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Friday, 22 November, 2024
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अफगानी राजदूत ने कहा, भारत गणतंत्र की ‘आड़’ में तालिबान के राजनयिक प्रतिनिधित्व को स्वीकार कर रहा 

फ़रीद मामुंडजे के अनुसार, इसका दोहरा उद्देश्य 'घरेलू हितधारकों को खुश करना और पारस्परिक सहयोग के लिए तालिबान की मांगों को पूरा करना' है. एमईए का कहना है कि दूतावास 'हमेशा की तरह' चालू है.

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नई दिल्ली : नई दिल्ली में अफगानी दूतावास पर अफ़ग़ान गणतंत्र के तीन रंगों वाले झंडे लहरा रहा है, लेकिन मिशन की दीवारों के भीतर, दो राजनयिकों का कहना है कि वे ‘फंसा हुआ’ महसूस कर रहे हैं. इस बीच, अभी लंदन में मौजूद राजदूत का दावा है कि भारत सरकार गणतंत्र की ‘आड़’ में तालिबान के प्रतिनिधित्व को स्वीकार कर रही है.

अफगानी राजदूत फरीद मामुंडजे ने दिप्रिंट को बताया, “गणतंत्र की आड़ में तालिबान प्रतिनिधित्व को स्वीकार करने का प्रस्ताव दोहरे उद्देश्य को पूरा करता है- घरेलू हितधारकों को खुश करना और पारस्परिक सहयोग के लिए तालिबान की मांग को पूरा करना.”

यह बयान मामुंडजे और भारतीय विदेश मंत्रालय (एमईए) द्वारा दूतावास बंद होने या न होने पर विरोधाभासी दावा करने के कुछ सप्ताह बाद आया है.

1 अक्टूबर को, मामुंडज़े ने मेजबान देश से “सपोर्ट की कमी” के कारण दूतावास को बंद करने की घोषणा की थी. चार दिन बाद विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इन दावों को खारिज कर दिया और कहा कि दूतावास अभी भी काम कर रहा है. हैदराबाद और मुंबई में अफगान महावाणिज्यदूत – जिन्हें पिछली अफगान लोकतांत्रिक सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था – ने विदेश मंत्रालय का समर्थन किया और राजदूत के बयान को “अस्वीकार” कर दिया.

हालांकि, दूतावास के एक सूत्र ने दिप्रिंट को बताया कि दूतावास वास्तव में बंद है. “मुख्य द्वार 1 अक्टूबर से बंद है. माली, सफाईकर्मी और रसोई कर्मचारी जैसे स्थानीय कर्मचारी राजदूत निवास के पिछले दरवाजे से प्रवेश कर रहे हैं. दो राजनयिक हैं, जिन्होंने दूतावास परिसर छोड़ने से इनकार कर दिया है.”

दिप्रिंट ने बुधवार को फोन कॉल के जरिए एमईए के प्रवक्ता अरिंदम बागची से बात की. उन्होंने अपने बयान को दोहराया कि मिशन ‘पहले की तरह’ काम कर रहा है, लेकिन मामुंडज़े के दावों पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

कार्यवाहक-वाणिज्य दूत सैयद मोहम्मद इब्राहिमखैल ने भी इसी बात को दोहराते हुए कहा: “मिशन में दो राजनयिक हैं. वे ऑपरेशन चला रहे हैं.”

हालांकि, मौजूदा दो अफगान राजनयिकों ने दिप्रिंट को बताया वे “फंसा हुआ” महसूस करते हैं क्योंकि विदेश मंत्रालय कथित तौर पर उन्हें निकलने का परमिट जारी नहीं कर रहा है. मामुंडज़े का कहना है कि यह राजनयिक मानदंडों से विचलित होना है.

दिप्रिंट ने इन दावों की पुष्टि के लिए बागची से संपर्क किया और उसे गृह मंत्रालय (एमएचए) के पास रिडायरेक्ट कर दिया गया. जिसने इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने के समय तक ईमेल का जवाब नहीं दिया था.

अगस्त 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से, राजनयिक पासपोर्ट धारकों समेत अफगान नागरिकों को कथित तौर पर देश में प्रवेश करने या प्रस्थान करने के लिए भारत सरकार से अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) की आवश्यकता होती है.

अफगानिस्तान में एक पूर्व भारतीय राजदूत, जिन्होंने नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा, “भारत से बाहर निकलने या प्रवेश करने के लिए, अफगान नागरिकों को भारत सरकार से एक कानूनी दस्तावेज की आवश्यकता होती है, चाहे वह एनओसी हो या निकलने का फॉर्म. पिछले दो वर्षों में यह एक अलिखित नियम बन गया है. अफगान के विदेशी संवाददाताओं को भी इसके कारण भारत छोड़ने और फिर से प्रवेश करने में समस्याओं का सामना करना पड़ा है.”

वर्तमान में दूतावास में दो अफगान राजनयिक और चार से पांच स्थानीय कर्मचारी हैं जो सितम्बर के अंत में अन्य बचे लोगों को अचानक बर्खास्त किए जाने के बाद से कार्यरत हैं.


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‘तालिबान पारस्परिकता चाहता है’

भारत ने अफगानिस्तान में तालिबान शासन को आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी है. हालांकि, इसने जून 2022 से काबुल में एक ‘तकनीकी टीम’ बनाए रखी है.

दिल्ली स्थित सुरक्षा विश्लेषक सरल शर्मा, जो पहले राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय में कार्यरत थे, का कहना है कि तालिबान संभावित रूप से “पारस्परिकता” की तलाश में है.

शर्मा ने दिप्रिंट को बताया, “अगर तालिबान ने भारत को काबुल में एक तकनीकी टीम स्थापित करने की अनुमति दी, तो स्पष्ट रूप से वे बदले में कुछ की उम्मीद करते हैं. शायद, दिल्ली में यह भी चिंता है कि चीनी इस खेल में आगे हैं और वहां अधिक महत्वपूर्ण मौजूदगी बना रहे हैं.”

सितम्बर में, चीन ने अफगानिस्तान में झाओ शेंग को नया राजदूत नियुक्त किया था. बीजिंग ने कहा कि यह एक नियमित फेरबदल का हिस्सा था लेकिन अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी ने इसे “एक महत्वपूर्ण कदम, एक महत्वपूर्ण संदेश देने वाला” बताया. चीन के अलावा, छह अन्य देश काबुल में राजदूत रखते हैं.

कुछ विश्लेषकों का कहना है कि रियलपोलिटिक – नैतिक या वैचारिक सिद्धांतों के बजाय मुख्य रूप से व्यावहारिक आधार पर राजनयिक या राजनीतिक नीतियों को संचालित करने की कला है, जो अफगानिस्तान के प्रति भारत की वर्तमान नीति के मूल में है.

यूके स्थित ऑक्सफोर्ड ग्लोबल सोसाइटी के फेलो और अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी के पूर्व प्रधान सचिव अजीज अमीन ने बताया कि भारत चार कारणों से तालिबान के साथ जुड़ा हुआ है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “अफगानिस्तान के भीतर एक रणनीतिक उपस्थिति बनाने के लिए, जमीन पर एक ठोस मौजूदगी, अफगानिस्तान से पैदा होने वाले खतरों को रोकने और पाकिस्तान पर तालिबान-नियंत्रित अफगानिस्तान की पूर्ण निर्भरता से बचने के लिए.”

मार्च में, तालिबान सरकार को कथित तौर पर नई दिल्ली के निमंत्रण पर विदेशी प्रतिनिधियों के लिए एक भारतीय ऑनलाइन पेशेवर प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था. इसने न केवल तालिबान के साथ भारत की भागीदारी के बारे में चिंताएं बढ़ा दीं, बल्कि इसने भारत में अफगान छात्रों और अपने गृह देश में फंसे उन लोगों के बीच रोष पैदा कर दिया, जिन्हें तालिबान के सत्ता में आने के बाद “जुल्म झेलने के लिए छोड़ दिया गया है.”

‘राजनयिकों को तालिबान से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करना’

वियना कन्वेंशन के अनुसार, कोई मेजबान देश उस देश की सहमति के बिना किसी राजदूत को बदल नहीं सकता, जहां से वह आता है. अनुच्छेद 8 (2) में कहा गया है, “मिशन के राजनयिक स्टाफ के सदस्यों को वहां के देश की राष्ट्रीयता वाले व्यक्तियों में से नियुक्त नहीं किया जा सकता है, सिवाय उस देश की सहमति के, जिसे कि किसी भी समय वापस लिया जा सकता है.”

यह तब जटिल हो जाता है जब न केवल “भेजने वाले” राज्य में शासन परिवर्तन होता है, बल्कि तब भी होता है जब मेजबान देश उस नए शासन को मान्यता नहीं देता है.

किसी भी देश ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है. हालांकि, मार्च में, तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद को स्थानीय मीडिया ने यह कहते हुए उद्धृत किया था कि पूर्व सरकार के राजनयिक “विदेश मंत्रालय के साथ समन्वय में” दुनिया भर के विभिन्न मिशनों में अपनी गतिविधियां जारी रख रहे हैं. दिप्रिंट ने व्हाट्सएप संदेशों के माध्यम से मुजाहिद से यह पूछने के लिए संपर्क किया कि क्या तालिबान भारत में भी इसी तरह की रणनीति अपना रहा है, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.

वर्तमान में, मामुंडजे भारत में किसी भी अफगान महावाणिज्य दूत को अपना पद सौंपने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उनका मानना ​​है कि उन्हें तालिबान के साथ जुड़ने के लिए भारत सरकार द्वारा “प्रोत्साहित” किया गया है.

मामुंडजे ने दिप्रिंट को बताया, “ऐसा प्रतीत होता है कि भारत सरकार हमारे राजनयिकों को तालिबान के साथ जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करने के पक्ष में है. यह गतिशीलता मुंबई और हैदराबाद वाणिज्य दूतावास के सामान्य कार्यालयों की स्थितियों से एकदम साफ होती है.”

इस बीच, विदेश मंत्रालय तालिबान के किसी भी पत्राचार को स्वीकार नहीं कर सकता है जिसमें राजदूत के रूप में किसी और की सिफारिश की गई हो, क्योंकि नई दिल्ली ऐसे शासन को मान्यता नहीं देती है.

यह मई में जाहिर हुआ, जब तालिबान ने दिल्ली में अफगान दूतावास को व्यापार परामर्शदाता कादिर शाह को राजदूत नियुक्त करते हुए एक पत्र भेजा. शाह ने राजदूत की अनुपस्थिति में इसे टेक ओवर करने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे और बाद में उन्हें मिशन में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई. दूतावास के सूत्रों ने उस समय दिप्रिंट से पुष्टि की थी कि उन्हें नियमित रूप से तालिबान से पत्र मिलते हैं लेकिन उन पर विचार नहीं किया जाता क्योंकि दूतावास गणतंत्र का प्रतिनिधित्व करता है, इस्लामी अमीरात का नहीं.

दूतावास के एक सूत्र के अनुसार, मामुंडज़े के हटने को तैयार नहीं होने और विदेश मंत्रालय द्वारा आधिकारिक तौर पर तालिबान से किसी भी पत्राचार को स्वीकार करने में असमर्थ होने के कारण, एक “गतिरोध” उत्पन्न हो गया था.

दिप्रिंट ने कार्यवाहक-वाणिज्य दूत इब्राहिमखैल (हैदराबाद) से बात की, जिन्होंने इस दावे का खंडन किया कि वह तालिबान के साथ काम कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने अफगान गणतंत्र के वजूद पर भी सवाल उठाया.

उन्होंने कहा, “हम तालिबान का सपोर्ट नहीं कर रहे हैं”, “लेकिन गणतंत्र कहा हैं?, गणतंत्र का पता (एड्रेस) कहा हैं?

दिल्ली में विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ व्यापक बैठकें करने के तीन दिन बाद, हैदराबाद और मुंबई में अफगान महावाणिज्य दूत ने 6 अक्टूबर को जारी एक संयुक्त बयान में मामुंडज़े का विरोध किया.

(संपादन : इन्द्रजीत)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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