नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बीते 13 अप्रैल को एक अहम फैसला सुनाया था कि जिन मामलों में जांच लंबित हो उनमें उच्च न्यायालयों को ऐसे अंतरिम आदेश पारित करने से बचना चाहिए जो पुलिस को गिरफ्तारी या किसी तरह की दंडात्मक कार्रवाई से रोकते हों. हालांकि, इसके बाद भी चार महीनों में इलाहाबाद और उत्तराखंड हाई कोर्ट ने 300 से अधिक मामलों में सुप्रीम कोर्ट का आदेश दरकिनार कर निर्देश जारी किए हैं.
ऐसे ही एक अंतरिम आदेश में एक हाई कोर्ट ने एक आपराधिक मामले में आरोपी की तरफ से दायर किए गए आवेदन को न केवल खारिज किया बल्कि आरोपी को अग्रिम जमानत के लिए ट्रायल कोर्ट वापस भेजने के बजाये खुद ही कोई ‘दंडात्मक कार्रवाई’ न किए जाने का आदेश भी पारित कर दिया.
यह निर्देश मुख्य तौर पर आरोपी को तब तक गिरफ्तारी से बचाने के लिए था जब तक कि उसकी तरफ से जमानत के लिए उपयुक्त अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जाता.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने 23 अगस्त को इस बात पर नाराजगी जताई थी कि दो हाई कोर्ट ‘अपने विवेक का इस्तेमाल किए बगैर एक के बाद एक आदेश पारित कर रहे हैं.’
अप्रैल के अपने फैसले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि दोनों हाई कोर्ट लगातार ऐसे निर्देश जारी कर रहे हैं, जबकि उन्हें आदेश दिया गया था कि अपनी शक्तियों के इस्तेमाल में संयम बरतें.
यह टिप्पणी उस समय की गई जब शीर्ष अदालत उत्तराखंड हाई कोर्ट के एक आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रही थी. हाई कोर्ट ने अपने आदेश में आरोपी को आत्मसमर्पण करने के लिए समय दिया था और साथ ही ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया था कि जिस दिन उसकी तरफ से आवेदन किया जाए, उसी दिन वह उसकी जमानत याचिका पर फैसला करे.
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सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में क्या कहा?
जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस शाह और जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अपने 13 अप्रैल के फैसले में विशेष तौर पर कहा था कि किसी मामले में जब कोई जांच चल रही हो और तथ्यों से जुड़ी पूरी जानकारी संबंधित हाई कोर्ट के सामने उपलब्ध नहीं हो, तो उसे आरोपियों की गिरफ्तारी पर रोक या पुलिस को कोई ‘दंडात्मक कार्रवाई’ करने से रोकने जैसे अंतरिम आदेश पारित करने से बचना चाहिए.
कोर्ट ने कहा कि किसी भी आरोपी को केवल अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने को कहा जाना चाहिए. पीठ के मुताबिक, जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती या अंतिम चार्जशीट दाखिल नहीं हो जाती, तब तक उच्च न्यायालयों की तरफ से कोई निर्देश पारित करना ‘उचित’ नहीं होगा.
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने आगे कहा कि यदि हाई कोर्ट को प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि यह मामला असाधारण तौर पर आगे की जांच अंतरिम तौर पर स्थगित करने से इतर है तो उसे विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए और उसका कारण देना चाहिए.
फैसले में आगे कहा गया था कि जब भी हाई कोर्ट की तरफ से निर्धारित मानदंडों के अनुरूप ऐसा कोई अंतरिम आदेश जारी किया जाता हो तो उसे स्पष्ट करना चाहिए कि ‘दंडात्मक कार्रवाई’ पर रोक से उसका आशय क्या है क्योंकि इस शब्द के मायने बहुत व्यापक हैं और इसे गलत तरह से कुछ समझा या गलत तरीके से लागू किया जा सकता है.
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हाई कोर्ट के आदेश ‘जबरन कार्रवाई न करने’ की कोई व्याख्या नहीं करते
दो हाई कोर्ट में 13 अप्रैल से 23 अगस्त के बीच पारित आदेशों को देखने से पता चलता है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 190 से अधिक मामलों में इस तरह के निर्देश जारी किए, जबकि उत्तराखंड हाई कोर्ट ने 125 से अधिक मामलों में ऐसा किया.
ये सभी आदेश मामला रद्द करने संबंधी दो तरह की याचिकाओं पर जारी किए गए है- जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 और संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर हुईं- जिसमें हाई कोर्ट को उच्च अदालत की हैसियत (जब कोई हाई कोर्ट निचली अदालत में चल रहे किसी मामले की समीक्षा करती है) से जानकारी मांगने के अलावा बंदी प्रत्यक्षीकरण (किसी व्यक्ति को गैरकानूनी हिरासत से रिहा कराने के लिए दायर रिट) या परमादेश (किसी निचली अदालत को निर्देश जारी करना या किसी व्यक्ति को सार्वजनिक या वैधानिक कर्तव्य निभाने का आदेश देना) के तहत कोई निर्देश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार मिला हुआ है.
जिन सब मामलों में हाई कोर्ट की तरफ से ऐसे आदेश पारित किए गए, उनमें पुलिस को या तो अपनी जांच पूरी करनी थी या आरोपपत्र दाखिल करना बाकी थी. इसलिए, कोई ‘सख्त कदम नहीं उठाने’ का हाई कोर्ट के निर्देश याचिकाकर्ता के सहयोग का विषय बन जाता है.
हालांकि, ज्यादातर मामलों में ‘कोई सख्ती नहीं’ की अवधि व्यापक थी क्योंकि आदेशों में यह निर्दिष्ट नहीं किया गया था कि पुलिस कब तक गिरफ्तारी के लिए कार्रवाई शुरू नहीं कर सकती. बहुत कम मामलों- कुल आदेशों के लगभग एक-चौथाई में अदालत ने संकेत दिया था कि सिर्फ अगली सुनवाई तक गिरफ्तारी पर रोक लगाई गई है.
दोनों हाई कोर्ट की तरफ से ऐसे मामलों में भी ‘जबरन कोई कार्रवाई नहीं’ करने के आदेश जारी किया, जिनमें हत्या के प्रयास, गंभीर रूप से चोट पहुंचाने, धोखाधड़ी और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम जैसे गंभीर अपराधों के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी.
इसके अलावा, दोनों ही कोर्ट ने अपने किसी भी आदेश में यह स्पष्ट नहीं किया कि उनकी तरफ से इस्तेमाल ‘कोई दंडात्मक कदम या उपाय’ न किए जाने के निर्देश का आशय क्या है.
यद्यपि दोनों हाई कोर्ट ने सभी मामलों में अभियुक्तों को गिरफ्तारी से अंतरिम संरक्षण प्रदान किया, लेकिन उन्होंने याचिकाकर्ताओं के खिलाफ लंबित आपराधिक मामले को रद्द करने से इनकार कर दिया.
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अदालतों को ‘जबरन कार्रवाई’ जैसे शब्द के इस्तेमाल से बचना चाहिए
इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस गोविंद माथुर के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट का प्रत्येक आदेश संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत सभी हाई कोर्ट के लिए बाध्यकारी है.
जस्टिस माथुर ने दिप्रिंट को बताया, ‘मुझे इन दोनों हाई कोर्ट की तरफ से पारित आदेशों की प्रकृति के बारे में पता नहीं है लेकिन स्पष्ट तौर पर मेरा यही मानना है कि आपराधिक मामलों की अदालतों को जबरन कार्रवाई जैसे शब्द का इस्तेमाल बंद करना चाहिए क्योंकि यह काफी अस्पष्ट है और इसका दुरुपयोग होने की संभावना रहती है.’
उनके मुताबिक, यह शब्द आपराधिक न्यायशास्त्र से अलग था और कुछ साल पहले तक इसका इस्तेमाल केवल टैक्स संबंधी मामलों में ही किया जाता था.
जस्टिस माथुर ने अदालतों की तरफ से ‘तर्कसंगत आदेश’ नहीं सुनाए जाने के चलन की भी निंदा की.
उन्होंने कहा, ‘किसी भी न्यायिक आदेश का तर्कसंगत होना जरूरी है. अपवाद हो सकते हैं लेकिन केवल उन मामलों में जहां अदालत को लगता है कि किसी आदेश में कारणों का खुलासा पुलिस जांच को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित कर सकता है.’
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