वित्त मंत्रालय में बजट बनाने की प्रक्रिया इस बार अलग होगी. कोविड-19 महामारी ने सरकार को राजकोषीय घाटे की गणना में पारदर्शिता लाने का एक अनूठा अवसर प्रदान किया है.
बजट निर्माण के समय आमतौर पर अधिकांश अर्थशास्त्री सरकार को वित्तीय लक्ष्यों से दूर नहीं होने की सलाह देते हैं. इस बार हर वर्ग के अर्थशास्त्री एक विस्तारवादी बजट की तरफदारी कर रहे हैं. इस साल, राजकोषीय घाटे में वृद्धि को खामी या भटकाव के रूप में नहीं देखा जाएगा. वास्तव में, राजकोषीय घाटा जितना बड़ा होगा, आलोचकों का स्वर उतना ही नरम रहेगा. इसका मतलब ये हुआ कि बीते वर्षों के विपरीत, सरकार को घाटे के असल स्तर को छुपाने की जुगत करने की ज़रूरत नहीं है.
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के अनुसार, हाल के वर्षों में सरकार का राजकोषीय घाटा घोषित अनुमानों की तुलना में 1.5 से 2 प्रतिशत अधिक रहा है. इसकी मुख्य वजह थी सरकारी व्यय के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा ऋण जुटाया जाना.
भले ही 2021-22 में आर्थिक वृद्धि दर ऊंची और सकारात्मक होने की उम्मीद हो, यह अर्थव्यवस्था को कोविड से पहले वाले स्तर तक ही ऊपर खींच सकेगी. कर राजस्व में बढ़ोत्तरी की रफ्तार सुस्त ही रहने की संभावना है हालांकि व्यवसाय अपने पैरों पर दोबारा खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं, आयात बढ़ रहा है और उत्पादन में वृद्धि हो रही है.
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बजट आर्थिक विकास को वापस पटरी पर लाए
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? सबसे पहले, आर्थिक सुस्ती के कारण इस बार के बजट का विकासोन्मुख होना लाज़िमी हो जाता है. इसका मतलब ये है कि बजट का फोकस अधिक टैक्स इकट्ठा करने पर नहीं होना चाहिए, जैसा कि अतीत में कई बार देखा जा चुका है, बल्कि इसमें आर्थिक विकास में नई जान फूंकने के उपायों पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.
बीते वर्षों में जब वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे के वास्तविक आकार को छिपाया करते थे, तो घाटे के एक हिस्से को बैलेंस शीट से हटा दिया जाता था. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों और तेल कंपनियों द्वारा ली जाने वाली उधारी तथा सरकार द्वारा अन्य प्रक्रियाओं से जुटाए जाने वाले कर्ज़ की जानकारी को चुपके से बजट के स्माल प्रिंट में दबा दिया जाता था.
इस बार, जब अधिकांश अर्थशास्त्री राजकोषीय घाटे में वृद्धि के पक्ष में दलीलें दे रहे हैं, तो पहली बार राजकोषीय समझदारी नहीं दिखाने के लिए सरकार की आलोचना नहीं की जाएगी. वर्ष 2020-21 के लिए संशोधित राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6 से 7 प्रतिशत के बराबर रह सकता है.
आगामी वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए प्रस्तावित राजकोषीय घाटा आर्थिक विकास की दशा संभलने के परिणामस्वरूप बढ़े कर राजस्व के कारण एक प्रतिशत अंक घटकर 5 से 6 प्रतिशत के स्तर पर लाया जा सकता है.
मांग बढ़ाने के दो तरीके
बजट विस्तारवादी हो सकता है, लेकिन सवाल ये है कि इसका तरीका क्या हों. मांग को बढ़ाने के दो तरीके हैं. एक व्यय में वृद्धि करके, और दूसरा करों में कटौती के ज़रिए. एक में, सरकार आबादी के उन वर्गों पर और उन सेक्टरों पर व्यय बढ़ा सकती है जो महामारी से प्रभावित रहे हैं और जिनके लिए रिकवरी आसान नहीं दिख रही है. प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण से पैसा सीधे लोगों के हाथों में जाता है और इससे मांग को शीघ्रता से बढ़ाने में मदद मिल सकती है. दूसरी ओर, बुनियादी ढांचे पर खर्च करना भले ही वांछनीय हो, सरकार की कार्यान्वयन क्षमता सीमित है, और इसका अर्थव्यवस्था पर न तो उतना बड़ा प्रभाव पड़ता है और न ही इसमें अपेक्षानुसार तात्कालिकता ही है.
मांग बढ़ाने का दूसरा तरीका है करों को तर्कसंगत बनाना. उदाहरण के लिए, जीएसटी कर की दरों में कटौती से लोगों के हाथों में तुरंत पैसा आ सकेगा, जो फिर उसे अन्य चीजों पर खर्च कर सकते हैं और अर्थव्यवस्था में मांग को बढ़ा सकते हैं. लेकिन बजट में ऐसा होने की संभावना नहीं है क्योंकि जीएसटी दरें जीएसटी परिषद द्वारा तय की जाती हैं, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों शामिल हैं.
बजट में, सरकार आयकर में कटौती कर सकती है, कॉर्पोरेट कर व्यवस्था और कर प्रबंधन प्रणाली को सरल बना सकती है. कर प्रबंधकों के बढ़ाए गए अधिकारों में से कुछेक ने निवेशकों की भावनाओं पर नकारात्मक असर डाला है, उनकी जगह कम दखल वाली और अधिक तर्कसंगत कर नीति लागू की जा सकती है.
यह महत्वपूर्ण है कि कर की दरों में वृद्धि का कोई और प्रस्ताव न किया जाए, क्योंकि ये अनिश्चितता बढ़ाते हैं, कर आधार को कमज़ोर करते हैं, और विकास दर को नीचे खींचते हैं. कर दरों में वृद्धि तथा कर अधिकारियों की तलाशी और जब्ती के अधिकारों का विस्तार करके संग्रह बढ़ाने की रणनीति कामयाब नहीं रही है; उल्टे, इसने निवेशकों के विश्वास को और जीडीपी को कम किया है.
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ऊंचे राजकोषीय घाटे के नकारात्मक प्रभाव को कम करना
सरकार इस अवसर का उपयोग सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसी (पीडीएमए) और राजकोषीय परिषद जैसे वित्तीय संस्थानों की स्थापना के लिए करके, जोकि लंबे समय से अपेक्षित है, उच्च राजकोषीय घाटे के नकारात्मक प्रभाव को कम कर सकती है.
संक्षेप में, पिछले वर्षों के विपरीत इस वर्ष सरकार यह कहते हुए अच्छी दिखेगी कि उसका राजकोषीय घाटा अनुमान से अधिक है. इसी तरह, बजट 2021-22 के अनुमानों में वह अधिक राजकोषीय घाटे का प्रस्ताव कर सकती है. वास्तविक घाटे को छिपाने के बजाय, जैसा कि पिछले कई वित्त मंत्रियों पर आरोप लगाए जाते रहे हैं, निर्मला सीतारमण वास्तव में सरकारी बही-खातों में छिपे उच्च घाटे को सामने ला सकती हैं.
एक ओर प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण बढ़ाने और दूसरी ओर टैक्स दरों में कटौती से आमजनों और व्यवसायों के हाथ में पैसा आएगा और इससे अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिल सकता है. जबकि भविष्य में राजकोषीय समझदारी के प्रति प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करने वाले संस्थागत परिवर्तन ऊंचे राजकोषीय घाटे के दुष्प्रभावों को दूर रखने में मददगार साबित हो सकते हैं.
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(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और राधिका पांडेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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