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Saturday, 21 December, 2024
होमडिफेंस1971 के युद्ध के 50 साल—कैसे सेना, इंटेल और नेताओं ने मिलकर भारत को दिलाई थी बेहतरीन जीत

1971 के युद्ध के 50 साल—कैसे सेना, इंटेल और नेताओं ने मिलकर भारत को दिलाई थी बेहतरीन जीत

16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों और सरकारी अधिकारियों ने भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और इसके साथ ही 3 दिसंबर से जारी बांग्लादेश मुक्ति संग्राम समाप्त हो गया.

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नई दिल्ली: आज से ठीक 50 साल पहले भारत ने अपनी सबसे बड़ी और बेहद निर्णायक सैन्य जीत हासिल की थी.

16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान के कमांडर जनरल ए.ए.के. नियाजी के नेतृत्व में पाकिस्तान के लगभग 93,000 सैनिकों और सरकारी अधिकारियों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था, इसके साथ ही 3 दिसंबर से जारी जंग खत्म हो गई थी. यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से किसी सेना द्वारा सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था और इसके कारण ही पाकिस्तान का विभाजन हुआ और एक नए देश बांग्लादेश का निर्माण हुआ.

अब, 50 साल बाद जब भारत अपनी सेना के लिए थिएटर कमान की कोशिशें कर रहा है, 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को तीनों सेनाओं के एक साथ मिलकर लड़ने का बेहतरीन उदाहरण माना जा सकता है. यह एकमात्र ऐसा युद्ध है जिसमें कई मोर्चों पर भारतीय सेना के तीनों अंगों—थल सेना, नौसेना और वायु सेना—को एक साथ जंग लड़ते देखा गया.

इस युद्ध को राजनेताओं, सेना, वायु सेना, नौसेना, खुफिया एजेंसियों के साथ-साथ अर्धसैनिक बलों ने भी साथ मिलकर एक ऐसी बड़ी जीत में बदल दिया जिसने पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया.

यह एकमात्र ऐसी जंग भी जिसमें भारत को पूर्वी और पश्चिमी दोनों सेक्टर के दोहरे मोर्चों पर एक साथ लड़ना पड़ रहा था. 1971 की लड़ाई के लिए दिए गए चार परमवीर चक्रों (सैन्य काल के सबसे बड़े सम्मान) में से तीन पश्चिमी सेक्टर में लड़ने वाले फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों, मेजर होशियार सिंह और सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को मिले थे.

चौथा परमवीर चक्र पूर्वी मोर्चे पर अपना अदम्य साहस दिखाने वाले लांस नायक अल्बर्ट एक्का को मिला था.

ताजा विवाद

1971 के युद्ध पर कई किताबें लिखी जा चुकी है, जिसमें इस अभियान में शामिल रही तमाम हस्तियों समेत विभिन्न पहलुओं को शामिल किया गया है.

हालांकि, चीन और यूरोपीय संघ में भारत के राजदूत रह चुके एक पूर्व राजनयिक चंद्रशेखर दासगुप्ता की लिखी हालिया किताब, ‘इंडिया एंड द बांग्लादेश लिबरेशन वॉर: द डेफिनिटिव स्टोरी’ कुछ विवादों के घेरे में आ गई है.

नवंबर में आई यह किताब फील्ड मार्शल सैम होर्मुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ के इस दावे का एक तरह से खंडन करती है कि युद्ध कुछ समय तक टालने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उन्होंने ही राजी किया था.

तत्कालीन सेना प्रमुख मानेकशॉ के मुताबिक, इंदिरा गांधी चाहती थीं कि पूर्वी पाकिस्तान में लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खान, जिसे ‘बांग्लादेश का कसाई’ भी कहा जाता है कि तरफ से जारी अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए भारतीय सेना तत्काल हमला कर दे.

मानेकशॉ खुद इस बारे में बताते थे कि 29 अप्रैल 1971 की दोपहर को क्या हुआ था, जब गांधी ने एक आकस्मिक कैबिनेट बैठक बुलाई थी.

विशेष आमंत्रित सदस्य मानेकशॉ के अलावा इस बैठक में तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम, विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह, कृषि मंत्री फखरुद्दीन अली अहमद और वित्त मंत्री वाई.बी. चह्वाण मौजूद थे.

मानेकशॉ के मुताबिक, इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में शरणार्थियों के आने के संबंध में पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की तरफ से भेजी गई रिपोर्ट को मेज पर पटकते हुए गुस्से में पूछा था, ‘आप कर क्या रहे हैं?’

उन्होंने कहा था, ‘मैं चाहती हूं कि आप पूर्वी पाकिस्तान जाएं’, इसके जवाब में मानेकशॉ ने कहा, ‘इसका मतलब तो जंग है.’

तब प्रधानमंत्री बोलीं, ‘अगर यह युद्ध है तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है.’

पूर्व विदेश सचिव जे.एन. दीक्षित की किताब ‘लिबरेशन एंड बियांड: इंडो-बांग्लादेश रिलेशन’ को लांच किए जाने के मौके पर मानेकशॉ ने बीती बातों को याद करते हुए कहा था, ‘मेरे पास केवल 30 टैंक और दो बख्तरबंद डिवीजन हैं. हिमालयन दर्रे कभी भी खुल सकते हैं. क्या होगा अगर चीन को चुनौती खड़ी कर दे? पूर्वी पाकिस्तान में अब बारिश शुरू होगी. जब वहां बारिश होती है तो नदियां उफान पर आ जाती हैं. मैं कह सकता हूं कि इस समय युद्ध में हार सुनिश्चित है.’

उनके मुताबिक, गांधी ने बैठक शाम 4 बजे तक स्थगित कर दिया, लेकिन उन्हें रोक लिया. तब मानेकशॉ ने पूछा, ‘क्या मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य के आधार पर मैं अपना इस्तीफा भेज दूं.’ लेकिन गांधी ने सेना प्रमुख को अपनी रणनीति के बारे में विस्तार से बताने के लिए समय दे दिया.

हालांकि, चंद्रशेखर दासगुप्ता अपनी किताब में लिखते हैं कि हालांकि, इंदिरा गांधी पर अप्रैल 1971 में युद्ध में हस्तक्षेप देने के लिए अपने कुछ कैबिनेट सहयोगियों की तरफ से काफी दबाव था लेकिन उन्होंने जंग की शुरुआत के लिए कुछ महीनों तक प्रतीक्षा करने का मन बना लिया था.

उन्होंने उस समय उनके प्रमुख सलाहकार रहे पी.एन. हक्सर को उद्धृत करते हुए कहा, ‘हम मौजूदा स्थिति में सशस्त्र हस्तक्षेप पर विचार नहीं कर सकते हैं..इस पर दुनियाभर में प्रतिकूल प्रतिक्रिया होगी और बांग्लादेश अभी इस वजह से दुनिया में जो सहानुभूति और समर्थन हासिल कर रहा है, वो भारत-पाक जंग के बीच खत्म हो जाएगा.’

जैसा कार्नेगी इंडिया के निदेशक रुद्र चौधरी ने दिप्रिंट के लिए अपने लेख में लिखा है, दासगुप्ता अपनी पुस्तक में कहते हैं कि ‘किस्सागोई में माहिर’ मानेकशॉ ने ‘इस बारे में बढ़ा-चढ़ाकर एक कहानी सुनाई थी कि कैसे उन्होंने श्रीमती गांधी को अप्रैल में भारतीय सेना को पूर्वी पाकिस्तान की तरफ तरफ कूच करने का आदेश देने से रोक दिया था.’

हालांकि, उन्होंने यह भी नोट किया कि इंदिरा गांधी की जीवनी लिखने वाली पुपुल जयकर और अन्य जीवनीकारों ने इस घटनाक्रम पर मानेकशॉ के वर्जन की पुष्टि ही की है.

एक सैन्य इतिहासकार एयर वाइस मार्शल अर्जुन सुब्रमण्यम (सेवानिवृत्त) ने दिप्रिंट से बातचीत के दौरान अचरज जताते हुए कहा कि यह फील्ड मार्शल मानेकशॉ की विरासत और सैन्य सलाह को ‘कमजोर करने के प्रयास’ है जिसे वह अंततः बांग्लादेश के निर्माण के अहम भूमिका निभाने वाली मानते हैं.

उन्होंने कहा कि किसी भी सैन्य लेखक की लिखी किसी भी किताब या लेख में प्रधानमंत्री कार्यालय या इंदिरा गांधी, जो उस समय प्रधानमंत्री थी और निर्णय लेने के लिए अधिकृत थीं, का क्रेडिट लेने की कोशिश नहीं की है.

हालांकि, सुब्रमण्यम ने माना कि सेना संस्थागत तौर पर कोई स्पष्ट रिकॉर्ड पेश करने में सक्षम नहीं है, क्योंकि इन महत्वपूर्ण चर्चाओं का कोई रिकॉर्डेड मिनट अब तक सामने नहीं आया है.

उन्होंने कहा, ‘1971 का युद्ध पूरी तौर पर सरकारी नजरिये पर केंद्रित था. इसका मतलब है कि सैन्य नेतृत्व के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने भी इस प्रक्रिया में पूरी हिस्सेदारी निभाई थी.


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जंग की शुरुआत

वैसे तो 1971 का युद्ध आधिकारिक तौर पर उस वर्ष 3 दिसंबर को शुरू हुआ था, लेकिन दरअसल इसकी शुरुआत और ज्यादा नहीं तो कम से कम दो दशक पहले तो हो ही चुकी थी.

पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष का तात्कालिक कारण तानाशाह जनरल याह्या खान की तरफ से चुनाव बाद अपनाया गया रुख था लेकिन इसकी शुरुआत तो फरवरी 1948 में ही हो चुकी थी. जब पाकिस्तानी सरकार ने उर्दू को आधिकारिक राष्ट्रीय भाषा घोषित किया था. इस फैसले से पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला भाषी लोग भड़क गए और उन्होंने विद्रोह कर दिया.

इस फैसले के खिलाफ पहला विरोध प्रदर्शन 11 मार्च 1948 को ढाका यूनिवर्सिटी में हुआ, जिसमें उस समय यूनिवर्सिटी के छात्र रहे शेख मुजीबुर रहमान ने अहम भूमिका निभाई थी. इस प्रदर्शन के दौरान पुलिस फायरिंग ने विरोध को और भड़का दिया. और हिंसा के लंबे दौर के बाद अंततः बांग्लादेश का निर्माण हुआ.

Infographic: ThePrint Team
इन्फोग्राफिक: दिप्रिंट टीम

इस आग में घी डालने का काम पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने किया, जिन्होंने 21 मार्च 1948 को ढाका का दौरा किया और घोषणा की कि ‘सिर्फ और सिर्फ उर्दू’ ही पाकिस्तान की आधिकारिक भाषा होगी.

1958 में तख्तापलट के दौरान राष्ट्रपति बने जनरल अयूब खान के कार्यकाल के दौरान पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच तनातनी तो बढ़ी लेकिन यह विवाद जनरल याह्या खान के कार्यकाल के दौरान चरम पर पहुंच गया.

याह्या खान ने 1970 के चुनावों के बाद संसद की बैठक बुलाने से इनकार कर दिया था जिसमें मुजीबुर रहमान के नेतृत्व वाली पूर्वी पाकिस्तान की पार्टी अवामी लीग ने जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के खिलाफ निर्णायक जीत हासिल की थी.

‘ऑपरेशन सर्चलाइट’

अनुषा नंदकुमार और संदीप साकेत अपनी किताब ‘द वॉर दैट मेड रॉ’ में लिखते हैं कि पूर्वी पाकिस्तान में दमन की साजिश लरकाना में बैठकर रची गई थी जो जुल्फिकार अली भुट्टो का गृहनगर था.

किताब के मुताबिक, चुनाव बाद हतोत्साहित याह्या खान और भुट्टो डक-शूटिंग के लिए लरकाना की यात्रा पर गए थे.

किताब के मुताबिक, ‘वहां, गोलियों की आवाज के बीच लरकाना की साजिश रची गई. यह पूर्वी क्षेत्र में जारी प्रतिरोध को एक बार कुचलकर रख देने और बेहद क्रूरता के साथ हमेशा के लिए सबक सिखाने की निर्णायक योजना थी. इसका उद्देश्य पूर्वी पाकिस्तान को नई सरकार से वंचित करना और वहां अराजकता कायम करना था ताकि पश्चिमी पाकिस्तान वहां पर पूरी तरह नियंत्रण हासिल कर सके.’

1971 की शुरुआत में भारत की नवगठित खुफिया एजेंसी—रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) की अध्यक्षता जाने-माने भारतीय जासूस रामेश्वर नाथ काओ कर रहे थे, जो 1968 में इंटेलिजेंस ब्यूरो में डिप्टी डायरेक्टर थे, जब उन्हें नया संगठन बनाने की जिम्मेदारी मिली थी. रॉ को पाकिस्तान और श्रीलंका से इनपुट मिलना शुरू हो गया था कि कई वाणिज्यिक उड़ानें पश्चिम से पूर्वी पाकिस्तान की ओर जा रही हैं जो कोलंबो में रुककर ईंधन लेती हैं.

काओ को संदेह था कि बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान के लिए पश्चिमी पाकिस्तान से सैनिकों को पूर्वी पाकिस्तान भेजा जा रहा है.

25 मार्च 1971 को पाकिस्तानी सेना ने आधिकारिक तौर पर लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खान के नेतृत्व में नरसंहार के लिए ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ नामक अभियान शुरू किया, जिसके तहत एक ही रात में 7,000 निहत्थे, निर्दोष बंगालियों को मार डाला गया.

यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा. फ्रैंक जैकब द्वारा संपादित किताब ‘जेनोसाइड एंड मास वायलेंस इन एशिया’ में बताया गया है कि एक बार जब पाकिस्तानी सेना ने महसूस किया कि संभ्रांतों को निशाना बनाने से यह लड़ाई किसी नतीजे पर पहुंचने वाली नहीं है तो जनरलों और उनकी सैनिकों ने इसका तरीका बदल दिया और बंगाली महिला आबादी को सक्रिय रूप से निशाना बनाने और उनके साथ बलात्कार शुरू कर दिया.

इसमें कहा गया है, ‘यह नीति बंगाली समाज के पुरुषों और महिलाओं को मनोवैज्ञानिक रूप से तोड़ने की उम्मीद में अपनाई गई थी.’

जैसे-जैसे दिन बीतते गए, पूर्वी पाकिस्तान से लाखों-लाखों शरणार्थी भारत आने लगे. यह भारत के लिए एक बड़ा संकट था और वह चुपचाप बैठकर सब कुछ देखता नहीं रह सकता था.

यह तब था जब इंदिरा गांधी ने 29 अप्रैल को कैबिनेट की बैठक बुलाई थी.

अप्रैल से अगस्त तक सेना ने बनाई योजना

यह पूछे जाने पर कि मानेकशॉ ने समय क्यों मांगा, उस समय के ख्यात लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह के एडीसी रह चुके मेजर जनरल रणधीर सिंह (रिटायर्ड)—जो ‘ए टैलेंट फॉर वॉर-द मिलिट्री बायोग्राफी ऑफ लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह’ के लेखक भी हैं—ने दिप्रिंट को बताया कि सैन्य ऑपरेशन की योजना बनाई जानी थी.

रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े सूत्रों ने कहा कि सेना पश्चिमी सीमाओं पर ध्यान केंद्रित करती आ रही थी, और चीन और पूर्वी पाकिस्तान के साथ सीमा पर किसी भी पूर्ण सैन्य अभियान के बारे में सोचा तक नहीं गया था.

हालांकि, रॉ ने पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान दोनों के घटनाक्रम पर कड़ी नजर बना रखी थी और और नियमित रूप से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ब्रीफिंग दी जा रही थी.

रणधीर सिंह ने बताया कि अगस्त में जाकर लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह ने ऑपरेशन संबंधी निर्देश मिले, और सितंबर में वह त्रिपुरा रवाना हो गए.

उन्होंने कहा कि हालांकि ऑपरेशनल निर्देश अगस्त में जारी किए गए लेकिन सेना प्रमुख मानेकशॉ ने सेना की आवाजाही आसान बनाने के लिए सीमा सड़क संगठन के कर्मियों को सड़कें और पुल बनाने के आदेश पहले ही दे दिए थे.

लेफ्टिनेंट जनरल सिंह, जो 4 कोर के प्रमुख थे, को 8 और 57 माउंटेन डिवीजन और उनकी रिजर्व 23 माउंटेन डिवीजन दी गई थी.

संयोग से, पूर्वी पाकिस्तान में सबसे महत्वपूर्ण जिम्मा 4 कोर को मिला था और उसने उत्तर में सिलहट से दक्षिण में चटगांव तक फैले क्षेत्र में मोर्चा संभाल लिया था. इस क्षेत्र में दो पाकिस्तानी डिवीजन तैनात की गई थीं.

एवीएम सुब्रमण्यम (सेवानिवृत्त) ने कहा कि लेफ्टिनेंट जनरल सिंह वह व्यक्ति थे जिन्होंने अंततः ढाका पर कब्जे के लिए पूरे दृढ़ संकल्प के साथ अपने हेलिबोर्न ऑपरेशन को अंजाम दिया, जो कि मूल योजना का हिस्सा नहीं था.

भारतीय सेना के अपने रिकॉर्ड के मुताबिक, पूर्वी मोर्चे पर उसने युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना की चार डिवीजन और 30,000 अर्ध-सैन्य बलों को हराया.

पूर्वी क्षेत्र के अभियान में भारतीय सेना की तीन कोर और 101 कम्युनिकेशन जोन एरिया में भी अहम भागीदारी निभाई.

20 माउंटेन डिवीजन और 71 माउंटेन ब्रिगेड वाली 33वी कोर ने जमुना और पद्मा नदियों के बीच पूर्वी पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी सेक्टर में ऑपरेशन चलाया.

सेना का रिकॉर्ड बताता है कि ब्रिगेड पचगढ़-ठाकुरगांव की तरफ आगे बढ़ी. इस डिवीजन ने सेक्टर में सबसे अहम क्षेत्र माने जाने वाले पहाड़ी क्षेत्र पर हमला किया.

33वी कोर ने 16 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना के गढ़ रंगपुर और बोगरा पर भी कब्जा जमा लिया.

2 कोर ने पूर्वी पाकिस्तान के दक्षिण-पश्चिमी सेक्टर में सफलता के साथ अपने अभियान को अंजाम दिया.


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जंग के साथ-साथ और भी मोर्चे संभाले

इस जंग के दौरान अलग से भी कई मोर्चों पर लड़ाई चलती रही जो इतिहास में वीरता के कुछ बेहतरीन क्षणों के रूप में दर्ज हैं.

ऐसी ही एक घटना थी लोंगेवाला की लड़ाई, जिसमें उस समय मेजर रहे कुलदीप सिंह चांदपुरी और उनके 100 से अधिक सैनिकों के एक छोटे से समूह ने 40 से ज्यादा टैंकों से लैस लगभग 2,000 पाकिस्तानी सैनिकों के खिलाफ जमकर जंग लड़ी और राजस्थान स्थित लोंगेवाला सीमा चौकी को बचाया. लोंगेवाला की लड़ाई पर आधारित 1997 की हिट फिल्म बॉर्डर ने जंग में चांदपुरी के वीरता को दिखाया है.

Map: Soham Sen | ThePrint
नक्शा: सोहम सेन | दिप्रिंट

1971 के युद्ध की एक और लड़ाई बसंतर में लड़ी गई थी, जिसे भारतीय सेना द्वारा लड़ी गई सबसे बड़ी टैंक बैटल माना जाता है.

इस युद्ध के लिए मिले चार प्रमुख परमवीर चक्रों में से दो 3 ग्रेनेडियर्स के मेजर होशियार सिंह और सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल (मरणोपरांत) को दिए गए थे.

पैराशूट रेजिमेंट की दूसरी बटालियन के ऑपरेशन की भी इस युद्ध में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. जमालपुर-तंगेल-ढाका रोड पर पोंगली ब्रिज और लौहाजंग नदी की फेरी साइट पर कब्जे के ले एक से ज्यादा बटालियन उतारी गई थी और इसे ‘तांगेल ऑपरेशन’ के नाम से जाना जाता है.

करीब 600 सैनिकों को पैराशूट के साथ उतरते देखना भी हतप्रभ कर देने वाला दृश्य था. सूचना अधिकारी राममोहन राव, जो बाद में रॉ में रहे, की लीक से हटकर सोच ने युद्ध को अपेक्षित समय से पहले खत्म कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

Map: Soham Sen | ThePrint
नक्शा: सोहम सेन | दिप्रिंट

नंदकुमार और साकेत ने अपनी पुस्तक ‘द वॉर दैट मेड रॉ’ में लिखा है कि राव को एक तस्वीर मिली जिसमें आगरा में लगभग 5,000 सैनिकों के एक ब्रिगेड के हिस्से के तौर पर दिखाया गया था.

उस समय मीडिया प्रचार का काम संभाल रहे राव ने 12 दिसंबर को आगरा के कार्यक्रम की तस्वीर को तांगेल एयरड्रॉप की खबर के साथ सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों को भेजी.

किताब में बताया गया है, ‘उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति में जानबूझकर इस बात का उल्लेख नहीं किया कि यह एक ‘फाइल फोटो’ थी. केवल काओ को पता था कि पीआर अधिकारी ने क्या किया है. इसका उन पाकिस्तानी सैनिकों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा जो पहले से ही दबाव में थे.’

नौसेना की भूमिका

भारत का नौसैनिक आक्रमण 4 दिसंबर को शुरू हुआ जब आईएनएस विक्रांत के विमान और पूर्वी बेड़े के जहाजों ने पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य ठिकानों पर हमला किया.

हमले में, कॉक्स बाजार हवाई क्षेत्र ध्वस्त हो गया था और चटगांव बंदरगाह पर छह पाकिस्तानी जहाजों को नष्ट कर दिया गया.

विक्रांत को निशाना बनाने की कोशिश कर रही पाकिस्तानी पनडुब्बी ‘गाजी’ विशाखापत्तनम के तट पर डूब गई.

पश्चिमी बेड़े के जहाजों ने 4-5 दिसंबर को कराची बंदरगाह पर हमला किया और तीन जहाजों को नष्ट कर दिया और बंदरगाह पर स्थित तेल प्रतिष्ठानों को भी नुकसान पहुंचाया.

8 दिसंबर को कराची बंदरगाह पर फिर हमला किया गया, जबकि एक नौसैनिक टास्क फोर्स ने मकरान तट पर कई तरफ से छापा मारा और एक पाकिस्तानी व्यापारिक जहाज पर कब्जा कर लिया.

नौसेना के इतिहासकार और सेवारत अधिकारी, कोमोडोर श्रीकांत केसनूर ने दिप्रिंट को बताया, ‘एक तरह से इसे दो मोर्चों की जंग कहा जा सकता है और नौसेना ने दोनों तरफ से पाकिस्तान को घेर लिया था. हमने उनकी संचार की समुद्री लाइनों को बंद कर दिया और उनके भागने के मार्गों को काट दिया. इसकी वजह से ही इतनी बड़ी संख्या में उनके सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा.’

उन्होंने कहा, ‘युद्ध की समाप्ति तक नौसेना ने न केवल पाकिस्तान को सैन्य बल के स्तर पर क्षति पहुंचाई बल्कि मानसिक तौर पर भी तोड़ दिया.’

1971 की जंग में शानदार नौसैनिक अभियान का श्रेय तत्कालीन नौसेना प्रमुख एडमिरल एस.एम. नंदा को दिया जाता है. कोमोडोर केसनूर ने कहा, ‘एडमिरल नंदा जंग के एक उत्कृष्ट नायक थे. वह साहसी होने के साथ-साथ दुस्साहसी भी थे.’


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वायुसेना ने पूर्व में पाकिस्तान की धूल चटाई, पश्चिम में उलझाए रखा

1971 का युद्ध आधिकारिक तौर पर 3 दिसंबर को घोषित किया गया था जब पाकिस्तानी वायु सेना ने पश्चिमी सीमाओं पर भारतीय वायुसेना के ठिकानों पर बिना उकसावे के हमले शुरू किए.

संयोग से, रॉ पहले ही सभी संबंधित पक्षों को पाकिस्तान की हवाई हमले की योजना के बारे में सचेत कर चुका था और 1 दिसंबर को हमले होने की संभावना जताई गई थी.

भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के दोनों छोरों पर निशाने साधने के लिए पश्चिम में 4,000 और पूर्व में 1,978 उड़ानें भरीं.

भारत और पाकिस्तान के बीच हवाई जंग दरअसल 22 नवंबर 1971 को ही शुरू हो गई थी, जब दोपहर लगभग दो बजकर 49 मिनट पर चार पाकिस्तानी सेबर विमानों ने चौगाचा मोर क्षेत्र में भारतीय और मुक्ति वाहिनी की चौकियों पर हमला किया था.

10 मिनट के भीतर ही पाकिस्तानी जेट तीसरे स्ट्राफिंग रन पर थे इन सेबर को 22वीं स्क्वाड्रन के चार जीनैट द्वारा रोका गया, जिसकी एक टुकड़ी दम दम हवाईअड्डे, कलकत्ता से ऑपरेट कर रही थी.

सेबर विमानों में से तीन को मार गिराया गया और सभी जीनैट सुरक्षित बेस पर लौट गए.

वायु सेना में गहरी दिलचस्पी रखने वाले एक सैन्य इतिहासकार जगन पिल्लरिसेटी ने दिप्रिंट को बताया, ‘इसमें कोई दो-राय नहीं कि 1971 के युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना ने अहम भूमिका निभाई. इसने पूर्वी क्षेत्र में जंग को भारत के पक्ष में ला दिया और यह सुनिश्चित किया कि पाकिस्तानी जेट पश्चिमी क्षेत्र में रक्षात्मक भूमिका में बने रहें. नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तानी सेना जमीन पर भारतीय सैन्य बलों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाई.’

वेबसाइट www.bharat-rakshak.com चलाने वाले पिल्लरिसेटी ने कहा कि भारतीय वायुसेना ने इस युद्ध में पाकिस्तानी वायु सेना की तुलना में अधिक विमान खोए, लेकिन यह जगजाहिर है कि एक आक्रामक अभियान था.

उन्होंने कहा कि लगातार हवाई हमलों ने पाकिस्तानी सेना के मनोबल को प्रभावित किया.

भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के मुताबिक, पश्चिमी मोर्चे पर इसका पहला काम दुश्मन के संचार तंत्र को बाधित करना, ईंधन और गोला-बारूद के भंडार को नष्ट करना और जमीनी स्तर पर सेना को मजबूत होने देने से रोकना था, ताकि वह भारत के खिलाफ कोई बड़ा आक्रमण करने में सक्षम न हो पाए. भारतीय सेना ने मुख्य तौर पर पूर्वी मोर्चे को संभाल रखा था.

पूर्वी मोर्चे पर, आईएएफ की भूमिका जमीन पर मौजूद सैन्य बलों की मदद करने की थी जिसमें तीन दिशाओं से बख्तरबंद और इंफैन्ट्री के आगे बढ़ने समेत हवाई और हेलीबोर्न हमले, जहाजों से मिसाइल की बमबारी और एम्फीबियस लैंडिंग समेत कई ऑपरेशन चलाना था.

वायुसेना ने इस जंग में अपना पहला और एकमात्र परमवीर चक्र भी जीता. फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों कश्मीर घाटी को पाकिस्तान के हवाई हमलों से बचाने के लिए श्रीनगर में तैनात एक जीनैट टुकड़ी के पायलट थे.

14 दिसंबर 1971 को छह पाकिस्तानी सैबर लड़ाकू विमानों ने श्रीनगर हवाई क्षेत्र पर हमला किया. जैसे ही उन्होंने हवाई क्षेत्र पर बमबारी शुरू की, उस समय ड्यूटी पर तैनात सेखों ने तुरंत उड़ान भरी, और अकेले ही उन सबसे अकेले ही मोर्चा ले लिया.

उन्होंने एक विमान को मार गिराया और दूसरे में आग लग गई. अंतत: वह खुद भी पाकिस्तानी विमानों का निशाना बने और शहीद हो गए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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