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Saturday, 20 April, 2024
होमदेशमेरे पिता 1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध के अहम आर्किटेक्ट थे- सैम मानेकशॉ को ऐसे याद कर रही हैं उनकी बेटी

मेरे पिता 1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध के अहम आर्किटेक्ट थे- सैम मानेकशॉ को ऐसे याद कर रही हैं उनकी बेटी

मानेकशॉ मंत्र दिया करते थे कि अगर किसी के दिमाग में पहले से जीत को भर दिया जाए तो वो कभी मैदान में फेल नहीं होता. 1971 की इतनी बड़ी जीत उसका ही एक परिणाम थी.

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नई दिल्ली: ‘मैं युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहता हूं.’ ये उस जांबाज के शब्द हैं जिसकी ‘रण’नीतिक सूझ बूझ की दुनिया कायल है. इस सेनापति ने महज 13 दिनों में पाकिस्तान की बड़ी सेना को घुटने पर ला दिया था. देश 1971 के भारत पाकिस्तान के युद्ध की विजयी गाथा जब-जब सुनाएगा तो सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ और पूरी सेना को झुकझुक कर सलामी देगा.

स्वर्णिम विजय पर्व का वो आर्किटेक्ट

आज 1971 युद्ध के 50 साल पूरे हो गए और देश इस दिन को स्वर्णिम विजय पर्व के रूप में मना रहा है.

इस दिन को याद करते हुए दिप्रिंट ने उस समय भारतीय सेना के अध्यक्ष जनरल मानेकशॉ की भूमिका के बारे में उनकी बेटी माया दारूवाला से बातचीत की. दारूवाला कहती हैं, ‘यह किसी एक की जीत नहीं है बल्कि इंदिरा गांधी, उस समय के सांसद, ब्यूरोक्रैट्स और सेना के जवानों की हिम्मत और शहादत भी बराबर की हिस्सेदार है.’

माया 1971 युद्ध के दौरान 26 साल की थीं. वह कहती हैं, ‘जनरल जंग के मैदान में नहीं उतरते लेकिन तिरंगे की शान में कोई कलंक न लगे इसके लिए जोश भरने का काम उनका ही होता है.’

वह आगे कहती हैं, ‘ 93 हजार सैनिकों को घुटने पर लाने का काम उनकी एक स्ट्रैटजी का ही नतीजा था लेकिन वह अकेली उनकी या सेना, नेवी और वायुसेना की सफलता थी बल्कि उस समय की राजनीतिक समझ और तीनों सेनाओं सूज बूझ का नतीजा थी.

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‘हां, मेरे पिता इस जीत के अहम आर्किटेक्ट जरूर थे.’

मेरे पिता जब सेना को संबोधित करते थे तो वो सैनिकों में जोश भरते हुए एक बात जरूर कहते थे कि जब हम संगठित होकर एक काम करते हैं तो हमारी जीत सुनिश्चित हो जाती है.

वह एक नेक इंसान थे. जब सेना पाकिस्तान से लड़ रही थी तो उन्होंने जवानों को चेतावनी दी थी कि आप फील्ड में हैं…’जंग के मैदान में औरतें भी होंगी और बच्चे भी होंगे..क्रूरता नहीं करनी हैं..उनके प्रति व्यवहार हमेशा अच्छा रखना है.’

वह अपने पिता के सेना को दी गई उस सीख को याद करते हुए बताती हैं कि यदि आप इतिहास के पन्नों को पलटेंगी तो आप पाएंगी इतने बड़े युद्ध में हमारी सेना की तरफ कोई उंगली नहीं उठा सकता है. सेना ने अपना काम किया और वापस आ गई..न कोई लूटमार की शिकायत न ही अत्याचार और क्रूरता की.


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93,000 सैनिक और वो तीन दिन

वह कहती है कि बल्कि हमारी सेना इसलिए याद की जाती है कि भारतीय सेना के सामने जब पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण किया तब हमने 93000 सैनिक को 2-3 दिन तक न केवल बांग्लादेशियों से बचाया महीनों तक उनके खाने पीने का भी ख्याल रखा.

अपने नाती के साथ एक बातचीत में मानेकशॉ यह कहते भी सुने जा रहे हैं कि उन्हें 93 हजार सैनिकों के लिए उस समय राजनेताओं और ब्यूरोक्रैट्स ने किस तरह से ट्रोल किया था. कुछ ने तो उन बंदी सैनिकों को मानेकशॉ का दामाद तक कह दिया था. लेकिन शॉ ने इसका बुरा नहीं माना और कहा कि वो सैनिक है और उन्होंने अच्छा युद्ध लड़ा है उनकी रिसपेक्ट की जानी चाहिए.

वह मैदान में मौजूद हर सैनिक को कहते थे कि ‘जीतना तो निश्चित है उसमें शक नहीं होना चाहिए.’ शायद यही जज्बा था कि हमने इतनी बड़ी जीत हासिल की कि जीत के 50 साल बाद भी मानेकशॉ को याद किया जा रहा है.

माया कहती हैं, ‘ फील्ड मार्शल को लेकर बुद्धिजीवी काफी कंट्रोवर्सी कर रहे हैं जो दुखी करने वाला है…लेकिन वह हमेशा कहते थे हम मैदान में जीतने के लिए उतरते हैं और मेरा दायित्व इससे भी बड़ा है और जिम्मेदारी भी बड़ी हो जाती है.

जिस समय इंदिरा गांधी ने उन्हें पाकिस्तान से युद्ध के लिए कहा था वह अप्रैल का महीना था . जब मानेकशॉ ने सिरे से देश की प्रधानमंत्री को उस युद्ध के लिए मना कर दिया था..उन्होंने कहा था,’ हिमालयन पैसेज खुल रहे थे और चीन ने हमें चेतावनी दी थी.

मैंने उनसे कहा-मॉनसून कुछ दिनों में उस तरफ आने वाला है और जब उस रीजन में मॉनसून आता है तो उस दौरान नदियां समुद्र जैसी बन जाती हैं.

‘आप नदी के एक किनारे पर खड़े होते हैं आप उसका दूसरा किनारा नहीं देख पाते हैं. मॉनसून पूरे चरम पर होगा और सेना का मूवमेंट सड़क के द्वारा होगा..और इस दौरान अगर हम युद्ध करते हैं तो मैं गारंटी देता हूं कि हम 100 फीसदी हारने जा रहे हैं.’

अपनी बात रखते हुए जब गांधी ने मीटिंग के बाद मानेकशॉ से रुकने के लिए कहा तो मानेकशॉ ने गांधी से पूछा था,’ क्या आपका मुंह खुलने से पहले मैं अपना इस्तीफा सौंप दूं. मानसिक, शारीरिक और स्वास्थ्य के नाम पर.’

तब सैम ने गांधी से कहा था,’ हम जब युद्ध के मैदान में जाते हैं तो जीतने के लिए जाते हैं.’

उस समय उन्होंने एक स्ट्रैटजी बनाई थी जिसमें न केवल मॉनसून से लेकर बाढ़ तक की आने वाली परेशानियों का जिक्र किया था और इस बीच उन्होंने सेना के लिए काफी तैयारियां भी की थीं.

दारूवाला बताती हैं कि इन छह महीनों में मानेकशॉ ने न केवल भारतीय सेना के लिए युद्ध के मैदान के लिए तैयारियां की बल्कि सेना और मैदान में उतरने वाले हर एक जवान के दिमाग में जीत की शक्ति भर दी थी.

वो हमेशा कहते थे अगर दिमाग में पहले से जीत को भर दिया जाए तो वो कभी मैदान में फेल नहीं होता और 1971 की इतनी बड़ी जीत उसका ही एक परिणाम है.

वही ब्रेन पावर है जो भारतीय सेना को शान में मिली और वो आज भी चमक रही है.

माया कहती हैं वह अपनी जिम्मेदारी समझते थे. वह कुर्सी की पावर को समझते थे लेकिन उन्होंने अपने काम में दखलअंदाजी पसंद नहीं की और न ही वो किसी दूसरे क्षेत्र में ही दखलअंदाजी करते थे.


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परिवार में कैसे थे देश के हीरो

माया मुस्कुराती हुई कहती हैं, ‘घर की हीरो मां थीं.’ फैमिली में सभी को बराबरी का अधिकार था, वह सभी को साथ लेकर चलने वाले थे. जब वो घर पर होते थे तो सेना की बात होती थी लेकिन युद्ध की नहीं. सेना अध्यक्ष घर में सेकेंड इन कमांड होते थे. अकसर लोगों के घर की डाइनिंग टेबल की हेड कुर्सी पर पुरुष बैठते थे लेकिन मेरे घर में उस कुर्सी पर मेरी मां बैठा करती थीं और पापा साइड वाली कुर्सी पर ही बैठते थे.

वह बताती हैं कि घर में हंसी खुशी का माहौल रहा हमेशा..हम बहुत भाग्यशाली हैं कि हम इस परिवार में जन्में. आज भी देश की जनता हमारे परिवार को बहुत आदर देती है.

फील्ड मार्शल से सम्मानित पहले भारतीय जनरल

सैम मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में हुआ था. सैम के पिता होर्मुसजी मानेकशॉ डॉक्टर थे. बताते हैं कि अपने पिता के खिलाफ जाकर जुलाई 1932 में मानेकशॉ ने भारतीय सैन्य अकादमी को ज्वाइन किया और दो साल बाद 4/12 फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट में भर्ती हुए.

मानेकशॉ को 59 साल की उम्र में फील्ड मार्शल की उपाधि से नवाजा गया. यह सम्मान पाने वाले वह पहले भारतीय जनरल थे. 1972 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया और एक साल बाद 1973 में वह सेना प्रमुख के पद से रिटायर हो गए. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने अपने रहने के लिए तमिलनाडु को मुफीद पाया. और अपना आखिरी दिन उन्होंने वेलिंग्टन में ही बिताया. वर्ष 2008 में उनका निधन हो गया.

सैम जैसे लोग देश के लिए मिसाल होते हैं. उन्हें सिर्फ एक दिन या किसी खास मौकों पर याद नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उनकी वीरगाथा देश के हर युवा तक पहुंचे इसके लिए काम किए जाने की जरूरत है. हालांकि सैम मानेकशॉ की वीरता की कहानी लेकर जल्द ही सिल्वर स्क्रीन पर विकी कौशल सैम बहादुर के रूप में नजर आने वाले हैं.


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