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Sunday, 22 December, 2024
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निर्मला सीतारमण ने इकोनॉमी में जान फूंकने के दिए संकेत, अब जरूरत इस दिशा में आगे कदम बढ़ाने की है

इस बजट के बाद मोदी सरकार को लालफ़ीताशाही खत्म करने, टैक्स के ढांचे और नियमन की व्यवस्था को सरल बनाने, और वित्तीय क्षेत्र में सुधार पर ध्यान देना चाहिए ताकि निवेश के लिए माहौल बने.

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पिछले 15 वर्षों में पेश किए बजटों के मुक़ाबले इस साल के बजट को सबसे अलग बताने वाली प्रमुख बात यह है कि इसमें आर्थिक वृद्धि और बाज़ारों के अनुकूल नीतिगत बदलाव के संकेत दिए गए हैं.

इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश, निजीकरण, और बीमारियों की रोकथाम वाली स्वास्थ्य सेवा के साथ स्वच्छ जल, स्वच्छ हवा, और कचरा प्रबंधन सरीखी सार्वजनिक सुविधाओं जैसे मसले सरकारी खर्चों के कार्यक्रम के महत्वपूर्ण हिस्से बनाए गए हैं.

पिछले कई बजटों के विपरीत इस बार न तो जनकल्याण के अनगिनत कार्यक्रम घोषित किए गए और न राजनीतिक संदेश या विचारधारात्मक विशेषता जताने वाली सरकारी योजनाओं की घोषणा की गई.

बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की सीमा 49 से बढ़ाकर 74 प्रतिशत करने का मामला पिछले कुछ वर्षों से सरकार की सुधारवादी होने की साख की कसौटी बन गई थी. इस सीमा में वृद्धि की घोषणा करके वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दुनिया को साफ संदेश दिया है कि भारत अपनी दुकान नहीं बंद कर रही है. ‘आत्मनिर्भरता’ वाले पैकेज के तहत सीमा शुल्कों में वृद्धि से उभर रहे संरक्षणवादी रुझान को इस संदेश ने कुछ संतुलित किया है.

वित्त मंत्री ने बजट निर्माण में ज्यादा पारदर्शिता लाने की कोशिश भी की है. खाद्य सबसीडी के लिए एफसीआइ जो उधर लेती थी उसे बजट में न दिखाने की प्रथा खत्म कर दी गई है. आज के समय में, ऊंचे वित्तीय घाटे को अच्छा माना जा रहा है. यह सीएजी की रिपोर्ट के अतिरिक्त है, जिसमें वास्तविक घाटा 1.5 से 2.0 प्रतिशत तक अधिक होगा. इसी के मद्देनजर यह कदम उठाया गया.

बाज़ारों ने भी बजट को समाजवादी रंग न दिए जाने पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है.


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इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च, निजीकरण को लेकर स्पष्टता

दुनिया भर में फैली महामारी के बीच और जिस साल में अर्थव्यवस्था सुस्त है, रोजगार खत्म हुए हैं और आर्थिक तकलीफ बढ़ी है उस साल पेश किया गया यह बजट आसानी से बड़ी-बड़ी जनकल्याण योजनाओं वाला बजट हो सकता था. इसमें 9.5 फीसदी के वित्तीय घाटे के साथ एक साल और निकाला जा सकता था. लेकिन वित्त मंत्री ने इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए खर्च पर ज़ोर दिया है. इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश पिछले एक दशक से स्थिर था और उसे बढ़ाने की जरूरत थी.

इसी तरह रोजगार के मामले को ‘मनरेगा’ में और अधिक पैसा देने जैसे उपायों से निबटाने की कोशिश की जा सकती थी. लेकिन इस साल सरकार के पास संसाधन सीमित हैं इसलिए उसने शायद यह विचार किया कि इन्फ्रास्ट्रक्चर में सार्वजनिक निवेश करने से निजी निवेश भी आएगा और यह आर्थिक वृद्धि तथा रोजगार को भी बढ़ावा देगा.

निजीकरण पर ‘विनिवेश’ जैसे चिकनी-चुपड़ी बातें करने की जगह साफ-साफ बातें करने के लिए वित्त मंत्री को बधाई दी जानी चाहिए. उन्होंने निजीकरण किए जाने वाले उपक्रमों की केवल छोटी सूची जारी करने की जगह एक अहम प्रस्ताव पेश किया कि रणनीतिक महत्व के चार सेक्टरों के अलावा दूसरे सेक्टरों के सार्वजनिक उपक्रमों का भी निजीकरण किया जाएगा. उन्होंने नीति आयोग से ऐसे उपक्रमों की सूची बनाने को कहा है.

जिस अर्थव्यवस्था को यह आदत पड़ी हुई है कि सरकार ही होटल चलाए, घड़ियों का उत्पादन करे, उस अर्थव्यवस्था में इस तरह की घोषणा एक बड़ा कदम है. यह कई मृत, घाटे में चल रहे उपक्रमों में फंसे संसाधनों को मुक्त करेगा. इसके अलावा, दो सरकारी बैंकों का निजीकरण करने की घोषणा भी यथास्थिति को तोड़ने का स्पष्ट संदेश है.

डीएफआइ और ‘बैड’ बैंक का सवाल

इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश के लिए पैसा बजट के जरिए ऊंचे सार्वजनिक निवेश और निजी क्षेत्र से आएगा. निजी क्षेत्र इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को लागू करने के लिए उधार ले सके, इसके लिए वित्त मंत्री ने एक ‘विकास वित्त संस्थान’ (डीएफआइ) की स्थापना का प्रस्ताव दिया है. यह स्पष्ट हो चुका है कि बैंको से उधार लेना परिपक्वता के मामले में विसंगति के चलते समस्या पैदा करता है.

डीएफआइ के बारे में ब्योरे अभी स्पष्ट होने हैं. वित्तीय क्षेत्र के लिए कानूनी सुधारों की सिफ़ारिश करने वाले आयोग ने सुझाव दिया था कि मजबूत और तरल बॉण्ड बाज़ार के निर्माण के लिए सरकार को सार्वजनिक कर्ज प्रबंधन एजेंसी (पीडीएमए) का गठन करना चाहिए, जो इस बाज़ार के निर्माण में मदद करे. इस तरह की एजेंसी बनाने का यह एक अच्छा साल हो सकता है. सवाल यह है कि डीएफआइ का स्वामित्व और प्रबंधन किसके हाथ में रहेगा. अगर यह नौकरशाहों के हाथ में रहेगा तो क्या उसे उन्हीं मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा जिनका आइसीआइसीआइ और आइडीबीआइ के मामलों में सामना पड़ा?

इसी तरह, एक ‘बैड’ बैंक बनाने के प्रस्ताव में भी ज्यादा स्पष्टता की जरूरत होगी. अगर इस बैंक को दूसरे बैंकों से ‘एनपीए’ खरीदना होगा, तो वे किस कीमत पर खरीदे जाएंगे? फिलहाल बैंक उधार देने वाली कंपनी के मामले में दिवालिया वाले प्रावधान का सहारा ले सकते हैं और बाज़ार जो कीमत दे रहा है उस पर एसेट्स को बेच सकते हैं, जिसके लिए बोली लगाई जाएगी. वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में यह नहीं कहा कि इस नये संस्थान या फंड का पूरा स्वरूप क्या होगा और इसके लिए कितना पैसा रखा गया है.

बहरहाल, बजट अर्थव्यवस्था, इन्फ्रास्ट्रक्चर, और बाज़ारों को मजबूती देने के मामले में स्पष्ट संदेश दे रहा है. अब आगे जरूरत इस बात की होगी कि लालफ़ीताशाही को खत्म करने, टैक्स तथा नियमन के ढांचों को सरल बनाने, और निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए वित्तीय क्षेत्र में सुधारों की दिशा में कदम उठाए जाएं.

(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं व्यक्त विचार निजी हैं)

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