कहा जा रहा है कि सरकार मुद्रास्फीति दर के लक्ष्य को 2 प्रतिशत से बढ़ाकर 6 प्रतिशत के दायरे में करने पर विचार कर रही है. क्या भारतीय उपभोक्ता ऊंची मुद्रास्फीति दर को बर्दाश्त करेंगे?
इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं है. अतीत में भारत उपभोक्ता मूल्यों में 7 से 10 फीसदी तक की वृद्धि देख चुका है, लेकिन उस दौर में महंगाई के कारण लोगों में आक्रोश भी देखा गया.
कहा जा रहा है कि सरकार का मानना यह है कि रिजर्व बैंक को ऐसे समय में मुद्रास्फीति के कठोर लक्ष्य से नहीं बांधा जा सकता जब आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देना ही प्राथमिकता बन गई है. या ज्यादा स्पष्ट ढंग से कहें, तो मोदी सरकार के लिए भी अगले पांच वर्ष तक ‘अपर एंड’ में ऊंची महंगाई दर कोई अच्छी बात नहीं होगी.
रिजर्व बैंक के गवर्नर भी इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं, उनका मानना है कि मुद्रास्फीति का लक्ष्य ‘वाइड बैंड’ (चौड़े दायरे) के साथ अपनी प्रासंगिकता खो देता है.
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मुद्रास्फीति का ढांचा
भारत ने मार्च 2016 में रिजर्व बैंक को मिले वैधानिक आदेश के तौर पर मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करने का लचीला ढांचा अपनाया. आरबीआइ एक्ट 1934 में फाइनान्स एक्ट 2016 के तहत संशोधन किया गया और आधुनिक मौद्रिक नीति फ्रेमवर्क अपनाया गया. इसमें वृद्धि के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कीमतों में स्थिरता हासिल करने का स्पष्ट लक्ष्य तय किया गया. संशोधित कानून में यह भी व्यवस्था की गई कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में साल-दर-साल परिवर्तन के आधार पर तय होने वाला मुद्रास्फीति लक्ष्य क्या होगा यह केंद्र सरकार हर पाँच साल पर रिजर्व बैंक के साथ विचार-विमर्श करके तय करेगी.
अगस्त 2016 में मुद्रास्फीति लक्ष्य 4 प्रतिशत तय किया गया था, जिसकी अधिकतम सीमा 6 प्रतिशत और न्यूनतम सीमा 2 प्रतिशत रखी गई. अब नयी व्यवस्था के तहत सरकार मार्च 2021 में रिजर्व बैंक के साथ मिलकर लक्ष्य की समीक्षा करेगी.
मुद्रास्फीति लक्ष्य की व्यवस्था के तहत काम करने वाले सेंट्रल बैंक अपना लक्ष्य इन आधारों पर तय करते हैं— (1) पॉइंट टार्गेट (सटीक लक्ष्य), (2) सीमाओं के साथ पॉइंट टार्गेट, (3) एक ‘रेंज’. तमाम देश प्रायः ‘रेंज’ के साथ शुरुआत करते हैं और मुद्रास्फीति की एक स्थिर स्थिति हासिल करने के बाद ‘पॉइंट टार्गेट’ या सीमाओं के साथ पॉइंट टार्गेट को अपनाते हैं.
भारत ने सीमाओं के साथ पॉइंट टार्गेट को अपनाया. इसमें यह सुविधा रहती है कि सेंट्रल बैंक के लक्ष्य के बारे में स्पष्ट संकेत मिलता है. ये संतुलित भी होते हैं और सेंट्रल बैंक के इस इरादे को स्पष्ट करते हैं कि वह जितना मुद्रास्फीति से बचना चाहता है उतना ही अवस्फीति से भी बचना चाहता है. ‘रेंज’ के तहत मुद्रा नीति में लचीलापन रखा जा सकता है, और इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मुद्रास्फीति लक्ष्य पर सेंट्रल बैंक की पक्की पकड़ नहीं भी हो सकती है.
अर्जेन्टीना और तुर्की जैसे कुछ देशों को छोड़कर भारत के मुद्रास्फीति लक्ष्य का दायरा काफी विस्तृत है. भारत के मुद्रास्फीति लक्ष्य का फ्रेमवर्क मुद्रास्फीति को घटाने में काफी सफल रहा है. नीतिगत झटकों और बाहरी प्रभावों के बावजूद मुद्रास्फीति, अक्तूबर 2016 में मुद्रास्फीति लक्ष्य व्यवस्था को अपनाने के बाद से 4 प्रतिशत के 2 प्रतिशत ऊपर-नीचे के दायरे में ही रही है, सिवा हाल के कुछ महीनों में. 2020 के प्रारम्भ से मुद्रास्फीति 2-6 प्रतिशत के लक्षित दायरे से प्रायः ऊपर ही रही है. वैसे, हाल के महीनों में मुद्रास्फीति में वृद्धि कोविड-19 के कारण लॉकडाउन के चलते सप्लाई में अस्तव्यस्तता की वजह से हुई.
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विस्तृत दायरे का प्रस्ताव क्यों
विस्तृत दायरे के प्रस्ताव के पीछे मंशा यह है कि रिजर्व बैंक वृद्धि की रफ्तार फिर हासिल करने पर ज़ोर दे. रिजर्व बैंक ने पिछले कुछ महीनों में मुद्रा नीति को लेकर जो नीतिगत बयान जारी किए हैं उनसे स्पष्ट है कि वह वृद्धि को प्राथमिकता दे रहा है. कोविड महामारी के बाद से पॉलिसी रेपो रेट में 115 बेसिस पॉइंट की कटौती की गई है. मुद्रा नीति कमिटी ने वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए जरूरी समायोजन करने के प्रति प्रतिबद्धता दोहराई है.
मुद्रास्फीति को निशाना बना रहे कई सेंट्रल बैंकों ने कोविड महामारी के चलते अस्तव्यस्तता से कुप्रभावित आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन किया है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने घोषणा की कि वह श्रम बाज़ार और व्यापक अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए कुछ समय के लिए मुद्रास्फीति को 2 प्रतिशत के लक्ष्य से ऊपर जाने की छूट देगा. इन्हें वृद्धि को बढ़ावा देने के अस्थायी उपाय माना जा रहा है. वैसे भी, फिलहाल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को ऊंची मुद्रास्फीति से कोई समस्या नहीं है.
भारत में आरबीआइ संशोधन एक्ट के तहत मुद्रास्फीति लक्ष्य पांच वर्ष के लिए तय किया जाना है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर लक्ष्य का दायरा चौड़ा रखने पर सहमति हुई, तो यह पांच वर्षों के लिए लागू होगा. अब जबकि वृद्धि रफ्तार पकड़ती दिख रही है, और ग्लोबल डिमांड में जान लौट रही है, तो मुद्रास्फीति धीरे-धीरे बढ़ सकती है, तब मुद्रास्फीति के लक्ष्य को लेकर पुनर्विचार की जरूरत पैदा हो सकती है.
हमारा अध्ययन बताता है कि घरेलू मुद्रास्फीति को लेकर जो अनुमान थे वे मुद्रास्फीति के लक्ष्य को लेकर पिछली कोशिश की तुलना में अपेक्षाकृत अनुकूल तो रहे हैं लेकिन वे अभी भी वास्तविक मुद्रास्फीति के मुक़ाबले ऊंचे हैं. ज्यादा चौड़े दायरे को स्वीकार करने से मुद्रास्फीति को लेकर अपेक्षाओं को नियंत्रित करना कठिन हो जाएगा. शोध बताता है कि ऊंचे लक्ष्य और व्यापक ‘रेंज’ ऊंचे आउटपुट तथा मुद्रास्फीति की विस्फोटकता से जुड़े होते हैं.
मुद्रास्फीति के लक्ष्य की समीक्षा अनुभव के लिहाज से दुरुस्त हो सकती है, और इसमें ग्लोबल मुद्रास्फीति के हालात का हिसाब रखा जाना चाहिए. इस बात पर कोई आम राय तो नहीं बन सकती कि मुद्रास्फीति किस स्तर पर पहुंचने के बाद आर्थिक वृद्धि की संभावनाओं के लिए नुकसानदेह बन जाएगी, लेकिन लक्ष्य में बदलाव से क्या परिणाम हो सकते है उनका आकलन जरूर होना चाहिए और बदलाव का डॉकुमेंटेशन जरूर होना चाहिए.
(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और राधिका पांडेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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