गुरुग्राम श्रमिक विशेष ट्रेनों में बैठ पाने की उम्मीद खत्म होने और बंद के दौरान खर्चे पूरे नहीं होते देख 11 रिक्शा चालकों ने अपनी सबसे ‘महंगी संपत्ति’ साइकिल रिक्शा के साथ बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के लिए आठ दिन की यात्रा शुरू करने की ठानी.
भरत कुमार (48) बताते हैं कि बीते दो महीनों से कोई काम नहीं था, जबकि घर पर परिवार को पैसों का इंतजार था, मकान मालिक किराया मांग रहा था, जीवन के फिर सामान्य होने को लेकर अनिश्चितता थी तथा वापस अपने गांव जाने के लिये था अंतहीन इंतजार…
कुमार ने श्रमिक विशेष ट्रेन से सफर के लिये पंजीकरण कराया था. हर दिन उसे उम्मीद रहती कि उसका फोन बजेगा और उससे स्टेशन आने को कहा जाएगा, लेकिन हर दिन सिर्फ उसके मकानमालिक का फोन आता जो यह पूछता था कि वह बकाया किराया कब देगा.
इंतजार से आजिज आकर कुमार ने गुरुग्राम रेलवे स्टेशन जाने का फैसला किया लेकिन उसे स्टेशन में प्रवेश की इजाजत नहीं दी गई. उसने वहां पाया कि उस जैसे और भी लोग हैं जो वहां अपनी टिकट की स्थिति जानने के लिये पहुंचे हैं.
उनमें से 11 एक साथ आए और फिर साइकिल रिक्शा पर 1090 किलोमीटर का लंबा सफर शुरू हुआ. इस सफर में उन्हें आठ दिन का वक्त लगा.
भरत ने फोन पर बताया, ‘मैं कब तक इंतजार करता? पहले ही दो महीने हो चुके थे. स्थिति काबू से बाहर हो रही थी. अगर मैंने किराये का कमरा खाली नहीं किया होता तो मुझे बाहर फेंक दिया गया होता. इस बात को लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं थी कि स्थिति कब समान्य होगी. फिर मैंने हर हाल में वापस जाने का फैसला किया.’
उन्होंने कहा, ‘मुझे इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि मैं यहां (बिहार में) कैसे कमाई करूंगा, लेकिन यह था कि कम से कम मैं अपने परिवार के साथ रहूंगा और निकाले जाने का खतरा नहीं रहेगा. लंबी यात्रा के बाद मैं कमजोरी महसूस कर रहा हूं. मैं एक दो दिन में पता लगाऊंगा कि मैं अपने राज्य में क्या काम कर सकता हूं.’
आंसू रोकते हुए जोखू ने कहा, ‘पहले हमने सोचा कि हम सब एक साथ जा सकते हैं. एक व्यक्ति रिक्शा चलाएगा और दूसरा बैठ सकता है जिससे यात्रा के दौरान दोनों को थोड़ा-थोड़ा आराम मिल सकता है.’
उसने कहा, ‘लेकिन हम गुरुग्राम में अपना रिक्शा नहीं छोड़ सकते थे. यह हमारी सबसे महंगी संपत्ति है. हम नहीं जानते थे कि हम वापस कब लौटेंगे इसलिए हमने अपना सारा सामान रिक्शे पर बांधकर चलने की सोची.’
दयानाथ (36) को लगता है कि यात्रा भले ही बेहद मुश्किल थी लेकिन उसने सही फैसला लिया.
उसने कहा, ‘हमें पहुंचने में आठ दिन लग गए और यह बेहद मुश्किल सफर था. हमें अब तक अपने ट्रेन टिकट के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली है. अगर हम वहां से नहीं चले होते तो अब भी वहीं फंसे होते. मैं कब तक विभिन्न सामुदायिक रसोई में खाता और किसी की मदद मिलने का इंतजार करता ? मुझे विश्वास था कि मुझे कोई मदद नहीं मिलने वाली, इसलिये मुझे अपना रास्ता खुद तलाशना था.’
राजू के घर पहुंचने पर उसके पांच बच्चों ने राहत की सांस ली. उसने कहा कि वह गुरुग्राम में जो रिक्शा चलाता था वह उसका अपना नहीं था.
उसने कहा, ‘मेरे पास अपना रिक्शा नहीं था. वह किराये पर था जिससे होने वाली कमाई से मैं उसके मालिक को हिस्सा देता था. वह यह नहीं जानता कि मैं रिक्शा यहां ले आया हूं. मुझे विश्वास है कि अगर मैं उसे पहले बता देता तो वह बहुत नाराज होता. मैं अपने दूसरे साथियों के रिक्शे पर आ सकता था लेकिन हम सभी के पास सामान भी था.’
उसने कहा ‘मैंने अपने परिवार को बताया कि मैं गुरुग्राम से रिक्शे से आ रहा हूं तो वे डर गए. बीच रास्ते में मेरे फोन की बैटरी खत्म हो गई और उनका मुझसे संपर्क नहीं हो पाया, ऐसे में उन्हें लगा कि मुझे कुछ हो गया है.’
हरियाणा के मुख्यमंत्री कार्यालय के मुताबिक, अब तक दो लाख 90 हजार से ज्यादा प्रवासी मजदूरों को राज्य से उनके गृह प्रदेश तक भेजा गया है.
कोरोना वायरस संक्रमण के कारण देश में 25 मार्च से बंद लागू है और उसका चौथा चरण 31 मई को खत्म होगा.
प्रवासियों को उनके घर भेजने के लिये ट्रेनों और बसों का इंतजाम किया गया है लेकिन वे नाकाफी साबित हो रही हैं.