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शुक्रवार, 20 जून, 2025
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अबूझमाड़ ऑपरेशन ने माओवादी विद्रोह के बसवराजू चैप्टर को किया बंद, DRG ने सुरक्षा बलों को कैसे दिलाई जीत

इनमें पूर्व माओवादी भी शामिल हैं, जिन्होंने सीपीआई (माओवादी) की सशस्त्र शाखा के भीतर इकाई के बारे में अपनी जानकारी साझा की, जो बसवराजू सहित शीर्ष नेताओं की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है.

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नई दिल्ली: कई स्रोतों से एकत्रित खुफिया जानकारी और मानव और तकनीकी संसाधनों के नेटवर्क की मदद से पुष्टि करने में कई हफ्ते बिताने के बाद नारायणपुर के पुलिस अधीक्षक (एसपी) प्रभात कुमार और उनकी टीम को एक बेशकीमती सुराग हाथ लगा — प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का मायावी महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ ​​बसवराजू. खुफिया जानकारी के अनुसार, 70 साल का बसवराजू छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में नारायणपुर, कांकेर, बीजापुर और दंतेवाड़ा के बीच लगभग 5,000 वर्ग किलोमीटर में फैले घने जंगल अबूझमाड़ के बहुत अंदर था.

21 मई को सुरक्षा बलों ने दो दिनों तक चली भीषण गोलीबारी के बाद 12 महिलाओं समेत 27 माओवादियों को मार गिराया. मारे गए लोगों में बसवराजू भी शामिल था, जिसने 2018 में महासचिव का पद संभाला था और उस पर कम से कम 3 करोड़ रुपये का इनाम था.

छत्तीसगढ़ पुलिस के लिए सभी गतिशील भागों ने उच्च-दांव वाले उग्रवाद रोधी अभियान के लिए रास्ता बनाया, जो राज्य में पहले कभी नहीं देखा गया था, लेकिन यह सब जिला रिजर्व गार्ड (DRG) द्वारा निभाई गई ऑफ-फील्ड और ऑन-फील्ड भूमिकाओं के बिना संभव नहीं था, जिसमें कुछ हद तक मुख्यधारा में वापस आए माओवादी शामिल रहे.

इनमें पूर्व माओवादी भी शामिल रहे, जिन्होंने शीर्ष नेतृत्व की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार CPI (माओवादी) के सशस्त्र विंग के भीतर एक विशेष इकाई की जानकारी साझा की.

अबूझमाड़ मुठभेड़ के बाद तलाशी अभियान चलाते DRG के जवान | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट
अबूझमाड़ मुठभेड़ के बाद तलाशी अभियान चलाते DRG के जवान | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

2015 में औपचारिक रूप से गठित, DRG ने ऑपरेशन के दौरान सामरिक बारीकियों के साथ सुरक्षा बलों की सहायता करने के अलावा, बसवराजू की गतिविधियों पर इनपुट एकत्र करने और सत्यापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक (IG) सुंदरराज पट्टिलिंगम ने दिप्रिंट को बताया कि DRG “माओवादियों के खिलाफ प्राथमिक स्ट्राइक फोर्स बन गई है”.

आईजी सुंदरराज ने बताया कि डीआरजी कर्मियों की स्थानीय स्तर पर भर्ती की जाती है और यह विशेष बल बस्तर के अंदरूनी और दूरदराज के इलाकों से आए लड़कों और लड़कियों को “अपनी ज़मीन और लोगों की रक्षा करने” का मौका देता है. उन्होंने कहा कि “पहाड़ी और जंगली इलाकों, आदिवासी भाषाओं, स्थानीय रीति-रिवाजों आदि के बारे में उनका ज्ञान नक्सल विरोधी अभियान में गेम चेंजर साबित हो रहा है.”

हालांकि, डीआरजी ने सैकड़ों माओवादी कैडरों को बेअसर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन उन्होंने कहा कि जिस ऑपरेशन के परिणामस्वरूप बसवराजू का सफाया हुआ, वह “अंतिम उपलब्धि” है. आईपीएस अधिकारी ने कहा कि बस्तर में वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिलों में 2,000 से अधिक डीआरजी जवान तैनात हैं.

पैर के फ्रैक्चर से अभी भी उबर रहे योगेश माडवी को उग्रवाद रोधी ऑपरेशन से केवल एक शिकायत है — कि वह इसका हिस्सा नहीं बन सके. एक दशक से भी अधिक समय पहले हथियार डालने वाले पूर्व माओवादी माडवी चिंतलनार गांव के रहने वाले हैं, जिन्होंने अप्रैल 2010 में सुरक्षा बलों पर माओवादियों द्वारा सबसे घातक हमला देखा था, जिसमें 74 केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान और दो छत्तीसगढ़ पुलिस के जवान मारे गए थे.

माडवी, जो अब 49 साल के हैं, 2012 तक 14 साल तक सीपीआई (माओवादी) के साथ थे और प्रतिबंधित संगठन के संगठनात्मक विंग का भी हिस्सा थे. वह 2014 में DRG में शामिल हुए.

माओवाद उनकी ज़िंदगी में कैसे आया, इस बारे में उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “मैं 1988 में पार्टी में शामिल हुआ था, जब वह हमारे गांवों में लोकप्रिय थे और वह जंगल, ज़मीन और पानी के बारे में बात करते थे — हमारे जैसे आदिवासियों के लिए तीन सबसे महत्वपूर्ण घटक, लेकिन एक दशक से अधिक के मेरे अनुभव में वह चाटुकारिता और गुटबाजी से ग्रस्त हैं और आम लोगों के लिए उनके पास कोई वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं है.”

माडवी ने कहा कि वह कभी भी बसवराजू सहित शीर्ष नेताओं से नहीं मिले, “न ही मैं अपने बीमार माता-पिता से मिल सका, जो मेरी अनुपस्थिति में मर गए.” माडवी के पिता की मृत्यु 2014 में हुई और उनकी मां की मृत्यु 2020 में हुई, लेकिन वह उन दोनों से नहीं मिल सके, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं गांव वाले उनके बारे में माओवादियों को न बता दें.

उन्होंने कहा, “मेरी मां मुझसे छिपकर मिलने आईं, लेकिन पार्टी ने उन्हें धमकाया और परेशान किया. मेरे भाई को पुलिस में शिकायत दर्ज न कराने की धमकी दी गई.”

माडवी जैसे पूर्व माओवादी डीआरजी में लगभग 15-20 प्रतिशत हैं, जिसमें मुख्य रूप से राज्य पुलिस द्वारा तीन साल पहले एक अन्य विशेष इकाई, बस्तर फाइटर्स में शामिल होने के लिए स्थानीय रूप से भर्ती किए गए व्यक्ति शामिल हैं.

राज्य पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “इन श्रेणियों के अलावा, बल में शामिल होने के बाद जिले से सैनिकों को उनके वादों और क्षमता के आधार पर चुना जाता है. वह इस काम के लिए हमारे सबसे अच्छे सोर्स हैं.”

राज्य पुलिस के शीर्ष अधिकारियों के बीच, इस बात पर संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि आत्मसमर्पण करने वाले माओवादी कैडर इस तरह के उग्रवाद रोधी ऑपरेशनों की सफलता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इस महीने की शुरुआत में बसवराजू का सफाया हो गया.


यह भी पढ़ें: सुरक्षा बलों ने बस्तर में दो अलग-अलग अभियानों में 22 संदिग्ध माओवादियों को मार गिराया


कंपनी नंबर 7 और ऑपरेशन कैसे हुआ

प्रतिबंधित संगठन के महासचिव के रूप में, बसवराजू को पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) की कंपनी नंबर 7 द्वारा भारी सुरक्षा कवर प्राप्त था, जो सीपीआई (माओवादी) की सशस्त्र शाखा है.

ऑपरेशन प्लानिंग से अवगत एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने खुलासा किया कि “पीएलजीए कंपनी नंबर 7 में पहले काम कर चुके आत्मसमर्पण करने वाले कैडर इस बार बसवराजू को बेअसर करने के लिए एक सफल ऑपरेशन और एक और असफल प्रयास के बीच मामूली अंतर थे”.

अधिकारी ने कहा, “उन्होंने ऑपरेशन की योजना और निष्पादन चरणों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि वह जानते थे कि पीएलजीए कंपनी नंबर 7 जिस क्षेत्र में काम करती है, वहां कैसे काम करना है. वह कंपनी नंबर 7 की सामरिक बारीकियों के साथ-साथ उनके भागने की रणनीति भी जानते थे.”

18 मई की दोपहर को शीर्ष अधिकारियों से हरी झंडी मिलने के बाद तीन दिवसीय ऑपरेशन शुरू किया गया. उसी रात तीन दिशाओं- दंतेवाड़ा, नारायणपुर और दंतेवाड़ा से अबूझमाड़ के अंदर से सैनिकों ने पैदल यात्रा शुरू की. उन्होंने उस रात 36 किलोमीटर की दूरी तय की ताकि समय रहते पूर्व-निर्धारित क्षेत्रों के आसपास अपनी स्थिति बना सकें.

हालांकि, ऑपरेशनल कार्य उतना आसान नहीं था.

ऑपरेशन के लिए अबूझमाड़ में अपनी स्थिति संभालने से पहले डीआरजी के जवान | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट
ऑपरेशन के लिए अबूझमाड़ में अपनी स्थिति संभालने से पहले डीआरजी के जवान | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

19 और 20 मई को गोलीबारी के बाद, कुछ आशंका थी कि बसवराजू भाग सकता है, लेकिन सुरक्षा बलों ने ग्राउंड कमांडरों और वरिष्ठ अधिकारियों के बीच रियल टाइम की सूचना साझा करने पर भरोसा किया. एक अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने समझाया, “पहले दो दिनों में लगातार गोलीबारी के बाद बसवराजू और उसके सुरक्षा तंत्र क्षेत्र में अन्य कैडरों से अलग हो गए. ऑपरेशन की शुरुआत में सुरक्षा बल घातक घटनाओं से बचने के लिए अपने प्रभुत्व के क्षेत्र को फैलाने पर ध्यान केंद्रित करते रहे. घने जंगल क्षेत्र में बलों के इस बिखराव ने माओंवादियों को पहले दो दिनों में सैनिकों से भागने का मौका दिया.”

लेकिन इस बार ग्राउंड पर मौजूद सैनिक बसवराजू और उसके सहयोगियों को भागने का कोई मौका नहीं देने के लिए तैयार थे, यही वजह है कि बीजापुर और दंतेवाड़ा से डीआरजी टीमों ने भागने के संभावित रास्तों को बंद कर दिया था.

तीसरे पुलिस अधिकारी ने कहा, योजना सैनिकों को प्राथमिक स्थान के पश्चिम में ले जाने की थी. “हालांकि, ग्राउंड पर मौजूद सैनिकों ने बताया कि माओवादियों के पूर्वी दिशा में बढ़ने की बहुत संभावना है. ऑपरेशनल स्थितियों को सही ढंग से समझने के उनके बेजोड़ रिकॉर्ड को देखते हुए वरिष्ठ अधिकारियों ने अपनी जानकारी के साथ आगे बढ़ना जारी रखा.”

डीआरजी के जवान इंद्रावती नदी पार करते हुए | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट
डीआरजी के जवान इंद्रावती नदी पार करते हुए | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

21 मई की सुबह करीब 7 बजे, बसवराजू की सुरक्षा में लगे एक संतरी ने डीआरजी के एक जवान को देखा और गोली चला दी. नारायणपुर के ओरछा के भटबेड़ा गांव के खोतलूराम कोरम (38) नामक जवान इस ऑपरेशन के दौरान माओवादियों के साथ गोलीबारी में सुरक्षा बलों का एकमात्र हताहत था.

लेकिन यह वह कारक साबित हुआ जिसने सभी सैनिकों को सतर्क कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप अंतिम गोलीबारी हुई जिसमें बसवराजू सहित 27 माओवादी मारे गए.

सीपीआई (माओवादी) महासचिव की पहचान करने का महत्वपूर्ण कार्य भी कंपनी नंबर 7 के साथ काम करने वाले एक पूर्व माओवादी पर पड़ा.

चौथे पुलिस अधिकारी ने कहा, “डीआरजी जवानों के ठोस खुफिया नेटवर्क, आत्मसमर्पण करने वाले कैडरों के बारे में वर्षों की जानकारी और पीएलजीए कंपनी नंबर 7 की रणनीति को भांपने की उनकी क्षमता के कारण ही राज्य के लिए यह ऐतिहासिक परिणाम सामने आया.”

इसके अलावा, पांचवें पुलिस अधिकारी ने सीधे और नए रंगरूटों पर आत्मसमर्पण करने वाले कैडरों के प्रभाव पर जोर दिया. “वह अपने साथ यह अनुभव लेकर आते हैं कि वह उतने मजबूत नहीं हैं जितने एक या दो दशक पहले हुआ करते थे. ये कैडर इस समझ के साथ आते हैं कि वह उन अत्याधुनिक हथियारों और आधुनिक खुफिया जानकारी जुटाने वाले उपकरणों का मुकाबला नहीं कर सकते जिनसे डीआरजी जवान लैस हैं. माओवादियों की सीमाओं के बारे में उनकी समझ ऑपरेशन टीम में अन्य जवानों पर भी भरोसा पैदा करती है.”

डीआरजी ‘रैखिक सोच के कैदी नहीं हैं’

इंस्पेक्टर मुकेश ताती (41) के लिए डीआरजी द्वारा अंजाम दिया जाने वाला हर उग्रवाद रोधी ऑपरेशन एक सुस्थापित प्रक्रिया का परिणाम है. 2008 में राज्य पुलिस बल में शामिल होने के छह साल बाद डीआरजी में शामिल हुए ताती ऐसे कई अभियानों का हिस्सा रहे हैं.

सुकमा जिले के कोंटा से आने वाले ताती विशेष बल में शामिल हुए जबकि उन्हें पता था कि उनके इस फैसले से उनके माता-पिता माओवादी खतरे के संपर्क में आ सकते हैं. “जो उनके लिए कारगर है, वह हमारे लिए भी कारगर हो सकता है. हम उन्हीं गांवों से हैं, जहां से वह हैं. हम उन्हीं जंगलों और इलाकों में पैदा हुए और पले-बढ़े, जहां वह थे और हमने अपना दबदबा कायम किया. अब स्थिति बदल रही है और वह भी हमेशा के लिए.”

वर्तमान में दंतेवाड़ा में तैनात ताती ने अपने तीनों बच्चों का दाखिला स्थानीय स्कूल में कराया है, जो अब वामपंथी उग्रवाद के मामले में चिंता का विषय नहीं रह गया है.

दंतेवाड़ा के एसपी गौरव राय के अनुसार, “क्षेत्र की जानकारी और ऑपरेशन में श्रेष्ठता” के मामले में ताती जैसे डीआरजी जवानों का कोई मुकाबला नहीं है.

उन्होंने कहा, “इसके अलावा, वह विफलता या असफल ऑपरेशन का कोई बोझ लेकर नहीं आए हैं. सटीक और सफल ऑपरेशन ने उनका मनोबल बढ़ाया है.”

बीजापुर के एसपी जितेंद्र कुमार यादव ने कहा कि डीआरजी के जवान स्थानीय भाषाओं, इलाकों के साथ-साथ अपने निडर दृष्टिकोण के कारण छत्तीसगढ़ पुलिस के बीच श्रेष्ठ हैं.

एक अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि डीआरजी के जवानों को “अन्य इकाइयों की तरह कानून और व्यवस्था की ड्यूटी में तैनात नहीं किया जाता है; इस सीमांकित जनादेश ने उन्हें बस्तर के दूरदराज के इलाकों में बोझिल ऑपरेशन के लिए तैयार रखा है”.

नारायणपुर के एसपी प्रभात कुमार, जिन्होंने एडिशनल एसपी (ऑपरेशन) रॉबिन्सन गुरिया के साथ मिलकर तीन दिवसीय विशाल ऑपरेशन की शुरुआती योजना बनाई थी, उन्होंने कहा, “ऑपरेशन के दौरान उनके द्वारा किए गए काम से यह गलत धारणा बन गई है कि डीआरजी केवल ऑपरेशन करने वाली एक फोर्स है. इसके विपरीत, डीआरजी के जवान बंदूकों के साथ काम करने की तुलना में लैपटॉप, गूगल मैप्स और अन्य तकनीकों पर ज़्यादा वक्त बिताते हैं.”

उन्होंने कहा कि डीआरजी के जवानों ने पूर्वधारणाओं को तोड़ दिया है. “उन्होंने साबित कर दिया है कि अबूझमाड़ उनके शीर्ष नेताओं के लिए भी असुरक्षित है, निचले स्तर के नेताओं की तो बात ही छोड़िए. सुरक्षा के लिए अबूझमाड़ आने के बजाय, वह अब अबूझमाड़ से भाग रहे हैं.”

उनके अनुसार, उग्रवाद रोधी अभियानों में हाल की सफलताओं का श्रेय “रैखिक सोच” की रणनीति से दूर जाने को भी दिया जा सकता है, जिसके अनुसार वामपंथी उग्रवाद से केवल समय के साथ सामाजिक संकेतकों और परिणामों में वृद्धिशील सुधार के माध्यम से ही निपटा जा सकता है. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “एक के बाद एक क्षेत्र को मुक्त करने का पूर्व-स्थापित दृष्टिकोण निकटवर्ती क्षेत्र से शुरू होता है, गहराई तक जाता है, जूनियर कैडरों पर कार्रवाई शुरू करता है और फिर उच्च कैडरों को निशाना बनाता है. डीआरजी इस रैखिक सोच के कैदी नहीं हैं.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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