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Thursday, 19 December, 2024
होमदेश'कम टेस्ट,जागरूकता में कमी', खेल में जीत के लिए तैयार भारत, कमजोर एंटी-डोपिंग नेटवर्क है बड़ी बाधा

‘कम टेस्ट,जागरूकता में कमी’, खेल में जीत के लिए तैयार भारत, कमजोर एंटी-डोपिंग नेटवर्क है बड़ी बाधा

एंटी-डोपिंग नियमों के उल्लंघनों के मामले में भारत पूरी दुनिया में तीसरे स्थान पर खड़ा है, लेकिन राष्ट्रीय एंटी-डोपिंग एजेंसी के प्रमुख का कहना है कि उनकी एजेंसी अब 'सही दरवाजों पर दस्तक' दे रही है.

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नई दिल्ली: अरबों की संख्या वाले उत्साही दर्शकों, अतिरिक्त खेल प्रतिभा और एथलीटों की पूरी क्षमता का दोहन करने के पक्के प्रशासनिक इरादे के साथ, भारत में खुद को एक वैश्विक खेल शक्ति के रूप में स्थापित करने की पूरी क्षमता है; मगर, खेलों की दुनिया में अपना वैश्विक दबदबा स्थापित करने की हमारी राह में अभी भी कुछ बाधाएं खड़ी प्रतीत होती हैं, और उनमें से एक प्रमुख बाधा है- एंटी-डोपिंग मैके निज़्म (डोपिंग रोधी तंत्र) का अभाव.

वर्ल्ड एंटी-डोपिंग एजेन्सी (वाडा) की साल 2019 की डोपिंग रोधी नियम उल्लंघन (एंटी-डोपिंग रूल वायोलेशन्स- एडीआरवी) पर जारी रिपोर्ट के अनुसार, 17 प्रतिशत डोपिंग रोधी नियमों के उल्लंघन के साथ भारत इस साल दुनिया के शीर्ष डोपिंग नियम उल्लंघनकर्ताओं की सूची में तीसरे स्थान पर है. 19 प्रतिशत उल्लंघनों के साथ रूस का नाम इस सूची में सबसे ऊपर है, इसके बाद- 18 प्रतिशत उल्लंघनों के साथ- इटली का स्थान है. इस रिपोर्ट में साल 2013 और 2019 के बीच दर्ज किए गए डोपिंग रोधी नियमों के उल्लंघन को संकलित किया गया है.

खेलों की दुनिया में डोपिंग शब्द का अर्थ है ‘पदक वाले प्रमुख प्रतियोगिताओं से पहले अवैध/प्रतिबंधित पदार्थों का सेवन करके या तो अधिक बलिष्ठ मांसपेशियों का निर्माण करना या मांसपेशियों की थकान को सीमित करना, या किसी विशेष विधा में किसी खिलाड़ी के प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए उसके हार्मोनल परिवर्तन को प्रभावित करना. अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति (इंटरनेशनल ओलिंपिक कमिटी – आईओसी) द्वारा साल 1999 में एक स्वतंत्र निकाय के रूप में स्थापित, वाडा को ‘डोपिंग-मुक्त खेल सुनिश्चित करने के लिए विश्वव्यापी आंदोलन’ का नेतृत्व करने का काम सौंपा गया था.

भारत में, खेलों से संबधित डोपिंग का मामला पहली बार साल 1986 में तब सुर्ख़ियों में आया जब सियोल में आयोजित 10वें एशियाई खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन भारोत्तोलकों और एक मुक्केबाज़ को डोपिंग के लिए सकारात्मक परीक्षण परिणाम के बाद प्रतिबंधित कर दिया गया था.

इसके लगभग चार दशक बाद, भारत का डोपिंग रोधी तंत्र अभी भी कम संख्या में होने वाले परीक्षण, एथलीटों, कोचेज और प्रशिक्षकों के बीच जागरूकता की भारी कमी, और एक पर्याप्त रूप से सख़्त कानून की अनुपस्थिति से अप्रभावी सा बना हुआ है.

खेलों की दुनिया से जुड़े प्रमुख भारतीय नाम जो वर्तमान में डोपिंग प्रतिबंध/निलंबन का सामना कर रहे हैं, उनमें जिमनास्ट दीपा कर्मकार, स्प्रिंटर (धावक) एस धनलक्ष्मी, ट्रिपल जम्पर ऐश्वर्या बाबू, चक्का फेंक खिलाड़ी (डिस्क्स थ्रोअर) कमलप्रीत कौर और भाला फेंक खिलाड़ी (जेवलिन थ्रोअर) शिवपाल सिंह शामिल हैं.

भारत सरकार ने खेलों में डोपिंग से संबंधित मामलों से निपटने के लिए साल 2005 में राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी (नेशनल एंटी डोपिंग एजेन्सी-नाडा) का गठन किया था, लेकिन इस निकाय को अपना पहला पूर्णकालिक महानिदेशक (डीजी) और मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) साल 2016 में ही मिला.

दिप्रिंट के साथ बात करते हुए नाडा की मौजूदा सीईओ और डीजी रितु सैन ने कहा कि इस निकाय ने डोपिंग के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव किया है. उन्होंने कहा, ‘यह पहली बार हो रहा है कि हमने डोपिंग में लिप्त कोच के खिलाफ कार्रवाई की है. समय बदल रहा है और हम सही दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं.’

सैन मुंबई के एथलेटिक्स कोच मिकी मेनेजेस के मामले का जिक्र कर रहीं थीं, जिन पर नाडा ने पिछले साल नवंबर में स्प्रिंटर कीर्ति भोइते को स्टेरॉयड का इंजेक्शन देने के लिए चार साल का प्रतिबंध लगाया था. भोइट पर साल 2020 में चार साल का प्रतिबंध लगाया गया था, जिसे बाद में कम कर दिया गया था.

पिछले साल अगस्त में, संसद ने राष्ट्रीय डोपिंग रोधी विधेयक, 2021 पारित किया, जो एंटी-डोपिंग नियमों के उल्लंघनों का दोषी पाए जाने पर एथलीटों या कोचों के खिलाफ अयोग्यता की कार्यवाही किया जाना और वित्तीय प्रतिबंध लगाया जाना सुनिश्चित करता है.

ओलंपिक पदक विजेता भारोत्तोलक मीराबाई चानू के कोच विजय शर्मा ने खेलों में होने वाली डोपिंग और इसे रोकने में नाडा की भूमिका पर बात करते हुए दिप्रिंट को बताया, ‘जागरूकता कार्यक्रमों के मामले में नाडा अच्छा काम कर रहा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाले खिलाड़ी तो डोपिंग के उल्लंघन और इससे जुड़े नियमों से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर जागरुकता शिविरों की संख्या बढ़ाना जरूरी है.’

उन्होंने कहा: ‘मेरा यह भी मानना है कि जागरूकता से ज्यादा खिलाड़ियों, कोचों आदि के मामले मे डोपिंग के खिलाफ कड़े कानूनों की जरूरत है, ताकि वे कानून से डरें. अभी इस अपराध के परिणाम भुगतने का डर ही गायब है.’

यह पूछे जाने पर कि कौन से चीज़ एथलीटों को डोपिंग की ओर आकर्षित करती है, शर्मा ने कहा कि खिलाड़ी ‘इसका (प्रतिबंधित प्रदर्शन-बढ़ाने वाली दवा का) उपयोग एक शॉर्टकट के रूप में करते हैं, ख़ासकर तव जब या तो वे अच्छी तरह से प्रशिक्षित नहीं होते हैं या उनमें स्वाभाविक रूप से कुछ क्षमताओं/ कौशल की कमी होती है.’

उन्होंने आगे कहा: ‘डोपिंग से आपको कुछ ऐसे परिणाम मिल सकते हैं जो मानवीय सीमाओं से भी परे हैं. इस प्रकार, यदि कोई खिलाड़ी अपने पिछले रिकॉर्ड से कहीं बेहतर प्रदर्शन करता है, तो हम सिर्फ़ ताली ही नहीं बजाते, बल्कि डोपिंग के लिए उस पर संदेह भी करते हैं. फिलहाल तो यही स्थिति है.’


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टेस्टिंग पूल और परीक्षण में आने वाली लागत

परीक्षण का कम संख्या में होना भारत के डोपिंग रोधी तंत्र के प्रमुख लक्षणों में से एक है. वाडा की साल 2019 की एडीआरवी रिपोर्ट के अनुसार, नाडा एक वर्ष में लगभग 4,004 नमूनों का ही परीक्षण करता है.

एडीआरवी के डेटा में मूत्र (पेशाब) और रक्त (खून) दोनों के नमूनों से किए गये परीक्षण शामिल होते हैं.

Illustration: Soham Sen | ThePrint
चित्रण: सोहम सेन | दिप्रिंट

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में डोपिंग के सबसे ज्यादा मामले बॉडीबिल्डिंग में दर्ज किए जाते हैं, इसके बाद भारोत्तोलन, एथलेटिक्स और कुश्ती का नंबर आता है.

इसके बारे में हमने अशोक आहूजा, जिन्होंने राष्ट्रीय खेल संस्थान (नेशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स – एनआईएस) पटियाला में खेल चिकित्सा और विज्ञान विभाग के प्रमुख के रूप में तीन दशकों से अधिक समय तक सेवा की है, से बात की.

उन्होंने कहा, ‘परीक्षण के लिए केवल 4,000 नमूने लिया जाना बहुत कम संख्या है, खासकर तब जब घरेलू स्तर की प्रतियोगिताओं में भी हमारे पास लगभग 2,000 प्रतिभागी प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं.’

आहूजा ने कहा: ‘हम खेलो इंडिया-स्तर के प्रारंभिक रूप में भी डोपिंग के मामलों को देखते हैं, जहां स्कूल जाने वाले बच्चों को डोपिंग से जुड़े उत्पादों का उपयोग करते हुए पाया गया है. इसी कारण से टेस्टिंग पूल को बढ़ाना और घरेलू स्तर की प्रतियोगिताओं में भी इसका विस्तार करना महत्वपूर्ण है. समस्या यह है कि राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं या जमीनी स्तर की प्रतियोगिताओं में परीक्षण या तो बहुत कम संख्या में या लगभग नगण्य मात्रा में होते है.’

आहूजा के अनुसार, ज्यादातर मामलों में, एथलीट एंटी-डोपिंग नियमों के उल्लंघनों के बारे में पूरी तरह से जानते हैं, फिर भी एक बड़ी प्रतियोगिता जीतने के साथ मिलने वाले अतिरिक्त लाभ की वजह से यह जोखिम उठाते हैं. चूंकि फिलहाल भारत में खेल-कूद की दुनिया फलफूल रही है और एक सुरक्षित नौकरी से लेकर बड़ी पुरस्कार राशि तक के प्रोत्साहन मौजूद है, इसलिए खिलाड़ी शॉर्टकट वाली राह चुनते हैं.’

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में स्थित, नेशनल डोपिंग टेस्ट लेबोरेटरी (एनडीटीएल) वाडा से मान्यता प्राप्त एशिया की छह प्रयोगशालाओं में से एक है. हालांकि, टेस्ट रिज़ल्ट्स में पाई गई विसंगतियों और इसके मानकों का अनुपालन नहीं करने के कारण साल 2019 में वाडा द्वारा एनडीटीएल को ही निलंबित कर दिया गया था.

आहूजा बताते हैं कि इससे भारतीय एथलीटों के लिए होने वाले परीक्षण की लागत बढ़ गई, क्योंकि उन्हें अपने नमूने दोहा स्थित वाडा से मान्यता प्राप्त प्रयोगशाला में भेजने होते थे.

नमूनों के पहले बैच के परीक्षण की लागत का खर्च आम तौर पर नाडा द्वारा उठाया जाता है, लेकिन यदि किसी एथलीट के परीक्षण का परिणाम सकारात्मक आता है और वह इसकी पुष्टि के लिए एक और परीक्षण करवाना चाहता है, तो उस एथलीट को बाद के परीक्षणों का स्वयं खर्च वहन करना होता है. पहले, परीक्षण के लिए मूत्र के नमूने एकत्र किए जाते थे, लेकिन अब, तकनीक में हुई प्रगति के साथ, एथलीटों को रक्त के नमूने जमा करने होते हैं.’

आहूजा कहते हैं कि इसी वजह से एंटी-डोपिंग टेस्ट ड्राइव के तहत हर एथलीट और हर प्रतियोगिता को कवर करना संभव नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘ओलंपिक इवेंट (ओलंपिक में शामिल खेलों) शामिल 10-11 हजार खिलाड़ियों में से भी सिर्फ़ 500-600 के सैंपल लिए जाते हैं. इसलिए विचार यह है यदि सभी को कवर नहीं किया जा सकता है तो कि कम से कम टेस्टिंग पूल का तो विस्तार किया जाए.’

खेल पोषण कंपनी फिटकार्ट.कॉम के मालिक राज मखीजा – जो भारतीय खेल संघों, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई), इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) और हॉकी टीमों को उच्च गुणवत्ता वाले और पहले से परीक्षण किए गए उत्पादों का आयात और आपूर्ति करते हैं – के अनुसार, ‘विदेश से आने वाले पूरक आहार (सप्लीमेंटस) को तीसरे पक्ष के परीक्षण रिपोर्ट, विश्लेषण प्रमाणपत्रों की सहायता से अच्छी तरह से जांचा-परखा जाता है, लेकिन स्थानीय रूप से बने उत्पादों को उनकी सुरक्षा और प्रभावकारिता की जांच के बिना ही छोड़ दिया जाता है.’

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘कोई भी केवल फुड सेफ्टी एंड स्टैंडर्डस अथॉरिटी ऑफ इंडिया -एफएसएसएआई (भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण) से मिले लाइसेंस – जो एक वर्ष के लिए मात्र 7,500 रुपये के शुल्क पर और 10 से 15 दिनों के भीतर ही प्रदान कर दिया जाता है, के साथ स्थानीय सप्लीमेंट की दुकान खोल सकता है और उसका मालिक बन सकता है.’

जागरूकता की कमी और ‘गलत टेस्ट रिजल्ट’

नाडा में एक एंटी-डोपिंग डिसिप्लिनरी पैनल (डोपिंग रोधी अनुशासनात्मक पैनल) और एक एंटी-डोपिंग अपील पैनल ( डोपिंग रोधी अपील पैनल) शामिल हैं. अपील पैनल वह सर्वोच्च निकाय है जहां कोई भी भारतीय एथलीट अनुशासनात्मक पैनल द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के खिलाफ अपील कर सकता है.

नाडा के साल 2021 डोपिंग रोधी नियमों के अनुसार, अनुशासनात्मक पैनल द्वारा पारित आदेश के 21 दिनों के भीतर ही कोई भी खिलाड़ी/कोच/ट्रेनर अपील दायर कर सकता है. अपील पैनल को आदेश देने की तारीख के तीन महीने के भीतर सुनवाई पूरी करनी होगी.

अगर अपीलकर्ता अपील पैनल के फ़ैसले से भी संतुष्ट नहीं है, तो वह स्विट्ज़रलैंड स्थित मुख्यालय वाले कोर्ट ऑफ़ आर्बिट्रेशन फ़ॉर स्पोर्ट्स (सीओएएस) – खेल-संबंधी मुद्दों को निपटाने के लिए सर्वोच्च अंतरराष्ट्रीय निकाय जिसे साल 1984 में स्थापित किया गया था – में अपील कर सकता/सकती है.

अक्सर यह देखा गया है कि डोपिंग में पकड़े जाने पर, खिलाड़ी सारा का सारा दोष अपने कोच या ट्रेनर या पूरक आहार के आपूर्तिकर्ताओं पर डाल देते हैं. अक्टूबर 2022 में, जब चक्का फेंक खिलाड़ी कमलप्रीत कौर पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, तो उसने अपने डोपिंग परीक्षण के सकारात्मक होने लिए अपनी पूरक खुराक को ही दोषी ठहराया. बाद में, कौर ने खुद के द्वारा नियमों के उल्लंघन की बात को स्वीकार किया और फिर उन पर लगा प्रतिबंध कम कर दिया गया.

खेल मामलों के विशेषज्ञ वकील सौरभ मिश्रा ने कहा, ‘यह सच है कि कई बार एथलीट अपने प्रदर्शन को बढ़ावा देने के लिए ड्रग्स लेते हैं, और यहां तक कि कोच भी इसमें उनका समर्थन करते हैं; लेकिन निचले स्तर पर, कई राष्ट्रीय खिलाड़ियों को डोपिंग उल्लंघन के बारे में पता भी नहीं होता है.’

उन्होंने कहा: ‘मैंने कुछ ऐसे एथलीटों का प्रतिनिधित्व किया है, जिन्होंने कभी भी एंटी-डोपिंग जागरूकता शिविरों में भाग ही नहीं लिया था, और अनजाने में ही वाडा सूची के तहत निषिद्ध पदार्थ खाने के बाद उनका सकारात्मक परीक्षण निकला था. इतना ही नहीं, कभी-कभी स्वयं नाडा के टेस्ट रिजल्ट भी गलत होते हैं.’

ऐसा ही मामला फेंसर (तलवारबाज) चुन्नी लाल और चक्का फेंक खिलाड़ी धर्मराज यादव का है, जिन दोनों को डोपिंग के लिए सकारात्मक परीक्षण के बाद साल 2019 में नाडा द्वारा चार साल के लिए प्रतिबंधत कर दिया गया था. एक साल बाद उन पर लगे प्रतिबंध तब हटा लिया गया, जब वही नमूने वाडा को परीक्षण के लिए भेजे गए और उनके टेस्ट रिजल्ट नकारात्मक आए. लेकिन तब तक ये दोनों खिलाड़ी अपने करियर का एक अहम साल गंवा चुके थे.

एडवोकेट मिश्रा, जिन्होंने इन दोनों ही एथलीटों का प्रतिनिधित्व किया था , ने कहा, ‘उनके नुकसान की भरपाई कौन करेगा? नाडा की लापरवाही के कारण बर्बाद हुए करियर के एक साल के बारे में क्या? जिस क्षण किसी खिलाड़ी का डोपिंग के लिए किया गया टेस्ट सकारात्मक आता है, उसी पल से उनके महासंघ उन्हें अपनी मनोवैज्ञानिक लड़ाई लड़ने के लिए अकेला छोड़ देते हैं. आदर्श परंपरा तो उन्हें कानूनी रूप से, या कम से कम चिकित्सकीय रूप से ही, इस मुद्दे से निपटने में सहायता प्रदान करना है.’

एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के ट्रिपल जम्पर का भी मामला सामने आया है, जिसने दावा किया है कि उसने अपने डॉक्टर द्वारा अनुशंसित दवाएं लीं, जिसके परिणामस्वरूप डोपिंग के लिए उसका परीक्षण सकारात्मक रहा, और इस वजह से उस पर चार साल का प्रतिबंध लगाया गया है. इस ट्रिपल जम्पर – जो अपना नाम उजागर नहीं करना चाहतीं – का नाडा के अपील पैनल एडीएपी के समक्ष प्रतिनिधित्व कर रहे एडवोकेट मिश्रा कहते हैं, ‘हमने अपील की है कि वह अपनी बीमारी के लिए जो दवा ले रही थी, उसमें प्रतिबंधित पदार्थ था और उसने जानबूझकर इसे अपने प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए नहीं लिया.’

वाडा के दिशानिर्देशों में एक चिकित्सीय उपयोग छूट (थेरप्यूटिक यूज एक्सेम्पशन -टीयूई) का नियम शामिल है, जो किसी एथलीट को किसी बीमारी का इलाज करने के लिए वाडा द्वारा निषिद्ध पदार्थ वाली दवा लेने/उपयोग करने की अनुमति देता है.

एडवोकेट मिश्रा ने इसे कुछ इस तरह से समझाया, ‘चूंकि अधिनियम और कानून के तहत, एथलीट द्वारा टीयूई फॉर्म नहीं भरने के लिए उसकी अज्ञानता को ध्यान में नहीं रखा जा सकता है, इसलिए भले ही कोई खिलाड़ी दावा करता हो कि उसे अपने कानूनी अधिकारों और दायित्वों के बारे में पता नहीं था, इसे एक तर्क नहीं माना जाएगा. स्कूल/विश्वविद्यालय या राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों की तुलना में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ी ऐसी गलतियों के प्रति कम ख़तरे में होते हैं.’

उनका नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट से बात करने वाले एक राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी ने कहा, ‘भले ही नाडा के पास ये पैनल हैं, मगर मैं अपने कानूनी अधिकारों से अनजान हूं. खेलों की दुनिया में कानून को लेकर कोई गहन जागरूकता नहीं है, और हम खिलाड़ी तो ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं कि हममें से ज्यादातर लोग इतने पढ़े-लिखे भी नहीं होते हैं. जैसे कि मुझे बिल्कुल भी नहीं पता है कि प्रतिबंधित पदार्थों वाली दवा लेने के लिए टीयूई जैसा कोई फॉर्म जमा करना होगा या नहीं.’

लेकिन, एडवोकेट मिश्रा के अनुसार, इससे भी बड़ी समस्या यह है कि ऐसे ‘मामलों को हल करने में कई बार एक या दो साल लग जाते हैं, जबकि वाडा के दिशानिर्देशों के अनुसार, उन्हें तीन महीने के भीतर ही सुलझाया जाना चाहिए.’

वे पूछते हैं, ‘एथलीटों के भविष्य के बारे में क्या?’

समाधान: लक्षित परीक्षण और कड़े कानून

नाडा (2016-2021) के पूर्व डीजी और सीईओ रहे आईपीएस अधिकारी नवीन अग्रवाल ने दि प्रिंट को बताया कि जब उन्होंनें यह मामला संभाला, तो उन्होंने डोपिंग के मामलों की अधिक संरचनात्मक रूप से पहचान करने के लिए एक जांच तंत्र पेश किया.

उन्होंने कहा: ‘इतना ही नहीं, हमने अपने ड्रग कंट्रोल अधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए अपने ऑस्ट्रेलियाई समकक्षों के साथ सहयोग किया, और पूरे सिस्टम में व्यवस्थित परीक्षण प्रक्रियाओं को भी लागू किया. हमने बीसीसीआई को भी नाडा के दायरे में ला दिया.’

वहीं एडवोकेट मिश्रा के अनुसार, नाडा को लक्षित परीक्षण का रास्ता अपनाना चाहिए. यह एक किफायती तरीका साबित हो सकता है, और यदि एजेंसी का ध्यान ऐसे कार्यक्रमों पर रहे जिनमें उच्च राशि वाले नकद पुरस्कार या नौकरी जैसे लाभ या बड़े स्तर के पदक की संभावनाएँ शामिल हैं, तो यह स्वच्छ प्रतियोगिताओं के आवोजन के इसके लक्ष्य को प्राप्त करने में भी मदद करेगा.

इस बीच, सैन ने कहा कि नाडा की इस महीने के अंत तक ‘नो योर मेडिसिन’ नाम से एक मोबाइल ऐप लॉन्च करने की योजना है, जहां कोई भी एथलीट किसी भी दवा का नाम टाइप कर सकता है, और यह जान सकता है कि इसमें कोई प्रतिबंधित पदार्थ है या नहीं.

दिसंबर 2022 में, नाडा ने हैदराबाद और शिलांग के नवोदय विद्यालयों के शारीरिक शिक्षा शिक्षकों के लिए एंटी-डोपिंग प्रशिक्षण-सह-जागरूकता शिविर का आयोजन किया था. इस साल की शुरुआत में, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसईआईआरटी) और नाडा ने शिक्षकों और छात्रों के बीच भी एंटी डोपिंग नियमों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए मूल्य-आधारित खेल शिक्षा शुरू करने के बारे में एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे.

इसके अलावा, नाडा – सप्लीमेंट्स के उपयोग पर नज़र रखने के अपने प्रयास के एक हिस्से के रूप में – एफएसएसएआई, गांधीनगर स्थित नेशनल फॉरेंसिक साइंसेज यूनिवर्सिटी और हैदराबाद स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ार्मास्यूटिकल एजुकेशन एंड रिसर्च के साथ मिलकर भी काम कर रहा है, ताकि सप्लीमेंट्स की प्रतिबंधित पदार्थों के लिए बेहतर तरीके जांच करने की क्षमता विकसित की जा सके.

नाडा अपने पैनलों के समक्ष विचार के लिए आने वाले मामलों में हो रही देरी को भी ठीक भी काम कर रहा है. सैन का दावा है कि पिछले साल आए इस तरह के ज्यादातर मामलों को तीन महीने के भीतर सुलझा लिया गया था. साथ ही उन्होंने कहा कि नाडा डोपिंग के और अधिक मामलों का पता लगाने तथा एंटी-डोपिंग अभियानों को अधिक आक्रामक तरीके से लॉन्च करने में सक्षम होने के लिए अपनी जनशक्ति में विस्तार करने की भी कोशिश कर रहा है.

सैन के मुताबिक, ‘डोपिंग दो तरह की होती है- जानबूझकर और अनजाने में. जानबूझकर की गई डोपिंग के लिए कड़ी कार्रवाई की जरूरत है, जो हम कर रहे हैं. लक्षित परीक्षण और अधिक संख्या में परीक्षण हमारी रणनीति रही है.’

उन्होंने कहा, ‘जब हम अनजाने में की गई डोपिंग के बारे में बात करते हैं, तो इसका मतलब यह है कि कोई खिलाड़ी अनजाने में कोई प्रतिबंधित पदार्थ ले लेता है. हमने एथलीटों को सही जानकारी और जागरूकता पहल के साथ सशक्त बनाने के लिए एक गहन शिक्षा कार्यक्रम शुरू किया है. हमारे पास एथलीटों, कोचों और संघों से जुड़े 100 से अधिक शैक्षिक कार्यक्रम हैं.’

इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक्स फेडरेशन साल 1928 में ही डोपिंग पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला अंतरराष्ट्रीय खेल निकाय बन गया था, लेकिन साइकिलिंग और फ़ुटबॉल जैसे खेलों के लिए ज़िम्मेदार विश्व स्तर के प्रशासी निकायों ने साल 1966 में जाकर अपने से संबंधित विश्व चैंपियनशिप में डोपिंग परीक्षण शुरू किया था.

इसके बाद, दुनिया भर से सामने आए प्रमुख डोपिंग घोटालों, जैसे 1998 में हुआ टूर डी फ्रांस ड्रग स्कैंडल, ने डोपिंग पर अंकुश लगाने के लिए किए जाने वाले प्रयासों को तेज़ी दी, जिसके कारण वाडा के रूप में एक स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय एजेंसी का गठन हुआ.

साल 2016 में, जर्मनी ने एक एंटी-डोपिंग विधेयक पारित किया, जिसमें खेल में की जाने वाली डोपिंग को आपराधिक घोषित किया गया था, और लिए गये प्रतिबन्धित पदार्थ के प्रकार के आधार पर तीन से 10 साल तक की सजा निर्धारित की गई थी.

अमेरिकी सीनेट ने साल 2020 में एक एंटी-डोपिंग विधेयक पारित किया, जो अधिकारियों को कोच, अधिकारियों, या आपूर्तिकर्ताओं सहित डोपिंग रैकेट में शामिल सभी लोगों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू करने की अनुमति देता है, भले ही वे अनिवासी अमेरिकी हों या डोपिंग अमेरिका के बाहर हुई हो. हालांकि, यह कानून एथलीटों को निशाना बनाने का इरादा नहीं रखता है, बल्कि यह उनपर केंद्रित है जो उन्हें प्रतिबंधित खुराक लेने की सुविधा प्रदान करते हैं.

जहां तक भारत की बात आती है, तो एडवोकेट मिश्रा का कहना है कि एंटी-डोपिंग एक्ट, 2022 नियमों का उल्लंघन करने वालों पर नकेल तो कसता है, लेकिन इस खतरे के समाप्त होने में तब तक का अधिक समय लगेगा, जब तक कि डोपिंग को आपराधिक बनाने के लिए और कड़े कानून नहीं बनाए जाते.’

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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