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Friday, 1 November, 2024
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राजस्थान में पेंशन प्रणाली में बदलाव रिफॉर्म के खिलाफ है, ये फिर से असमानता लाएगा

सिविल सर्वेंट्स के लिए परिभाषित लाभ वृद्धावस्था पेंशन स्कीम से हटने का फैसला, इस तथ्य पर आधारित था कि पुरानी पेंशन प्रणाली स्वाभाविक रूप से असमान थी.

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हाल ही में पेश किए गए बजट में, राजस्थान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ऐलान किया, कि राज्य सरकार के कर्मचारियों को गारंटी शुदा पेंशन उपलब्ध कराने के लिए, राजस्थान में पुरानी प्रणाली को फिर से लागू किया जाएगा.

पुरानी पेंशन व्यवस्था को वापस लेने के फैसले से, दूसरे राज्यों के लिए एक खराब मिसाल कायम होती है. चल रहे प्रदेश चुनावों में दूसरी पार्टियां भी इसी तरह के वादे कर रही हैं. पुरानी पेंशन व्यवस्था पर वापस जाने का फैसला सुधार-विरोधी है और एक पीछे ले जाने वाला क़दम है.

सिविल सर्वेंट्स के लिए पुरानी परिभाषित लाभ वृद्धावस्था पेंशन स्कीम से हटने का फैसला, इस तथ्य पर आधारित था कि पुरानी पेंशन व्यवस्था स्वाभाविक रूप से असमान थी. उसमें सिविल सर्वेंट्स के लिए असंगत फायदे थे, जबकि आबादी के बड़े हिस्सों को वृद्धावस्था सामाजिक सुरक्षा का कोई लाभ नहीं मिलता था.

राजस्थान का क़दम NPS के फायदों को कैसे ख़त्म करता है

सिविल सर्वेंट्स भारत की आबादी का एक बेहद छोटा सा हिस्सा हैं. लेकिन, 2000 के दशक की शुरुआत तक सिविल सर्वेंट्स (और पेंशन भोगियों) को वादा की गई पेंशन का शुद्ध वर्तमान मूल्य, भारत की जीडीपी के लगभग 60 प्रतिशत के बराबर पहुंच गया था.


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राजीव महर्षि और रेणुका साने कहते हैं कि राजस्थान पेंशन पर 23,000 करोड़, और वेतन तथा मज़दूरी पर 60,293 करोड़ रुपए ख़र्च करता है. ये उसके ख़ुद के कर और ग़ैर-कर राजस्व के 56 प्रतिशत के बराबर होता है. इस प्रकार 10 लाख परिवार, जो कुल 1.6 करोड़ परिवार का क़रीब 6 प्रतिशत हैं, प्रदेश के राजस्व का 56 प्रतिशत ले लेते हैं.

अवहनीय पेंशन देनदारियों पर बढ़ती चिंताओं की परिणति के रूप में, सरकार ने सुरेंद्र दवे की अध्यक्षता में ‘प्रोजेक्ट ओल्ड एज इनकम एंड सोशल सिक्योरिटी (ओएसिस)’ के नाम से एक एक्सपर्ट कमेटी गठित कर दी, जिसका काम भारत में वृद्धावस्था आय सुरक्षा से जुड़े नीतिगत सवालों की जांच करना था.

इस कमेटी में विशेषज्ञों और शिक्षाविदों को एक साथ लाया गया, जिन्होंने एक नेशनल पेंशन सिस्टम (एनपीएस) तैयार किया. पैनल ने फरवरी 1999 में अपनी रिपोर्ट, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में पेश कर दी.

एनपीएस का गठन जीवन भर के लिए राज्य द्वारा भुगतान की परिकल्पना की बजाय, किफायत और स्वयं-सहायता के सिद्धांतों पर किया गया था. 1 जनवरी 2004 के बाद की सभी नई भर्तियों को एनपीएस में रख दिया गया. हाल ही में, कोष को बढ़ाने के लिए केंद्र तथा राज्य, दोनों सरकारों के योगदान को बढ़ाकर 14 प्रतिशत कर दिया गया है.

सिविल सर्वेंट्स के लिए एनपीएस बनाकर और उन्हें शुरू में ही उसे ग्रहण कराकर, एक ऐसी व्यवस्था की नींव रख दी गई, जहां नौकरशाही के पास प्रोत्साहन हैं कि इसे अच्छे से चलाएं, और इसकी बुनियादें मज़बूती से रखें. इस प्रणाली का इस्तेमाल फिर आबादी के एक बड़े हिस्से द्वारा किया जा सकता है.

1 मई 2009 से, एनपीएस को देश के सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध करा दिया गया है, जिनमें स्वैच्छिक आधार पर असंगठित क्षेत्र के श्रमिक भी शामिल हैं. 31 जनवरी 2022 तक, एनपीएस ट्रस्ट के प्रबंधन में कुल 6.85 लाख करोड़ रुपए की संपत्ति है. इसमें एनपीएस ट्रस्ट के ग्राहकों के तौर पर, केंद्र और राज्य सरकारों के कर्मचारी, कॉरपोरेट क्षेत्र, और असंगठित क्षेत्र शामिल हैं.

एनपीएस एक परिभाषित योगदान प्रणाली है, जिसमें कर्मचारी के योगदान की राशि के बराबर ही, सरकार अथवा नियोक्ता की ओर से योगदान किया जाता है. हर कर्मचारी के पास एक निजी खाता होता है, जिसे एक केंद्रीय डेटाबेस में रखा जाता है, और जो पेंशन निधि विनियामक और विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए) द्वारा विनियमित होता है.

कई प्रतिस्पर्धी पेंशन फंड प्रबंधक निवेश के तीन विकल्प पेश करते हैं, जिनमें अलग अलग वर्ग आवंटन और अस्थिरता विशेषताएं होती हैं. स्कीम इस तरह से तैयार की गई है कि उसमें पारदर्शिता सुनिश्चित होती है, क्योंकि पेंशन निधि प्रबंधक पिछले प्रदर्शन को लेकर, आसानी से समझ में आने वाली जानकारी देते हैं, जिससे कि लोग जानकारी के साथ तय कर सकें, कि उन्हें कौन सी स्कीम चुननी है.


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2004 से पहले की पेंशन स्कीमें

2004 से पहले, उस समय की पेंशन योजनाओं की कवरेज सीमित होती थी. मोटे तौर पर, दो तरह की पेंशन योजनाएं होती थीं: पहली स्कीम सिविल सर्वेंट्स और विश्वविद्यालयों जैसी स्वायत्त इकाइयों के कर्मचारियों के लिए थी, जो पूरी तरह सरकार द्वारा वित्त-पोषित थी. इस स्कीम में कर्मचारियों को रिटायरमेंट पर आमतौर से, उनके आख़िरी वेतन का 50 प्रतिशत पेंशन के रूप में मिलता था, जिसके साथ मुद्रा-स्फीति से जुड़ा महंगाई भत्ता भी दिया जाता था.

दूसरी पेंशन स्कीम कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) की ओर से है, जो ईपीएफओ के अधिकार क्षेत्र (मोटे तौर पर 20 श्रमिकों से अधिक की कंपनियां) में आने वाले सभी प्रतिष्ठानों के लिए अनिवार्य है.

कर्मचारी पेंशन योजना (ईपीएफ) तभी काम करती है, जब सुनिश्चित रिटर्न्स की जगह वापसी की बाज़ार निर्धारित दरें ले लें. लेकिन, चूंकि पोर्टफोलियो प्रबंधन कड़े नियमों से बंधा हुआ होता है, इसलिए बेहतर फंड प्रबंधन से ऊंचे रिटर्न्स हासिल नहीं किए जा सकते.

एनपीएस लाने से दो समस्याएं हल हुईं थीं. पहली थी पेंशन का विस्फोटक वित्तीय बोझ. पुरानी पेंशन व्यवस्था में लौटने के राजकोषीय निहितार्थ होंगे, चूंकि सरकार को या तो निवेशों में कटौती करनी होगी, या फिर पुरानी पेंशन व्यवस्था के तहत, ऊंचे पेंशन बिल के भुगतान के लिए, अपनी उधारी बढ़ानी होगी.

एनपीएस ने जिस दूसरे उद्देश्य को हासिल किया, वो था आबादी के एक बेहद छोटे हिस्से पर केंद्रित सरकार के पेंशन दायित्वों को, एक व्यापक आबादी और ग़रीबों तथा असंगठित श्रमिकों तक ले जाना.

सिविल सर्वेंट्स को परिभाषित लाभ पेंशन देने की स्कीम पर वापस जाकर, राजस्थान सरकार सभी श्रमिकों के लिए एक राष्ट्रव्यापी प्रणाली लाने की संभावनाओं को कम कर देगी. ये प्रस्ताव भारतीय आबादी के वृद्धावस्था लाभ में, फिर से अन्याय ले आएगा.

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री हैं और राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान में प्रोफेसर हैं. राधिका पाण्डे एनआईपीएफपी में एक कंसल्टेंट हैं.) (विचार व्यक्तिगत हैं.)

(इस खबर को अंग्रजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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