नई दिल्ली: भारत और विदेशों के संरक्षणवादियों ने देश में अफ्रीकी चीतों के स्थानान्तरण को लेकर चिंता जताई है. नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन पत्रिका में बुधवार को प्रकाशित हुए एक पत्र में पांच देशों के कंजर्वेशनिस्ट ने इस प्रोजेक्ट को ‘महंगा’ बताया और कहा कि यह ‘पारिस्थितिकी के अनुरूप नहीं’ है. साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि प्रोजेक्ट ‘चीता और अन्य साइंस-बेस्ड संरक्षण के वैश्विक प्रयासों में मदद करने के बजाय उसे भटकाने के तौर पर काम कर सकता है.’
17 सितंबर को नामीबिया से आठ चीतों को भारत लाया गया और स्वतंत्र तौर पर देश में उनकी आबादी बढ़ाने के इरादे से मध्य प्रदेश के कुनो नेशनल पार्क में छोड़ दिया गया. भारत में एशियाई चीता के विलुप्त होने के 70 साल बाद फिर से उन्हें वापस लाने की कवायद की गई है.
इस योजना को तैयार करने में दशकों लग गए. सरकार ने कहा कि स्थानांतरण विश्व स्तर पर कम होते जा रहे चीता के संरक्षण और भारत के घास के मैदान के पारिस्थितिकी तंत्र को बेहतर बनाने का एक प्रयास है.
भले ही प्रोजेक्ट से जुड़े नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका के विशेषज्ञ इसके परिणामों को लेकर आशावादी हों, लेकिन इस पर दुनिया भर के संरक्षणवादी की राय अलग-अलग है. इनमें से कई को लगता है कि संभावित लाभों की बजाय इसमें जोखिम की संभावना ज्यादा है.
नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित पत्र पर दक्षिण अफ्रीका, पुर्तगाल, नीदरलैंड, ऑस्ट्रेलिया और भारत के 13 संरक्षणवादियों के हस्ताक्षर हैं. इसके मुताबिक, स्थानान्तरण योजना ‘अप्रमाणित’ दावों पर आधारित है कि अफ्रीका में चीतों के लिए जगह खत्म होती जा रही है और भारत के पास उनके रहने के लिए पर्याप्त जगह है. उन्होंने ‘संरक्षण स्थानान्तरण सफल रहे हैं’ जैसे दावों पर भी सवाल उठाया है.
मौजूदा समय में कुनो नेशनल पार्क 748 वर्ग किमी में फैला है और शुरुआत में 20 चीतों की मेजबानी करेगा. आठ नामीबियाई चीतों के अलावा भारत इस साल के खत्म होने से पहले दक्षिण अफ्रीका से 12 और चीतों का आयात कर सकता है. ऐसी उम्मीद है.
चीतों को बाड़े में तब तक रखा जा रहा है जब तक कि वे अपने नए आवास के लिए अभ्यस्त नहीं हो जाते. भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा तैयार चीता कार्य योजना के अनुसार, फिर उन्हें जंगल में छोड़ दिया जाएगा.
पत्र में लिखा है, ‘नामीबिया से लाकर बेड़े में रखे गए चीतों को जल्द ही आजाद कर उस जगह पर रिलोकेट करने की तैयारी की जा रही है, जहां औसत मानव जनसंख्या घनत्व 150 गुना ज्यादा है. हमारे अनुमान के मुताबिक, इस तरह के आनुमानिक और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाने से मानव-चीता संघर्ष, लाए गए चीतों की मौत या फिर दोनों का कारण बन सकती है. यह विश्व स्तर पर और भारत के भीतर चल रहे प्रजातियों को बचाने के अन्य साइंस-बेस्ड प्रयासों को कमजोर कर देगा.’
लेखक वैश्विक चीता संरक्षण प्रयासों पर खर्च किए जा रहे फंड को कहीं और मोड़ने की सलाह देते हैं. जैसे ईरान में, जहां चीतों की आबादी घट रही है या मौजूदा योजना को ‘मौलिक रूप से संशोधित’ करने के लिए, जब तक कि भारत चीतों की मेजबानी के लिए बेहतर तरीके से अनुकूल न हो जाए.
पत्र में कहा लिखा गया है, ‘हम मानते हैं कि इस तरह के अंतरमहाद्वीपीय, बड़े कार्निवोर जानवरों के स्थानांतरण प्रयासों के उद्देश्य और अभ्यास का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए IUCN और चीता व कार्निवोर जीव वैज्ञानिकों के व्यापक समुदाय जैसे अंतरराष्ट्रीय निकायों की तत्काल आवश्यकता है.’
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‘बांबी लवर्स के लिए नहीं’
स्थानांनतरण में शामिल अधिकारियों और संरक्षणवादियों ने कहा है कि वे कार्यक्रम के पहले कुछ सालों में उच्च मृत्यु दर की उम्मीद कर रहे हैं, लेकिन जनसंख्या स्थिर होने के बाद सकारात्मक परिणामों को लेकर काफी आशावादी हैं.
चीता कंजरवेशन फंड के लॉरी मार्कर ने पिछले महीने एक साक्षात्कार में दिप्रिंट को बताया था, ‘इस तरह का प्रोजेक्ट करना आसान नहीं है. हम हमेशा कहते हैं कि यह बांबी प्रेमियों के लिए नहीं है. यह बहुत, बहुत, बहुत मुश्किल है. यह उन लोगों के लिए भी मुश्किल है जो पुनर्निर्माण और पुनर्वास कर रहे हैं, और यह जानवरों के लिए भी बेहद मुश्किल है. लेकिन यह आदर्श रूप से बेहतर है क्योंकि यह किसी जानवर को विलुप्त होने से बचा रहा है.’
पूरी दुनिया में जंगल में 7,000 से भी कम वयस्क चीते बचे हैं और वे अब अपनी मूल सीमा के 9 प्रतिशत से भी कम जगह में रह रहे हैं.
कार्य योजना के अनुसार, अगर चीते जिंदा नहीं रह पाते हैं या पांच सालों में आबादी बढ़ाने में विफल होते हैं, या प्रोजेक्ट और अधिक चीतों को बसाने या फंडिंग पाने में सफल नहीं होता है, तो इसकी ‘वैकल्पिक रणनीतियों या फिर इसे बंद करने के लिए समीक्षा की जाएगी.’
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