नई दिल्ली: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र शरजील इमाम के द्वारा दिसंबर 2019-जनवरी 2020 में विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ दिए गए भाषण ‘भारत की भूभागीय अखंडता और संप्रभुता को चुनौती देने’, ‘एक विशेष समुदाय को विभाजित और गुमराह करने’ तथा ‘गैरकानूनी तरीकों से वैध संस्थानों के प्रति घृणा या अवमानना पैदा करने’ के लिए किए गए प्रयास प्रतीत होते हैं.
इन टिप्पणियों के साथ, 24 जनवरी को दिल्ली की एक अदालत ने इमाम के खिलाफ बिहार के चकबंद और पश्चिम बंगाल के आसनसोल के अलावा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) और दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में भड़काऊ भाषण देने के मामले में आरोप तय किए.
दिल्ली पुलिस और अभियोजन पक्ष के अनुसार, उसके भाषणों के कारण जामिया में हिंसक घटनाएं हुईं और ये फरवरी 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों का भी पूर्ववर्ती कारण बने थे.
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने इस मामले में इमाम द्वारा खुद को आरोप मुक्त किये जाने की याचिका खारिज कर दी. साथ ही, इस मामले में उसकी जमानत याचिका भी खारिज कर दी गई.
न्यायाधीश ने इन आरोपों पर दिए गए अपने 92 पन्नों के आदेश में उल्लेख किया है कि,’ये भाषण पूरी तरह से निराशावादी प्रतीत होते हैं. खुद के द्वारा कुबूल किये गए एक भाषण में, उसने इस बात पर जोर दिया था कि मुस्लिम आबादी शहरी इलाकों में केंद्रित है और देश में 24 ऐसे शहर हैं जहां मुस्लिम आबादी कामकाज करना बंद सकती है तथा इस तरह सारे शहर को ठप कर सरकार को अपने घुटनों पर ला सकती है.‘
उन्होंने कहा, ‘इमाम ने सिर्फ एक बार नहीं बल्कि कई बार ऐसे बयान दिए.’ न्यायाधीश ने आगे कहा, ‘और ऐसा नहीं है कि इन शब्दों को किसी जल्दबाजी में अथवा क्रोध या विरोध के किसी पल में बेइरादतन कहा गया हो.‘
इमाम को अब आईपीसी की धारा 124ए (देशद्रोह), 153ए (धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच द्वेष को बढ़ावा देना), 153बी ( राष्ट्रीय एकता के प्रति आरोप लगाने वाले और गलत दावे करने वाले पूर्वाग्रही बयान), और 505 (जनता को शरारत के लिए प्रभावित करने वाले बयान) के अलावा यूएपीए की धारा 13 (गैरकानूनी गतिविधियों के लिए सजा) के तहत लगाए गए आरोपों के साथ मुकदमे का सामना करना पड़ेगा.
इस मामले से संबंधित प्राथमिकी जनवरी 2020 में एएमयू में सीएए के खिलाफ हो रहे विरोध के दौरान दिए गए इमाम के भाषण के वायरल होने के बाद दर्ज की गई थी. इस वीडियो में, उसे उत्तरी बंगाल में सिलीगुड़ी के पास एक 22 किलोमीटर चौड़ी पट्टी, जिसे ‘चिकन नेक’ कहा जाता है और जो पूर्वोत्तर राज्यों को शेष भारत से जोड़ता है – को अवरुद्ध करने की बात करते हुए सुना गया था.
आरोप पत्र में लगाए गए आरोपों के अनुसार, इमाम ने अपने भाषणों के माध्यम से एक विशेष समुदाय को राज्य के आदर्शों और उसके राष्ट्रीय चरित्र के खिलाफ इस तरह से खड़ा करने का इरादा व्यक्त किया, मानों इन दोनों का सह-अस्तित्व कोई अभिशाप हो.’
पुलिस ने इमाम पर राजमार्गों को अवरुद्ध करने, सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने, आम आदमी को नुकसान पहुंचाने, पानी, खाने-पीने और अन्य आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति को बाधित करने के इरादे से और इसके बारे में ख़ुशी महसूस करते हुए एक ‘विघटनकारी चक्का-जाम’ की योजना बनाने का भी आरोप लगाया है.
इमाम के वकील ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि उसके भाषण का वह इरादा नहीं था जो पुलिस द्वारा दर्शाया जा रहा है.
इमाम के वकील ने कहा कि इन भाषणों में बिल्कुल भी कुछ ऐसा नहीं है, जिससे दूर से भी इस बात का संकेत मिलता हो कि आरोपी का किसी भी समय हिंसा का कारण बनने या फिर किसी भी समूह के बीच असंतोष पैदा करने का कोई इरादा हो.
सीएए द्वारा मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के छह अल्पसंख्यक समुदायों के लिए भारतीय नागरिकता को आसान बनाने के घोषित उद्देश्य का जिक्र करते हुए वकील का कहना था कि मुस्लिम एकता की बात को को केवल इस कानून के तहत मुसलमानों के ऊपर विचार न करने की प्रतिक्रिया के रूप में व्यक्त किया गया है.
वकील ने इस सारे मामले को ‘फ्री स्पीच’ (मुक्त भाषण) को दबाने का प्रयास बताते हुए दावा किया कि अभियोजन पक्ष के द्वारा पेश किये गए मामले का समर्थन करने के लिए एक भी सार्वजनिक गवाह सामने नहीं आया है और केवल पुलिस कर्मियों को ही गवाह के रूप में पेश किया गया है.
हालांकि, अदालत के अपने सामने लायी गयी सारी प्रासंगिक सामग्री के अध्ययन के बाद कहा कि आरोपी के द्वारा दिए गए भाषणों में ‘सकारात्मक दावों’ और उसके खिलाफ पर्याप्त सामग्री की मौजूदगी के कारण इमाम के खिलाफ मुकदमा चलाने की आवश्यकता है.
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‘क्या लक्ष्मण रेखा पार की गयी थी अथवा नहीं?’
अदालत ने पाया कि प्रथम दृष्टया, इमाम द्वारा बोले गए शब्दों में सार्वजनिक अव्यवस्था फ़ैलाने और हिंसा के लिए उकसाने की प्रवृत्ति थी.
अदालत ने कहा कि इमाम के भाषणों को पढ़ने से उसकी जो मौलिक सोच, विचार और मंशा सामने आती है, वह ‘एक समुदाय की नाकाबिलियत और उसके ‘अस्तित्व पर छाए संकट’ को दिखाने वाली है. इसलिए, अदालत ने कहा, इमाम के भाषण भीड़ में मौजूद मुस्लिम दर्शकों को लक्ष्य करते हुए दिए गए थे.
अदालत के अनुसार, भाषण देने का प्रत्यक्ष कारण तो सीएए / एनआरसी ही था, लेकिन इतिहास में हुई अन्य घटनाओं या टकराव के बिंदुओं (फ्लैशप्वाइंट) के बारे में दिए गए उदाहरणों के संदर्भ में एक तरह के स्पष्टीकरण की आवश्यकता है जो केवल सुनवाई के दौरान ही पूरा किया जा सकता है.
न्यायाधीश ने कहा, ‘गौ -हत्या या उन मुस्लिमों जिन्होंने हिंदू धर्म से धर्मांतरण किया था को आरक्षण नहीं दिए जाने के बारे में दिए गए संदर्भ की उस विरोध के साथ कोई प्रासंगिकता नहीं है, जो कि सीएए कानून के खिलाफ दिए गए तर्कों में दिखाया गया है.’
अदालत ने कहा, ‘इसी तरह, कुछ शहरों में जनसांख्यिकीय तौर पर पहचान किये जाने (डेमोग्राफिक प्रोफइल) का मुद्दा भी भ्रामक लगता है और सुनवाई के दौरान इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता है.’ यह टिप्पणी इमाम के भाषणों में से एक के संदर्भ में की गयी थी जिसमें उसने उन शहरों में रहने वाले मुसलमानों से विरोध करने का आग्रह किया था जहां इस समुदाय की आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है.
अदालत ने कहा, ‘चिकन नेक को अवरुद्ध करने के बारे में उसके द्वारा पेश किया गया संदर्भ ‘हर किसी को याद दिलाता है कि उक्त भूमि मुसलमानों की है और कुछ खास तरीकों से ऐसे करने का आह्वान, उसके इरादे (व्यवधान पैदा करने का) का संकेतक है’.
न्यायाधीश ने आगे कहा कि इमाम ने महात्मा गांधी के खिलाफ भी ‘अपमानजनक बयान’ दिए थे तथा धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे विचारों के प्रति उसके मन में संशय था.
चूंकि इमाम को दो अन्य मामलों – एक दिसंबर 2019 में जामिया के बाहर दंगों से संबंधित है और दूसरा पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों से संबंधित है – में भी आरोपी के रूप में नामित किया गया है, अतः न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि ये हिंसक घटनाएं उनके भाषणों के परिणामस्वरूप हुई थीं.
इमाम के वकील के इस तर्क पर कि उनका मुवक्किल पढ़ा-लिखा है, अत्यधिक बुद्धिमान है और वही कहता है जिसके बारे में वह मानता है कि यह उसके इतिहास के अध्ययन का परिणाम है, अदालत ने टिप्पणी की, ‘वर्तमान आवेदक/आरोपी शारजील इमाम निस्संदेह एक बुद्धिमान और शिक्षित व्यक्ति है, लेकिन यह मामला जिस चीज की जांच कर रहा वह अभियुक्त की बुद्धिमत्ता या योग्यता नहीं है, बल्कि उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों के सन्दर्भ में उसके कथनों और कार्यों की वैधता या अन्य प्रकार की प्रतिबद्धता है.’
न्यायाधीश ने कहा कि इमाम ने 1946 के बिहार दंगों पर अपना शोध पत्र (थीसिस) पूरा किया था. उन्होंने आगे कहा कि ‘उसके भाषण उसके विचारों के ही प्रतिबिंब हैं. किसी के भाषण की व्याख्या करने के लिए, हमें यह विचार करना चाहिए कि वक्ता कौन है, इसे किसको संबोधित किया जा रहा है, इसे किन लोगों के बीच प्रसारित किया जाएगा और यह किस संदर्भ में दिया गया है.‘
न्यायाधीश ने इस बात पर जोर देकर कहा कि एक ऐसा दृष्टिकोण रखने में कुछ भी गलत नहीं है, जो जरूरी नहीं कि किसी अन्य व्यक्ति या संगठन के दृष्टिकोण से मेल खाता हो. संविधान ने कुछ युक्तियुक्त प्रतिबंधों के साथ ‘फ्री स्पीच’ के अधिकार की गारंटी दी है.
न्यायाधीश ने कहा, ‘परन्तु, इस तर्क की इस तरह से व्याख्या करना कि किसी भी भाषण को – चाहे वह कितना भी गलत हो, आग लगाने वाला हो, उत्तेजक और धमकी देने वाला हो – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के पक्ष में पूरे सम्मान के साथ स्वीकार कर लिया जाना चाहिए, तथ्य से परे है.’
जज रावत ने इमाम की इन दलीलों को स्वीकार किया कि भाषण के इरादे को समझते समय किसी सामान्य समझ वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए न कि किसी अति संवेदनशील, भावनात्मक व्यक्ति के. लेकिन फिर न्यायाधीश ने यह भी कहा कि, बोलने वाले को ‘उसके भाषण के बाद होने वाले परिणामों के इरादे से अवगत माना जाएगा.’
न्यायाधीश ने कहा, ‘हमें यह देखना है कि क्या ‘लक्ष्मण रेखा’, यानी वह बिंदु जहां किसी का दृष्टिकोण क़ानून और न्यायिक घोषणाओं द्वारा निर्धारित सीमाओं को पार करता है, को पार किया गया है अथवा नहीं.’
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