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Saturday, 4 May, 2024
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लाखों कोविड वैक्सीन सिरिंज को किस तरह डिस्पोज कर रहा है भारत

हर सिरिंज एक रुपये के सिक्के के जितनी हल्की होती है, इसलिए विशेषज्ञों का कहना है कि टीकाकरण अभियान से होने वाले कचरे का प्रबंधन मुश्किल नहीं है.

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नई दिल्ली: पहले स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन वर्कर्स के इस्तेमाल में आने वाली पीपीई किट, मास्क, गाउन, फेस शील्ड, दस्ताने आदि के साथ, और कोविड-19 टेस्ट में उपयोग होने वाले उपकरण ही होते थे. अब, भारत में टीकाकरण अभियान के दौरान लाखों की संख्या में सिरिंज कचरे के तौर पर निकल रही हैं, जो बाकी दुनिया की तुलना में सबसे ज्यादा हैं.

पिछले साल ही फैली कोविड महामारी के कारण कई टन बायोमेडिकल कचरा बढ़ गया है.

पिछले माह सरकार ने अनुमान लगाया था कि देश में हर दिन 146 टन बायोमेडिकल कचरा उत्पन्न हो रहा है. यानी भारत हर दिन दुनिया के सबसे बड़े जीव ब्लू व्हेल के बराबर बायोमेडिकल कचरे का उत्पादन कर रहा है.

इसमें अकेले सिरिंज का योगदान ही गुब्बारे की तरह बढ़ता जा रहा है. मेडिकल कचरे के डिस्पोजल में महारत रखने वाली अमेरिकी कंपनी ऑनसाइट वेस्ट टेक्नोलॉजीज की तरफ से लगाए गए एक अनुमान के मुताबिक, पूरी अमेरिकी आबादी को टीके की खुराक—लगभग 66 करोड़—देने के लिए जितनी सुइयों की जरूरत होगी, उसे पृथ्वी के चारो तरफ 1.8 बार लपेटा जा सकता है.

भारतीय आबादी (नाबालिगों समेत, जो अभी टीकाकरण के पात्र नहीं हैं) के संदर्भ में बात करें तो ये आंकड़ा अमेरिका से करीब 100 करोड़ ज्यादा ही है. शुक्रवार तक भारत ने 9,43,34,262 खुराकें दी थीं.

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वहीं, एक उद्योग निकाय एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकल डिवाइस इंडस्ट्री (एआईएमईडी) की तरफ से लगाए गए एक अन्य अनुमान के मुताबिक, दुनिया की 60 फीसदी आबादी को टीका लगाने—हर्ड इम्युनिटी हासिल होने के लिए अनुमानित जरूरत—के लिए 800 करोड़ से 1,000 करोड़ सिरिंज की जरूरत पड़ेगी. अकेले भारत को ही अपनी 135 करोड़ की आबादी में करीब 60 फीसदी के टीकाकरण के लिए 150 करोड़ सिरिंज की जरूरत होगी.

ये संख्या सुनने में काफी बड़ी लग लग सकती है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इस्तेमाल की गई सिरिंज—जिनका वजन एक रुपये के सिक्के से ज्यादा नहीं होता है—को लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है. उनका कहना है कि यदि उचित तरीके से डिस्पोज किया जाए तो बायोमेडिकल कचरे को लेकर चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है.

भारत के पास अपनी डिस्पोजल व्यवस्था की निगरानी के लिए वैधानिक ढांचा है, जिसमें ऐसे कचरे के जोखिम को खत्म करने के लिए कलर कोडिंग, स्टरलाइजेशन, जलाए जाने, रिसाइक्लिंग और गड्ढे में गाड़ने आदि की एक पूरी विस्तृत प्रक्रिया अपनाई जाती है.

‘कुछ भी चिंताजनक नहीं’

अमेरिका स्थित जॉन्स हॉपकिंस सेंटर फॉर हेल्थ सिक्योरिटी के एक सीनियर स्कॉलर अमेश अदलजा, जिनका काम महामारी संबंधी तैयारी पर केंद्रित है, ने कहा कि कोविड के कारण उत्पन्न होने वाले बायोमेडिकल कचरे को लेकर ‘चिंता करने जैसा कुछ भी नहीं है.’

उन्होंने कहा, ‘कोविड-19 टीकाकरण के कारण निकलने वाली सिरिंज का डिस्पोजल भी किसी अन्य सिरिंज की तरह ही है. यहां तक कि मास्क, पीपीई किट और दस्ताने आदि का डिस्पोजल भी किसी अन्य मेडिकल कचरे की तरह ही होता है.’

दिल्ली के लिए काम कर रही अपशिष्ट प्रबंधन एजेंसियों में से एक बायोटिक वेस्ट सॉल्यूशंस के निदेशक विकास गहलोत ने कहा, ‘एक खाली सिरिंज का वजन केवल 4.25 ग्राम है, कोविड टीकाकरण अभियान के कारण एकत्र होने वाला इसका कचरा काफी कम होता है और इसका आसानी से प्रबंधन किया जा सकता है.’

उदाहरण के तौर पर फरवरी में बायोटिक वेस्ट सॉल्यूशंस ने 4.37 लाख किलोग्राम या 437 टन कचरे का निष्पादन किया, जिसमें से 94,565 किलोग्राम कोविड से संबंधित था.

उद्योग निकाय कॉमन बायोमेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट एंड डिस्पोजल फैसिलिटी एसोसिएशन के अध्यक्ष विनोद कछाड़िया ने कहा कि विभिन्न केंद्रों से उठाए जाने वाले कचरे के हर बैग का वजन 2-3 किलोग्राम से अधिक नहीं होता है और इसे आसानी से डिस्पोज कर दिया जाता है.

उन्होंने कहा, ‘वास्तव में केस संख्या घटने के साथ कचरे की मात्रा घटती रही है. हालांकि, कचरा कमोबेश यही रहा है. जब कोविड के कारण कचरा बढ़ गया था, तो गैर-कोविड इलाज और अन्य बीमारियों के कारण होने वाली सर्जरी के कारण निकलने वाला कचरा घट गया था (अस्पताल जाने को लेकर लोगों में भय था).’

हालांकि, एक महामारी विज्ञानी और सेफ इंजेक्शन प्रैक्टिस के लिए काम करने वाले सेफ प्वाइंट नामक एक एनजीओ (भारत के सबसे बड़े सिरिंज निर्माता हिंदुस्तान सिरिंज एंड मेडिकल डिवाइसेस की तरफ से वित्त पोषित है) में प्रोजेक्ट एडवाइजर एच.एस. रत्ती ने कहा कि सिरिंज के कारण उत्पन्न होने वाला बायोमेडिकल कचरा गैर-कोविड वर्ष की तुलना में कम से कम दोगुना हो गया है.’

उन्होंने कहा, ‘पीपीई किट, दस्ताने और मास्क आदि के साथ बायोमेडिकल कचरा तकरीबन दोगुने से अधिक हो गया है. हालांकि, अगर ठीक से पालन किया जाए तो कचरे के प्रबंधन के लिए दिशानिर्देश काफी चाक-चौबंद हैं.’

कचरे को छांटना

केंद्र सरकार के बायोमेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट (बीडब्ल्यूएम) रूल, 2016 के तहत स्वास्थ्य केंद्रों में सिरिंज और सुइयों को क्रमशः लाल और सफेद रंग के बैग में फेंका जाता है.

लाल रंग का गैर-क्लोरीनयुक्त प्लास्टिक बैग विषैले लेकिन रिसाइकिल योग्य कचरे जैसे इंट्रावेनस ट्यूब, कैथेटर, बोतलें, यूरिन बैग, सिरिंज (बिना सुई वाली) और दस्ताने के लिए होता है.

सफेद रंग का टेंपर प्रूफ कंटेनर ‘शॉर्प्स’ या सिरिंज की सुई जैसे तेज धार वाले धातु के चिकित्सा उपकरणों के लिए होता है.

कचरा प्रबंधन संबंधी उद्देश्यों के तहत हर राज्य को चार क्षेत्रों में बांटा गया है. हर क्षेत्र को आगे जिलों के आधार पर बांटा गया है जहां अपशिष्ट प्रबंधन एजेंसियों को एक क्षेत्र विशेष में अस्पतालों और क्लीनिकों का बायोमेडिकल कचरा एकत्र करने का काम सौंपा जाता है.

फिर जिलों से एकत्र कचरे को प्रबंधन और निष्पादन के लिए अपने संयंत्रों में ले जाया जाता है.

गहलोत ने कहा, ‘अपशिष्ट प्रबंधन संयंत्र राज्यों के स्तर पर काम करते हैं और अन्य राज्यों से कचरा एकत्र नहीं कर सकते हैं.’

पर्यावरण मंत्रालय ने मार्च में संसद को बताया था कि राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और प्रदूषण नियंत्रण समितियों ने इस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा बनने के लिए 202 अपशिष्ट प्रबंधन और निष्पादन केंद्रों को अधिकृत किया है.

कचरे को कैसे डिस्पोज करते हैं

गहलोत ने बताया कि एकत्रित कचरे को सबसे पहले ऑटोक्लेव किया जाता है, ताकि इसका आकार-प्रकार पूरी तरह बदला जाना सुनिश्चित हो सके.

आटोक्लेविंग इस कचरे को उच्च तापमान और दबाव की स्थिति में डिसइंफेक्ट और स्टरलाइज करने की एक विधि है. इसका उद्देश्य सूक्ष्मजीवों और कीटाणुओं को मारना है.

कछाड़िया, जो गुजरात में काम करने वाली एजेंसी डिस्ट्रोम्ड बॉयो क्लीन के निदेशक भी हैं, ने बताया, ‘ऑटोक्लैविंग की प्रक्रिया बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि सिरिंज में रक्त का संक्रमण हो सकता है. इसके लिए आमतौर पर 30 मिनट के लिए 120 डिग्री सेल्सियस के तापमान की जरूरत होती है.’

आटोक्लेव के बाद रिसाइकिल किए जाने योग्य कचरे को कचरा इसके लिए अधिकृत रिसाइकलर्स के पास भेज दिया जाता है.

जो कचरा रिसाइकिल नहीं हो सकता उसे जलाकर नष्ट करने के लिए भेज दिया जाता है. इन प्लांट में इस कचरे की मात्रा (90 प्रतिशत तक) और वजन (75 प्रतिशत तक) घट जाता है और बीमार करने वाले और विषाक्त रसायन नष्ट हो जाते हैं.

बाकी कचरे को ‘गहराई में गाड़’ दिया जाता है—किसी गड्ढे या ऐसी किसी फैसिलिटी में जहां इनकैप्सुलेशन की सुविधा हो.

बीडब्ल्यूएम 2016 के नियमों के तहत यह गहरा गड्ढा गोलाकार या आयताकार हो सकता है, और ईंटों को सीमेंट-प्लास्टर लगाकर बना हुआ या कंक्रीट के घेरे वाला होना चाहिए. एक बार गड्ढा भर जाने के बाद इसे पूरी तरह से सील किया जाना होता है.

कछाड़िया ने कहा, ‘ये गड्ढे सरकार की अनुमति वाले क्षेत्रों में ही बनाए जा सकते हैं और सभी वेंडर को कुछ क्षेत्रों की सूची दी जाती है.’

विशेषज्ञों का कहना है कि यद्यपि मानक तो बने हुए हैं लेकिन असली चुनौती यह पता लगाने की है कि क्या छोटे-छोटे स्वास्थ्य केंद्रों में उनका पालन किया जा रहा है.

एआईएमईडी फोरम के कोऑर्डिनेटर राजीव नाथ ने कहा, ‘भारत सरकार ने बायोमेडिकल वेस्ट की विभिन्न श्रेणियों के मुताबिक इनके निष्पादन के लिए मानक, प्रोटोकॉल और दिशानिर्देश निर्धारित किए हैं, लेकिन प्राइमरी हेल्थकेयर सेंटर और छोटे क्लिनिकों में इनका पालन करना आसान नहीं हो सकता है.’

उन्होंने कहा, ‘खुले डस्टबिन में शार्प्स का जोखिम भरा डिस्पोजल असामान्य नहीं है और इसलिए, सबसे जरूरी यह है कि सरकार इनके निष्पादन पर कड़ी नजर रखे.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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