नई दिल्ली: 21 साल पहले अपनी बहन की हत्या के मामले में दोषी करार छत्तीसगढ़ के एक व्यक्ति की उम्र कैद बहाल रखने में सुप्रीम कोर्ट को लगभग 12 साल का समय लगा है.
जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की खंडपीठ ने 31 मार्च को छत्तीसगढ़ निवासी महतू राम की अपील खारिज कर दी. पीठ ने शीर्ष कोर्ट की तरफ से 2010 में उसे दी गई जमानत रद्द कर दी और बाकी बची आजीवन कारावास की सजा काटने का हुक्म भी सुनाया.
पीठ ने अपने पांच पेज के फैसले के आखिर में लिखा, ‘हमारे विचार से अभियुक्त-अपीलकर्ता (महतू राम) के खिलाफ आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) की धारा 320 (हत्या) के तहत दर्ज मामले में ट्रायल कोर्ट के निष्कर्ष और दोषसिद्धि की पुष्टि करते हुए हाई कोर्ट की तरफ से उसकी सजा बरकरार रख जाने वाले फैसले में शीर्ष कोर्ट के और हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है.’
इसमें आगे कहा गया है, ‘चूंकि इस कोर्ट की तरफ से 25 अगस्त 2010 में पारित आदेश के मुताबिक जमानत पर चल रहे आरोपी-अपीलकर्ता का जमानत बांड रद्द कर दिया गया है, इसलिए वह आज से चार सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करेगा और ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित बाकी सजा काटेगा.’
पीठ ने अधिकारियों को यह निर्देश भी दिया कि यदि महतू राम आत्मसमर्पण न करे तो वे उसके खिलाफ उचित कार्रवाई शुरू कर सकते हैं.
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क्या है पूरा मामला
महतू राम की वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता महालक्ष्मी पावनी ने दिप्रिंट को बताया कि 18 मार्च, 2001 को अपनी बहन की हत्या करने के समय दोषी की उम्र 66 वर्ष थी. अगस्त में जमानत मिलने तक वह करीब 10 साल जेल में रहा.
पावनी को सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विसेज कमेटी (एससीएलएससी) की तरफ से नामित किया गया था क्योंकि दोषी शीर्ष कोर्ट में अपने मामले की सुनवाई के लिए किसी वकील का खर्च उठाने की स्थिति में नहीं था.
निचली अदालत ने जुलाई 2002 में महतू राम को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. हाई कोर्ट ने फरवरी 2008 के अपने फैसले ने सजा की पुष्टि की.
निचली अदालत और हाई कोर्ट दोनों ने तीन बच्चों की गवाही पर भरोसा किया था जिन्होंने अपने बयान में कहा था कि उन्होंने महतू राम को मरने से एक दिन पहले अपनी बहन को घसीटते देखा था जो कि उनकी दादी के साथ थीं.
पावनी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने दोषी की उम्र पर गौर करने का उनका अनुरोध ठुकरा दिया.
पावनी ने कोर्ट में दलील दी कि महतू राम नशे में था जब उसने अपनी बहन का गला घोंटा. उस समय वह अपने होशो-हवास में नहीं था और हत्या करने का उसका कोई इरादा नहीं था. इसके साथ ही उन्होंने यह दलील भी दी कि यह घटना ‘गंभीर उकसावे’ का नतीजा थी, दूसरे शब्दों में कहें तो यह गैर-इरादतन हत्या का मामला है हत्या का नहीं.
उन्होंने कहा, ‘मैंने पीठ से उसे धारा 304 (भाग 2)—जो कि हत्या की तुलना में कम गंभीर अपराध है—के तहत दोषी ठहराने का आग्रह किया था, और कहा कि उसे उतनी ही जेल की सजा दें जो वह पहले काट चुका है.
भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (2) कहती है कि यदि कोई गैर इरादतन हत्या करता है, उसे आजीवन कारावास या लंबी अवधि के कारावास की सजा दी जा सकती है और वह जुर्माने का भी उत्तरदायी होगा.
यह धारा आमतौर पर उन मामलों में लागू की जाती है जहां यह स्पष्ट होता है कि यह कृत्य इस बात की जानकारी के साथ किया गया हो कि इससे मृत्यु की संभावना है, लेकिन मृत्यु का कारण बनने का कोई इरादा न हो.
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मामले में लंबा समय लगा
महतू राम मामले से संबंधित कार्यवाही का रिकॉर्ड देखने पर पता चलता है कि जस्टिस एम. काटजू और जस्टिस ए.के. गांगुली ने 23 अक्टूबर 2009 को उनकी अपील पर नोटिस जारी किया था. इसके बाद लगभग एक साल तक छत्तीसगढ़ सरकार ने मामले में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई, जैसा कि रिकॉर्ड दर्शाते हैं.
25 अगस्त, 2010 को जस्टिस काटजू और जस्टिस टी.एस. ठाकुर ने मामले में लीव को मंजूरी दे दी. इसी पीठ ने महतू राम को जमानत दी थी.
अगस्त 2010 और जनवरी 2013 के बीच कोर्ट रजिस्ट्रार ने इस मामले में तकनीकी औपचारिकताएं पूरी कीं, जिसमें पक्षकारों को मामले से जुड़े दस्तावेजों की अनुवादित प्रतियां प्रदान करना और याचिकाकर्ता को अतिरिक्त दस्तावेज दाखिल करने की अनुमति देना शामिल है.
अंत में, अपील को सितंबर 2019 में दो जजों की एक पीठ के समक्ष अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया—इससे पहले इसे छह साल पूर्व उठाया गया था लेकिन सिर्फ स्थगित करने के लिए. 2019 के बाद भी अगले ढाई साल तक मामला कभी कार्यसूची में नहीं आया, आखिरकार इस साल 10 मार्च को ही इस पर सुनवाई हुई.
पावनी के मुताबिक, महतू राम का मामला अकेला नहीं है; यह उन तमाम मामलों में शामिल है जिन्हें निपटाने को सुप्रीम कोर्ट में कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती है. इसका प्रमुख कारण यह है कि कानूनी सहायता वाले मामले अदालत में लिस्टिंग में लाने में मदद करने के लिए कोई समर्पित अधिवक्ता नहीं हैं.
सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री के एक अधिकारी ने माना कि महतू राम जैसे लीव की मंजूरी वाली आपराधिक अपीलों पर कोर्ट में सुनवाई होनी चाहिए—जिनमें जल्द सुनवाई नहीं होती है.
एक आपराधिक अपील में लीव की मंजूरी का मतलब है कि अदालत इस मामले को विस्तृत सुनवाई के बाद फैसला सुनाने के लिए उपयुक्त पाती है.
अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘ऐसी अपीलों पर फैसला होने में एक दशक तक लग जाता है.’
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