हैं. अगर मुझे लगता है कि उनमें से किसी को कोविड हो सकता है तो में उन्हें भोजपुर स्थित सदर अस्पताल जाने की सलाह देता हूं.’
दिप्रिंट ने ग्रामीण बिहार में ऐसे कई ‘डॉक्टरों’ से बात की.
आम तौर पर ‘झोलाछाप डॉक्टरों’ के नाम से जाने जाने वाले इन मेडिकल प्रैक्टिशनर का क्षेत्र में काफी सम्मान किया जाता है और बड़ी संख्या में लोग उनसे इलाज कराने आते हैं.
सिपाही, जो खुद को ‘डॉक्टर’ बताता है, यहां भोजपुर जिले के पिरहाप गांव में प्रैक्टिस करता है.
उनके अनुसार, लोग कोविड से नहीं, बल्कि प्राकृतिक कारणों से मर रहे हैं. ग्रामीणों के मुताबिक पिरहाप में पिछले दो हफ्तों में पंद्रह लोगों की मौत हुई है.
65 वर्षीय एक महिला को देखने के लिए उसके घर जाते समय सिपाही ने दिप्रिंट से कहा, , ‘मैं हमेशा पैरासिटामोल, अजीथ्रल, क्लोरामफेनिकोलऔर विटामिन सी की गोलियां अपने साथ ही रखता हूं, ताकि कहीं भी जरूरत पड़ने पर लोगों का इलाज कर सकूं.’
महिला कुछ गैस्ट्रिक की बीमारी से पीड़ित है और जी मिचलाने की शिकायत करती है, वह बताती है कि सिपाही ने पिछली बार जो दवाएं बताई थीं, वो अभी उसके पास हैं. सिपाही उसे फिर से कुछ नई गोलियां देता है जिसके बारे में उसका बेटा समय पर दवाएं लेने को कहता है.
बिहार जैसे राज्य जहां आबादी के अनुपात में पहले से ही कम ही डॉक्टर हैं, और खासकर अब जबकि महामारी के कारण पूरे देश में ही स्वास्थ्य सुविधाएं चरमरा गई हैं, में ये झोलझाप ही तमाम लोगों के आखिरी उम्मीद बने हुए हैं.
यह योग्यता हासिल करने के लिए उन्हें कुछ और नहीं करना होता बस कुछ समय के लिए पंजीकृत डॉक्टरों के यहां प्रशिक्षण लेना या काम करने का अनुभव हासिल करना होता है.
‘हमारे लिए तो यही सहारा हैं’
डायरेक्टरेट ऑफ स्टेट हेल्थ सर्विसेज और नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में आबादी के लिहाज से डॉक्टरों का अनुपात सबसे कम है. राज्य में 11,082 लोगों पर एक डॉक्टर की तुलना में 28,391 लोगों पर एक सरकारी डॉक्टर है. दिल्ली में औसतन 2,200 लोगों पर एक डॉक्टर है.
यही वो जगह है जिसे ये झोलाझाप डॉक्टर भरते हैं, खासकर उन ग्रामीण क्षेत्रों में जहां चिकित्सा का बुनियादी ढांचा बहुत कमजोर है. चूंकि, पिछले साल महामारी की दस्तक के बाद लॉकडाउन लगने के दौरान इन झोलाझाप डॉक्टरों का कद तो और भी बढ़ गया था.
बम्पाली गांव निवासी कृष्ण यादव ने कहा, ‘सभी निजी क्लीनिक और अस्पताल बंद थे. हम इस स्थिति में कहां जाते? हमारे लिए बस उन्हीं का सहारा था.’
यादव ने कहा, ग्रामीणों के लिए तो ये नीम-हकीम ही ‘भगवान की तरह हैं जो लोगों की जान बचाते हैं.’
उसी गांव की कुमार देवी का कहना है कि बड़े अस्पताल में तो डॉक्टर ‘लोगों को जहर के इंजेक्शन दे देते हैं’ और यहां तक कि शव भी रख लेते हैं.
हालांकि, कई लोगों का यह भी कहना है कि ग्रामीण इलाकों में इन ‘झोलाछाप डॉक्टरों’ को इसलिए तरजीह मिल रही है क्योंकि ज्यादातर अस्पताल ‘कोविड के कारण पूरी तरह भरे हुए हैं.’
भोजपुर जिले के गिलारिया गांव के सरपंच अनिल यादव ने कहा, ‘अप्रैल के पहले सप्ताह से अब तक मेरे गांव में लगभग 25 मौतें हुई हैं, जिनमें से ज्यादातर 60 साल से अधिक उम्र के हैं.’
उन्होंने आगे कहा कि अगर किसी ग्रामीण को स्वास्थ्य संबंधी कोई गंभीर समस्या हो जाए तो महामारी के ऐसे समय में जब तमाम अस्पताल कोविड मरीजों से भरे पड़े हैं, किसी लाइसेंस प्राप्त डॉक्टर या अस्पताल की सेवाएं लेना बेहद मुश्किल कार्य है. साथ ही बताया, ‘हम या तो डॉक्टरों से व्हाट्सएप पर चिकित्सकीय सहायता लेते हैं या झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाते हैं.’
एक डॉक्टर के तौर पर मिली है ट्रेनिंग
ऐसे ज्यादातर डॉक्टर अपना खुद का क्लीनिक शुरू करने से पहले, खासकर ग्रामीण इलाकों में, किसी डॉक्टर के पास अप्रेंटिसशिप करते हैं.
भोजपुर के कैरा बाजार में काम कर रहे एक अन्य झोलाछाप डॉक्टर मंगल सिंह ने बताया, ‘मैं डॉक्टर बनना चाहता था. चाहे पढ़कर या फिर प्रैक्टिस करके.’
चिकित्सा क्षेत्र में आने से पहले मंगल सिंह ने सिंह ने एक अंडरग्रेजुएट के तौर पर जूलॉजी की पढ़ाई की है.
भोजपुर के पिरहाप गांव में प्रैक्टिस करने वाले एक ‘झोलाछाप’ डॉक्टर सौरभ कुमार शर्मा ने अनुभव हासिल करने के लिए एक अस्पताल में काम किया.
उन्होंने बताया, ‘मैं करीब दो साल तक आरा हॉस्पिटल में आईसीयू का प्रभारी था.’
कुछ वर्षों में ये झोलाछाप डॉक्टर, आधिकारिक तौर पर मान्यता न मिलने के बावजूद, राज्य की चिकित्सा प्रणाली का एक अहम हिस्सा बन गए हैं.
यही नहीं महामारी की शुरुआत में सीवान जिले के एक सिविल सर्जन शीश कुमार स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव घटाने के लिए इन्हें इसका हिस्सा बनाने का सुझाव दिया था. यह सुझाव देने के लिए उन्हें निलंबित कर दिया गया था.
हालांकि, भोजपुर के जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय के एक सूत्र ने बताया कि प्रशासन अब जाने-माने डॉक्टरों की दो-दो मिनट के वीडियो क्लिप ग्रामीण स्तर के सभी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच सर्कुलेट करने की योजना बना रहा, जिसमें बताया जाएगा कि कोविड के हल्के लक्षणों वाले मामलों को कैसे संभालना है.
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