अररिया: ‘हमने अपनी दो बकरियां 11,000 रुपए में बेंच दीं, 10,000 रुपए में गाय बेंची, ताकि माता-पिता का इलाज करा सकें,’ ये कहना था बिहार में अररिया ज़िले के रानीगंज ब्लॉक की निवासी, 18 वर्षीय सोनू कुमारी का. ‘लेकिन 25,000 रुपए ख़र्च करने के बाद भी (बाक़ी उन्होंने उधार लिए थे), हम उन्हें नहीं बचा पाए’.
सोनी और उसके दो भाई-बहन- 12 साल की बहन, और 14 साल का भाई- ने जल्द ही अपनी मां को भी खो दिया.
सोनी ने दिप्रिंट को बताया, ‘पिता के मरने के बाद, किसी ने हमें पैसा उधार नहीं दिया. हमारे पिता परिवार में अकेले कमाने वाले थे, और उनके जाने के बाद लोगों को आशंका थी, कि हम क़र्ज़ कैसे लौटा पाएंगे. हमे मजबूरन रानीगंज अस्पताल में, अपनी मां का इलाज बंद करना पड़ा, और 7 मई को उसकी भी मौत हो गई’.
चार दिन पहले ही उसके पिता की कोविड से मौत हुई थी.
बच्चे अपनी मां को अस्पताल से घर ले आए थे, जब उन्हें पता चला था कि अब वो, उसके इलाज का ख़र्च नहीं उठा सकते थे, लेकिन जब उसकी तबीयत बिगड़ी, तो उन्होंने उसे फिर अस्पताल ले जाने की कोशिश की. लेकिन वो रास्ते में ही ख़त्म हो गई.
पूरे गांव में कोविड की दहशत फैली हुई है, इसलिए सोनी और उसके भाई-बहन, अकेले ही अपनी इस आपदा को झेल रहे हैं, चूंकि गांव वालों ने उनसे सुरक्षित दूरी बनाकर रखी हुई है.
सोनी की बहन ने कहा, ‘अब घर सूना लगता है. इतने साल साथ गुज़ारे तो अब समझ में नहीं आ रहा कुछ’.
उनके पिता की बाइक घर के बाहर खड़ी है, जबकि दवाओं की छोटी सी दुकान जो वो चलाते थे, बंद पड़ी है.
बिहार के राजधानी शहर पटना से क़रीब 350 किलोमीटर दूर, बिशनपुर ग्राम पंचायत में 14 वॉर्ड्स हैं. सोनी के मां-बाप- 46 वर्षीय बीरेंद्र मेहता और 38 वर्षीय प्रियंका देवी- वॉर्ड नंबर 7 के निवासी थे, जिसमें 373 और परिवार रहते हैं.
महीने के शुरू में, वॉर्ड में सात कोविड मामले सामने आए थे, जिनमें बीरेंद्र और उसकी पत्नी भी शामिल थे. बाक़ी पांच मरीज़ अभी भी घर पर क्वारंटीन में हैं.
बीमारी से जुड़े कलंक और ग़लत जानकारियों के चलते, इस जोड़े के बच्चों को जल्दी से दफ्न करने का बंदोबस्त करना पड़ा. इससे उनका दुख और बढ़ गया है.
परिवार को राज्य सरकार से मुआवज़ा मिला है, जो कोविड मौतों से जुड़े परिवारों की सहायता के लिए, सरकारी पहल का हिस्सा है, लेकिन फिलहाल उनके दिमाग़ में पैसे का ख़याल दूर दूर भी नहीं है.
अचानक हुए अपने इस नुक़सान के बोझ से जूझते बच्चों ने, अपने भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचा है.
पिछले सप्ताह, केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (डब्लूसीडी) ने, स्वास्थ्य मंत्रालय से कहा था कि वो अस्पतालों से कहे, कि भर्ती हो रहे मां-बाप से लिखकर लिया जाए, कि उनकी मौत होने की सूरत में, उनके बच्चे किसके पास जाने चाहिएं. लेकिन, ये क़दम इतनी देर से आया, कि इस परिवार के किसी काम का नहीं था.
बिहार डब्लूसीडी के अतिरिक्त मुख्य सचिव, अतुल प्रसाद ने कहा कि राज्य सरकार ने, मई के शुरू में ही ज़िला मजिस्ट्रेटों को सावधान कर दिया था, कि कोविड से अनाथ हुए बच्चों के मामले में, राज्य की मौजूदा गाइडलाइन्स का पालन किया जाना चाहिए. प्रसाद ने कहा, ‘बिहार सरकार की एक स्कीम है परवरिश योजना, जिसके तहत ऐसे बच्चों की चाइल्ड केयर होम्स में देखभाल की जाएगी’. उन्होंने आगे कहा कि ऐसे मामलों में सबसे बड़ी चिंता ये होती है, कि बच्चे तस्करी में न फंस जाएं.
हालांकि प्रसाद ने ये ख़ुलासा नहीं किया, कि अररिया के बच्चों के मामले में क्या प्रक्रिया अपनाई जाएगी, लेकिन ये बच्चे बस उम्मीद ही कर सकते हैं, कि ये गाइडलाइन्स उनके मामले में भी लागू होंगी.
इस बीच, सोनी और उसके भाई-बहन, 16 मई को अपने मां-बाप के श्राद्ध का प्रबंध करने में लगे हैं, और उन्हें अपेक्षा है कि उनके नज़दीकी परिजन उसमें शरीक होने के लिए आएंगे.
यह भी पढ़ें: डॉक्टरों के ‘इनकार’ के चलते आरा और बक्सर में फार्मासिस्ट और ‘झोला छाप’ कर रहे हैं कोविड का इलाज
‘उन्हें दफनाना पड़ा, दाह संस्कार नहीं कर सके’
‘पापा डेड किया तो किसी ने खाना तक नहीं खिलाया’, ये कहना था 12 साल की बेसुध सी बच्ची का, उस कमरे में बैठी हुई, जो कभी उसके माता-पिता का हुआ करता था.
बीरेंद्र और प्रियंका ने अपने परिवार, और बच्चों को लेकर बहुत सपने पाल रखे थे. पति-पत्नी केवल कक्षा 8 तक पढ़े थे, लेकिन बच्चों ने याद किया कि वो चाहते थे, कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर अफसर बनें.
सोनी ने उस रेफ्रिजरेटर की तरफ इशारा किया, जो उसके पिता ने 2017 में ख़रीदा था. ‘वो कहा करते थे कि हम जल्दी ही, एक बड़ा पक्का घर बनाएंगे’.
बच्चों ने दिप्रिंट से बताया कि अस्पताल जाते समय, जब उनकी मां की मौत हुई, तो ‘ग्राम प्रधान सरोज कुमार मेहता ने कहा, कि ‘कोविड बॉडी को घर लाना ठीक नहीं है’.
सोनी ने कहा, ‘इसलिए हम उनके शव को भी पास के खेतों में ले गए, और उन्हें वहां दफ्न कर दिया’. कुछ दिन पहले ही, बच्चों को अपने पिता को भी उसी जगह दफ्नाना पड़ा था. उसने कहा, ‘गांव वालों ने कहा कि अगर हम शवों का दाह-संस्कार करेंगे, तो पूरा इलाक़ा संक्रमित हो जाएगा. इसलिए उन्हें दफ्नाना ही बेहतर रहेगा. मेरे चचेरे भाइयों ने क़ब्रें खोदीं, और जब कोई भी आदमी उन्हें श्रद्धांजलि देने नहीं आया, तो मैंने अपनी मां को भी पिता के पास ही दफ्न कर दिया’.
इस बीच, उसका भाई अपनी बहनों की मदद करने की कोशिश कर रहा है. वो अपने पिता का फोन अपने पास रखता है, और एनजीओज़ तथा सामाजिक कार्यकर्त्ताओं की फोन कॉल्स का जवाब देता है, जो उन्हें मदद पेश करने के लिए आती हैं.
बच्चों ने बताया कि उन्हें लोगों से सहायता प्राप्त हुई है.
सोनी ने कहा, ‘हमें बैंक से कोई 2,000 मैसेज प्राप्त हुए हैं, जिनमें उन पैसों की ख़बर दी गई है, जो लोगों ने हमारे लिए भेजे हैं. लेकिन अभी हम श्राद्ध की तैयारियों में लगे हैं, और उसके बाद ही बैंक जाएंगे’.
यह भी पढ़ें: ‘इससे तो अच्छा है घर पर मरें’—क्यों पटना के दो सरकारी अस्पतालों पर कोविड मरीजों को जरा भी भरोसा नहीं रहा
‘ख़तरनाक दाह-संस्कार’
पंचायत प्रमुख सरोज मेहता ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम में से ज़्यादातर को कोविड उनसे (प्रवासी श्रमिकों) मिला, जो अलग अलग सूबों से गांवों में वापस आए थे (वहां पर लॉकडाउन घोषित होने के बाद). यहां के बहुत से निवासी ऐसे लोगों के अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे, जिनकी आसपास के इलाक़ों में, किसी रहस्यमय बीमारी से मौत हुई थी’.
सोनी के माता-पिता भी ऐसे ही एक दाह-संस्कार में शामिल हुए थे- 16 अप्रैल को पूर्णिया ज़िले में, प्रियंका के पिता का.
उसके एक हफ्ते बाद, बीरेंद्र को बुख़ार और खांसी हो गई. 27 अप्रैल को उसकी तबीयत बिगड़ गई, और 1 मई को उसका टेस्ट कोविड पॉज़िटिव आ गया. प्रियंका का टेस्ट भी पॉज़िटिव आया, लेकिन 5 मई को हुए तीनों भाई-बहनों के टेस्टों के नतीजे निगेटिव आ गए.
सोनी ने कहा, ‘हम अपने पिता को रानीगंज अस्पताल ले गए. फिर उन्हें फोरबिसगंज रेफर किया गया. फोरबिसगंज से उन्हें पूर्णिया सदर भेजदिया गया. दो दिन में अस्पतालों ने इतना घुमाया, कि दम तोड़ दिया’.
पैसा न होने की वजह से, उनकी मां का इलाज बीच में ही रोक देना पड़ा.
12 साल की बच्ची ने अपनी मां के आख़िरी शब्द याद किए ‘बाबू, हम नहीं बचबो, हम मर जाहिबो (मैं नहीं बचूंगी, मैं मर जाउंगी)’.
सोनी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमें अपनी मां के लिए कोविड प्रमाणपत्र मिल गया. इसलिए ज़िला प्रशासन ने मुआवज़े के तौर पर, चार लाख रुपए का एक चेक दिया है (बिहार सरकार कोविड से मरने वालों के परिवार को 4 लाख रुपए दे रही है)’. उसने आगे कहा, ‘लेकिन पिता की मौत के समय, हमारी मानसिक अवस्था ठीक नहीं थी. हमें कोविड प्रमाणपत्र नहीं दिया गया, और हम जल्दी में वहां से निकल गए. बीडीओ ने वादा किया है कि हमें सहायता दी जाएगी’.
रानीगंज सर्किल ऑफिसर रमन सिंह ने दिप्रिंट से कहा, कि प्रशासन उनके पिता के मृत्यु प्रमाणपत्र का इंतज़ार कर रहा है, जिसके बाद बच्चों को उनकी मौत का मुआवज़ा देने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी’.
उन्होंने कहा, ‘हम बच्चों को 4 लाख रुपए का एक चेक पहले ही दे चुके हैं (उनकी मां की मौत के लिए). हम उनके पिता के मृत्यु प्रमाणपत्र का इंतज़ार कर रहे हैं. एक बार वो मिल जाए, तो फिर हम प्रक्रिया शुरू कर देंगे (उनके पिता की कोविड से मौत का मुआवज़े का भुगतान)’.
इस बीच, ग्राम प्रधान ने कहा कि एक समाज के तौर पर, वो बच्चों की सहायता करेंगे. मेहता ने कहा, ‘अब पैसे की समस्या नहीं है, क्योंकि उन्हें काफी मिल गया है’.
लेकिन फिर भी, बच्चों का कहना था कि कितना भी पैसा, उनके नुक़सान की भरपाई नहीं कर सकता, और उन्हें अभी भी लगता है, कि वो अकेले छूट गए हैं. उहोंने कहा कि उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगता है.
‘कितना भी पैसा मिलेगा, मां-बाप तो नहीं मिलेगा ना’, ये कहते हुए उसने अपने माता-पिता की क़ब्रों की ओर इशारा किया, ‘जो पेड़ के पास है वो मां की है, दूसरी पिता की है’.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: बिहार के इस IAS अधिकारी ने कैसे 8 घंटे में ऑक्सीजन का भारी संकट सुलझाकर 250 जानें बचाईं