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Saturday, 21 December, 2024
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3000 रुपये की वसूली के लिए 50 साल में मुकदमेबाजी के 5 दौर: SC क्यों चाहता है कि कानून के छात्र इस केस को पढ़ें

पचास साल पहले, 1971 में, पश्चिम बंगाल की एक महिला ने एक व्यक्ति से 3,000 रुपये की वसूली की मांग की थी. अब करीब 50 साल के बाद आखिरकार यह मामला खत्म हो पाया, सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को 'कभी न थकने वाला विक्रमादित्य' बताया.

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नई दिल्ली: 3,000 रुपये की वसूली के लिए किये गए एक दीवानी मुकदमे के निष्पादन से जुड़ा एक 50 साल पुराना विवाद आखिरकार मंगलवार को पांच दौर की मुकदमेबाजी के बाद समाप्त हो ही गया. सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें इस वसूली को पर रोक लगाने की मांग की गई थी.

इस सारे विवाद की शुरुआत 1971 में हुई जब पश्चिम बंगाल के बोंगांव जिले में रहने वाली रमा रवि देवी नाम की एक महिला ने मुंसिफ कोर्ट में ससाधर बिस्वास के खिलाफ 3,000 रुपये की वसूली के लिए एक दीवानी मुकदमा दायर किया. रमा देवी ने 1974 में ही यह मुकदमा जीत लिया था और अदालत द्वारा बिस्वास को छह किश्तों में इस राशि वापस करने के लिए कहा गया था.

हालांकि, बिस्वास इसे वापस चुकाने में असमर्थ रहा और रमा देवी ने अदालत के आदेश को लागू करवाए जाने हेतु एक नयी याचिका दायर की, जिसमें बिस्वास की 7,450 वर्ग फुट की संपत्ति को कुर्क करने के लिए कहा गया था, जिसका मूल्य उस पर बकाया राशि के बराबर थी. जुलाई 1975 में इस जमीन की बिक्री की उद्घोषणा भी जारी की गई, जिसे बिस्वास ने तथ्यात्मक अनियमितता और धोखाधड़ी के आधार पर चुनौती दी थी.

अपनी संपत्ति की बिक्री की घोषणा के खिलाफ बिस्वास द्वारा दायर की गयी चुनौती को सितंबर 1975 में खारिज कर दिया गया. इसके चार साल बाद, इस भूखंड की नीलामी की गयी और दो भाइयों, सचिंद्र नाथ मुखर्जी और दुलाल कांति मुखर्जी, ने उस पर सबसे ऊंची बोली लगते हुए इस जमीन के बदले 5,500 रुपये देने की पेशकश की.

इसके बाद ही यह 50 साल पुराना विवाद असल में शुरू हुआ जिसे बिस्वास और उसके बाद उसके कानूनी उत्तराधिकारियों ने इस बिक्री पर रोक लगाने के लिए दीवानी अदालतों और अंततः सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा.

मंगलवार को इस मामले की सुनवाई के दौरान, जस्टिस हेमंत गुप्ता और वी. रामसुब्रमण्यम की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह टिप्पणी की कि इस मामले को लॉ स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना चाहिए ताकि कानून के छात्र दीवानी मामलों के तहत जारी किये गए आदेशों के निष्पादन से संबंधित प्रावधानों से अच्छी तरह परिचित हो सकें.

जिस हठधर्मिता के साथ मूल याचिकाकर्ता और उसके कानूनी उत्तराधिकारियों ने 1971 के बाद से एक ‘साधारण धन वापसी आदेश’ पर लम्बी मुकदमेबाजी की, उसकी अदालत ने लोकप्रिय हिंदू पौराणिक कथाओं ‘विक्रम और बेताल’ के नायक ‘अथक विक्रमादित्य’ से की, जिन्होंने बेताल को पकड़ने के लिए बार-बार असफल होने के बाद भी प्रयास जारी रखे थे.

अदालत ने कहा कि वर्तमान अपील मुकदमेबाजी के पांचवें दौर का परिणाम है और याचिकाकर्ता ने आदेश के ‘निष्पादन को रोकने’ के लिए कानून के तहत उनके पास उपलब्ध सभी उपायों का उपयोग कर लिया है. साथ ही पीठ ने यह भी जोड़ा कि उसे उम्मीद है कि यह दौर अंतिम और निर्णायक साबित होगा.

अदालत ने याचिकाकर्ता द्वारा बार-बार याचिका दायर करने के तरीके पर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘किसी फैसले के आधार पर देनदार साबित (जजमेंट देबटोर) हुए वादी को किश्तों में बकाये के निष्पादन की विधि के ऊपर आपत्तियां उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है.’


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मुकदमेबाजी का पहला दौर

बिस्वास ने पहली बार जून 1979 में एक याचिका दायर की थी, जिसमें बिक्री की घोषणा में अनियमितता का आरोप लगाया गया था.

एक साल बाद, उन्होंने मुखर्जी भाइयों के साथ एक समझौता किया और उन्हें ‘उसके द्वारा देय पूरी राशि’ का भुगतान करने की पेशकश की, और जिसके बदले निष्पादन का आदेश रद्द कर दिया जाना था.

लेकिन चूंकि बिस्वास ने 5,500 रुपये का भुगतान न करके सिर्फ 3,700 रुपये का भुगतान किया, इसलिए 16 दिसंबर 1980 को अदालत ने उनके आवेदन को खारिज कर दिया.

इसके चार दिन बाद अचानक कोर्ट ने पलटी मारते हुए अपना आदेश वापस ले लिया. कोर्ट की इस समीक्षा पर नीलामी में सफल खरीदारों ने सवाल उठाया था, और उन्होंने अदालत के समक्ष एक आवेदन दायर किया जिसमें दावा किया गया था कि पहले के आदेश की वापसी का यह आदेश उनकी अनुपस्थिति में पारित किया गया था.

जब निचली अदालत ने सितंबर 1981 में मुखर्जी बंधुओं द्वारा दायर याचिका खारिज कर दी, तो उन्होंने पटना उच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने जून 1983 में इस मामले को फिर से सुनवाई के लिए निचली अदालत में भेज दिया.

इसके चार साल बाद, 1987 में निचली अदालत ने आदेश की वापस पर मुखर्जी बंधुओं द्वारा की गयी आपत्ति को खारिज कर दिया.

मुखर्जी बंधुओं ने एक बार फिर उच्च न्यायालय की शरण ली, जिसने दिसंबर 1990 में 1987 में ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश को रद्द कर दिया और नीलामी में हई बिक्री की पुष्टि की.

इसके बाद अगस्त 1991 में बिस्वास ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की और अगस्त 1992 में शीर्ष अदालत द्वारा उसके मामले को नकारे जाने के खिलाफ दायर उसकी समीक्षा याचिका को भी खारिज कर दिया गया.


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पांच दौर में से दूसरा दौर

मुकदमे के दूसरे दौर की शुरुआत में,बिस्वास ने अपनी संपत्ति की नीलामी को रद्द करवाने के लिए फिर से दीवानी अदालत का रुख किया. उसकी यह याचिका भी दिसंबर 1992 में खारिज कर दी गई थी.

इस बीच, नीलामी में सफल खरीदारों ने जमीन के बिक्री प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया लेकिन बिस्वास ने इसका भी विरोध करते हुए एक आवेदन दिया जिसमें आदेश के निष्पादन से सम्बंधित कार्यवाही पर रोक लगाने की मांग की गई थी.

फिर 31 जनवरी 1994 को दीवानी अदालत ने बिस्वास के दावे को खारिज करते हुए खरीदारों को बिक्री प्रमाण पत्र जारी करने का निर्देश दिया. हालांकि बिस्वास ने इसके खिलाफ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, लेकिन उसकी याचिका दायर होने के सात साल बाद इसे खारिज कर दिया गया.

बिस्वास और नीलामी में सफल खरीदारों के बीच चौथे दौर की मुकदमेबाजी तब शुरू हुई जब खरीदारों ने संपत्ति पर कब्जे के लिए आवेदन किया. चूंकि बिस्वास ने इस अवधि के दौरान इस जमीन पर एक इमारत का निर्माण कर लिया था इसलिए अदालत ने मार्च 2002 में इसे ध्वस्त करने का आदेश दिया.

इस समय तक बिस्वास के कानूनी वारिसों ने इस मुकदमे को अपने हाथ में ले लिया था और उन्होंने ईमारत के गिराए जाने पर रोक लगाने के लिए एक और आवेदन दिया. निचली अदालत और उच्च न्यायालय दोनों ने इस विध्वंस आदेश के खिलाफ दायर उनकी याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिय. इसके बाद ये कानूनी वारिस सुप्रीम कोर्ट गए और 2006 में वहां से भी अपना केस हार गए.

पांचवां दौर, जिसका पटाक्षेप इस मंगलवार को हुआ, 2006 में तब शुरू हुआ जब बिस्वास के कानूनी उत्तराधिकारियों ने यह कहते हुए दावा किया कि नीलाम की गई भूमि जमीन के उस हिस्से से अधिक थी जो आदेश में वर्णित राशि (डिक्री अमाउंट) को पूरा कर सकती थी, जो कि उस समय 3,300 रुपये थी. इसी के आधार पर उन्होंने पुरे निष्पादन आदेश को रद्द करने की मांग की.

हालांकि, दो निचली अदालतों के समवर्ती निष्कर्षों को बरकरार रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने मंगलवार के फैसले में कहा कि अतीत में भी कानूनी वारिसों के पास आपत्ति उठाने के लिए पर्याप्त अवसर थे और अब इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है, खासकर मुकदमे के चार दौर पूरे हो जाने के बाद.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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