मुम्बई: जैसी कि लोक कथा है कि कोंकण क्षेत्र की अधिकतर नदियों को अपने नाम उनके पानी से जुड़ी किसी विशेषता की वजह से मिले हैं. एक है वशिष्टी जो एक ऐसे पहाड़ से निकली है जहां माना जाता है कि कभी आदरणीय वैदिक ऋषि वशिष्ठ का आश्रम हुआ करता था. कुरली नदी का ये नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उसमें बड़ी संख्या में केकड़े पाए जाते हैं (कोंकणी में केकड़े को कुरली कहते हैं) जो कोंकण क्षेत्र में एक स्वादिष्ट पकवान माना जाता है.
इसी तरह है जगबूदी जिसे ये नाम उस तबाही से मिला है जो ये फैला सकती है. ‘जग-बूदी’ जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘दुनिया डूब जाती है’ वशिष्टी की सहायक नदी है और अपनी मूल नदी से मिलकर बारिशों के मौसम में आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ लाने के लिए जानी जाती है.
ये नदी 2013 में दुनियाभर में सुर्ख़ियों में आई थी जब गोवा से मुम्बई जा रही एक निजी बस जिसमें कुछ विदेशी पर्यटक भी सवार थे एक पुल के ऊपर से अनियंत्रित होकर नीचे जगबूदी में गिर गई. दुर्घटना में कम से कम 37 लोग मारे गए और 15 से अधिक घायल हुए.
दादाजी राव जाधव नाम के एक किसान ने जो खेड शहर के पास बहने वाली जगबूदी नदी से करीब 6 किलोमीटर दूर रहता है, दिप्रिंट से बताया, ‘बहुत साल पहले उन दिनों जगबूदी में पानी बढ़ जाया करता था और स्थानीय बाज़ार पूरे बाढ़ की चपेट में आ जाते थे. लोगों की जीविका तबाह हो जाती थी. उनके लिए ऐसा था जैसे उनकी दुनिया ही डूब गई हो, इसलिए नदी को जगबूदी कहा जाने लगा’.
हाल में हुई बारिशों के चलते जगबूदी फिर उफान पर है. और जाधव का कहना था कि ऐसी तबाही पहले शायद ही देखी गई हो.
उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे याद नहीं पड़ता कि 2005 के सैलाब के बाद से ऐसी तबाही फिर कभी देखी गई’.
पिछले हफ्ते जगबूदी नदी वशिष्टी और कोदावली के साथ मिलकर खतरे का स्तर पार कर गई और भारी बारिश तथा स्थानीय कोयना बांध के डिस्चार्ज के साथ उसने कोंकण के एक बड़े तटीय हिस्से को जलमग्न कर दिया.
रत्नागिरी के खेड और चिपलून में जहां जगबूदी और वशिष्टी बहती हैं, गांवों और कस्बों में 10-12 फीट तक पानी भर गया. कुछ जगहों पर तो 20 फीट तक पानी भर गया जिससे जीवन और जीविका का व्यापक नुकसान हुआ.
भारी बारिशों ने पश्चिम महाराष्ट्र और कोंकण क्षेत्र के नौ ज़िलों- रत्नागिरी, रायगढ़, सिंधुदुर्ग, कोल्हापुर, सांगली, सतारा, पुणे, ठाणे और मुम्बई उपनगर में भूस्खलन और बाढ़ पैदा कर दी. राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार शनिवार रात में कम से कम 112 लोग मारे गए और 53 घायल हुए. रत्नागिरी और रायगढ़ विशेष रूप से बुरी तरह प्रभावित हैं.
सेना, नौसेना, वायुसेना, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ), राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल (एसडीआरएफ) और महाराष्ट्र पुलिस को राहत कार्यों के लिए तैनात किया गया है, और 1.35 लाख से अधिक लोगों को वहां से हटाना पड़ा है.
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने रविवार को नुकसान का आंकलन करने के लिए चिपलून का दौरा किया, जिससे एक दिन पहले वो रायगढ़ गए थे.
उस संभावित तबाही को जानते हुए भी जिससे जगबूदी को उसका नाम मिला है, पर्यावरण कार्यकर्ता इस साल की बाढ़ की तीव्रता का कारण स्थानीय पर्यावरण के उस सिलसिलेवार दुरुपयोग को मानते हैं जो औद्योगीकरण के लिए किया जा रहा है. उनका कहना है कि इसमें बड़े पैमाने पर वनों की कटाई भी शामिल है- ऐसा कारक जो कटाव और बाढ़ में सहायक बन जाता है.
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‘स्थानीय निवासियों के ख़ुशी और आंसू’
चिपलून में एक जूनियर कालेज के प्रिंसिपल पद से रिटायर होने वाले विनोद फंसे ने कहा कि जगबूदी और वशिष्टी ‘उन लोगों की ख़ुशी और आंसू हैं जो इसकी करीब रहते हैं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘दोनों नदियों का जलस्तर हर साल बढ़ जाता है, जिससे मॉनसून के दौरान कम से कम 2-3 बार स्थानीय रूप से अलग-अलग जगहों पर बाढ़ आती है. अगर किसी साल नदियों से थोड़ा बहुत जलभराव नहीं होता तो लोगों को लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है’.
फंसे ने कहा कि जो लोग नदी के करीब रहते हैं उन्हें अपने पास जल निकाय अच्छे लगते हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘इससे उन्हें पीने के अलावा रोज़ाना की सभी ज़रूरतें पूरी करने के लिए पानी मिल जाता है. इससे उन्हें खेती में सहायता मिलती है. कुछ लोग तो मछली पकड़ने के लिए भी इस पर निर्भर हैं, एक ऐसा व्यवसाय जो पिछले कुछ वर्षों में यहां आसपास हुए भारी औद्योगीकीकरण और उससे जुड़े प्रदूषण की वजह से अब ज़्यादा संभव नहीं रहा है.
स्थानीय लोगों को काफी हद तक अनुमान होता है कि हर साल पानी का स्तर कितना ऊपर जा सकता है. इसलिए हर बार जैसे ही खेड और चिपलून की स्थानीय नगरपालिका परिषदें बिगुल बजाती हैं, जिसका मतलब होता है कि नदियां अपने ख़तरे के निशान को पार करने जा रही हैं, लोग तुरंत हरकत में आ जाते हैं.
वो अस्थाई तौर पर अपने ‘मालों’ पर चढ़ जाते हैं जो मिट्टी की ईंटों से बने घरों की खुली छतें होती हैं जो कोंकण इलाके के घरों की खासियत होती हैं या फिर अपने घर की दूसरी मंज़िल पर चले जाते हैं.
खेड निवासी विश्वास पटने ने जो स्थानीय व्यवसाइयों के एक निकाय के पदाधिकारी हैं कहा कि उनके जैसे दुकानदार पहले ही आने वाले खतरे को भांप लेते हैं और अपने सामान को दुकान में ऊपर की तरफ रख देते हैं या उसे वेयरहाउस पहुंचा देते हैं. आमतौर पर सड़कों पर एक-दो फीट पानी भरता है और दो एक घंटे के अंदर उतर जाता है.
फंसे ने कहा, ‘अपने जीवन में मैंने चार बड़ी बाढ़ देखी हैं. पहली बाढ़ 1982 में देखी फिर 2005 में फिर 2019 और 2021 में. इस साल की बाढ़ अभी तक सबसे अधिक विनाशकारी थी.
इस साल जब नदियों में उफान आया
खेड और चिपलून के निवासियों ने दिप्रिंट को बताया कि बृहस्पतिवार को देर रात 12.30 बजे थे जब बिगुल बजाया गया था. उन्होंने आगे कहा कि 2-3 घंटों के अंदर पानी का स्तर तेज़ी से बढ़ गया और लोगों को समय ही नहीं मिल पाया.
दुकानों में 10-12 फीट ऊंचाई पर रखी चीज़ें जिसे पिछले अनुभवों के हिसाब से सुरक्षित माना जाता था, पूरी तरह नष्ट हो गईं चूंकि पूरी की पूरी दुकानें ही पानी में डूब गईं. डरे हुए लोग अपने घर की छतों या सबसे ऊपरी मंज़िलों पर बैठे रहे, इस चिंता में कि पानी कभी भी अंदर आ सकता है.
एक दुकानदार नितिन पटने ने जो 2001 में खेड नगरपालिका परिषद के अध्यक्ष थे, कहा: ‘लोग आमतौर पर सतर्क रहते हैं और एहतियात बरतते हैं, लेकिन इस मरतबा हमें बिल्कुल समय ही नहीं मिल पाया’.
उन्होंने आगे कहा: ‘मेरी अपनी दुकान जिसमें कभी पानी नहीं भरता था क्योंकि वो ऊंचाई पर है इस बार 3-4 फीट पानी में थी. हम बेहतर तौर पर तैयार हो सकते थे अगर हमें उस समय कोयना बांध से पानी छोड़े जाने की सूचना दे दी जाती जब भारी बारिश की अपेक्षा थी’.
शनिवार को जारी एक बयान में राज्य सरकार ने कहा कि ‘चिपलून और खेड कस्बे पूरी तरह जलमग्न हो गए थे क्योंकि कोयना बांध और उसके बाद कोलतेवाड़ी बांध से पानी छोड़े जाने के परिणामस्वरूप वशिष्टी नदी का जलस्तर बहुत बढ़ गया था’.
बयान में आगे कहा गया, ‘ज़मीनी रास्तों पर पानी भर जाने की वजह से शहर से संपर्क पूरी तरह टूट गया था. मुम्बई-चिपलून मार्ग पर चिपलून नदी पर बना पुल पानी में बह गया. हज़ारों लोग अपने घर की छतों और ऊंपरी मंज़िलों पर फंसे हुए थे, क्योंकि बहुत सी जगहों पर पानी का स्तर 15-20 फीट से ऊपर पहुंच गया था’.
नदियों का दुरुपयोग
पानी से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे संगठनों के एक अनौपचारिक नेटवर्क साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल (एसएएनडीआरपी) की 2016 की एक रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, कोयना पन बिजली परियोजना और महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम (एमआईडीसी) के लोटे परशुराम औद्योगिक क्षेत्र की वजह से वशिष्टी के प्राकृतिक स्वभाव और इसलिए जगबूदी में भी काफी बदलाव आया है.
एसएएनडीआरपी की परिणीता दांडेकर की रिपोर्ट में कहा गया है ‘वशिष्टी का बेसिन बहुत संकीर्ण है और बरसात के मौसम में कोयना का अतिरिक्त पानी चिपलून शहर में बाढ़ ले आता है’.
लोटे परशुराम औद्योगिक क्षेत्र पर जो 1978 में स्थापित किया गया और अगले तीन दशकों में विकसित हुआ दांडेकर लिखती हैं: ‘लोटे परशुराम स्थल को चुनने के पीछे एक बड़ा मानदंड ये था कि ये क्षेत्र वशिष्टी के पास था जिससे प्रवाह को आसानी से उसमें छोड़ा जा सकता था’.
रिपोर्ट में कहा गया है कि नदी और उसकी सहायक नदियों में गंदे पानी के निरंतर प्रवाह ने जल निकायों तथा आस पास के क्षेत्रों का समाज विज्ञान, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था बदल कर रख दी है, और इस क्षेत्र में मछली पकड़ना एक उद्योग के तौर पर ख़त्म हो चुका है.
रत्नागिरी की खेड-चिपलून बेल्ट के पर्यावरण कार्यकर्ता पंकज दल्वी ने दिप्रिंट से कहा: ‘पिछले कुछ वर्षों में सहयाद्री में बेतहाशा पेड़ काटे गए हैं जिससे वशिष्टी और जगबूदी और कोंकण की दूसरी नदियों के दोनों किनारों पर भारी कटाव हुए हैं. जल निकायों के साथ-साथ बुनियादी ढांचे का बेतरतीब विकास हुआ है. क्षेत्र में उद्योगों की प्रगति ने भी नदियों को प्रदूषित किया है’.
उन्होंने आगे कहा, ‘नदी को जगबूदी कहा जाता है लेकिन साफतौर पर किसी को डर नहीं है कि ये क्या कर सकती है. अगर होता, तो हम इस स्थिति में कभी नहीं पहुंचते’.
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