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Monday, 23 December, 2024
होमदेशवैज्ञानिकों ने रूसी कोविड वैक्सीन स्पुतनिक-5 की कामयाबी का दावा करने वाली लांसेट स्टडी में कमियां निकालीं

वैज्ञानिकों ने रूसी कोविड वैक्सीन स्पुतनिक-5 की कामयाबी का दावा करने वाली लांसेट स्टडी में कमियां निकालीं

मूल रूप से अमेरिका की टेम्पल यूनिवर्सिटी के, बायोकेमिस्ट्री और माइक्रोबायोलजी एक्सपर्ट, एनरीको बुची द्वारा सोमवार को लिखे पत्र को, कम से कम 23 दूसरे वैज्ञानिकों का समर्थन हासिल हुआ है.

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नई दिल्ली: दुनिया भर में शोधकर्ताओं के एक ग्रुप ने, पिछले हफ्ते लांसेट पत्रिका में छपी उस स्टडी के आंकड़ों में, विसंगतियों का आरोप लगाया है, जिसमें कहा गया था कि रूसी कोरोनावायरस वैक्सीन कैंडीडेट स्पुतनिक-5, कोविड-19 मरीज़ों में इम्यून रेस्पॉन्स पैदा करने में कामयाब रही है.

मूल रूप से अमेरिका की टेम्पल यूनिवर्सिटी के, बायोकेमिस्ट्री और माइक्रोबायोलजी एक्सपर्ट, एनरीको बुची द्वारा सोमवार को लिखे पत्र को, कम से कम 23 दूसरे वैज्ञानिकों की हिमायत मिल चुकी है, जिन्होंने सह- हस्ताक्षरकर्ताओं के तौर पर अपना समर्थन दिया है.

4 सितंबर को छपी लांसेट की इस स्टडी में, ख़बर दी गई कि दो हिस्सों की स्पुतनिक-5, बिना किसी गंभीर साइड फेक्ट के, प्राप्तकर्ताओं में एंटीबॉडी और इम्यून रेस्पॉन्स दोनों को सक्रिय करने में कामयाब रही है. इस वैक्सीन को सरकार समर्थित, गमालेया रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ एपीडेमियॉलजी एंड माइक्रोबायोलजी (जीआरआईईएम) द्वारा विकसित किया गया, और इसकी फंडिंग सरकार समर्थित रशियन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट फंड (आरडीआईएफ) द्वारा की गई.

शोधकर्ताओं और लांसेट संपादक रिचर्ड हॉर्टन को लिखे अपने खुले पत्र में, बुची और अन्य ने इस बात की ओर ध्यान खींचा है, कि स्टडी के नतीजों को पेश करने के लिए, इस्तेमाल किए गए ग्राफ्स में कई पैटर्न्स दोहराए गए हैं, जिन्हें समझाया नहीं गया है.

बुची ने पत्र में लिखा, ‘मौजूदा महामारी के दौरान, एक कारगर वैक्सीन के लिए लोगों की बेइंतिहा दिलचस्पी, और अपेक्षाओं को पूरी तरह समझा जा सकता है. लेकिन इन्हीं कारणों से वैज्ञानिक समुदाय को प्रेरित होना चाहिए, कि वो वैज्ञानिक साक्ष्यों और उनसे जुड़े डेटा को और ज़्यादा तवज्जो दें. इसलिए ये और भी ज़रूरी हो जाता है, कि ये चीज़ें क़रीबी जांच के लिए पूरी तरह उपलब्ध हों’.

मौजूदा स्टडी का मूल्यांकन करने के लिए, उन्होंने तमाम प्रयोगों के संख्यात्मक डेटा की मांग की है.

ख़बर पब्लिश किए जाने तक, लांसेट स्टडी के लेखकों को भेजे गए ईमेल का, कोई जवाब हासिल नहीं हुआ था.


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‘विसंगतियां’

लेखकों ने जिन ग्राफ्स की और इशारा किया है, उनमें से एक (जिसपर फिगर 2 का लेबल है) सभी श्रेणी के मरीज़ों के लिए (जिन्हें वैक्सीन के दो अलग अलग फॉर्मुलेशंस दिए गए), अलग अलग समय पर, एंटीबॉडीज़ के अलग अलग स्तर दिखाता है.

Figure 2, sourced from the open letter
फीगर-2, सोर्स- खुला पत्र.

बुची ने अपने पत्र में लिखा, ‘रेड बॉक्सेज़ में, 9 में से 9 वॉलंटियर्स, जिन्हें आरएडी26-एस दी गयी थी, उनमें 21 और 28 दिन के समान एंटीबॉडी टिटर्स पाए गए; उन 9 में से 7 वॉलंटियर्स में भी यही देखा गया, जिन्हें आरएडी5-एस (येलो बॉक्सेज़) दी गई थी.’

उन्होंने आगे लिखा, ‘इसके अलावा, सियान बॉक्सेज़ में हम देख सकते हैं, कि दो पूरी तरह से असंबद्ध प्रयोगों में, एक नियत मान पर सभी प्रायोगिक अंक, अलग अलग दिख रहे हैं’.

रिसर्चर्स ने कहा कि अन्य दो पूरी तरह असंबद्ध वॉलंटियर ग्रुप्स में, नौ में से आठ प्रायोगिक अंक एक जैसे हैं, जिन्हें ग्रीन बॉक्सेज़ में दिखाया गया है.

फिगर 3 का लेबल लगे एक अन्य ग्राफ में, अलग अलग फॉर्मुलेशंस का सेलुलर रेस्पॉन्स दिखाया गया है. रिसर्चर्स का दावा है कि यहां भी, एक ही रंग के बॉक्सेज़ में रखकर, वही पैटर्न्स दोहराए गए हैं.

Figure 3, sourced from the open letter
फीगर-3, सोर्स खुला पत्र.

उनका कहना है कि ये देखते हुए, कि सेलुलर रेस्पॉन्स अत्यंत परिवर्तनशील होते हैं, और हर आदमी के अलग होते हैं, अलग अलग प्रयोगों के डेटा अंकों में, किसी पैटर्न के उभरने की संभावना नहीं होती.

स्टडी की फिगर 4 में भी दोहराव का आरोप लगाया गया है, जिसमें निष्क्रिय करने वाले एंटीबॉडीज़ बनते हुए दिखाया गया है.

Figure 4, sourced from the open letter
फीगर-4, सोर्स- खुला पत्र.

पत्र में रिसर्चर्स ने लिखा, ‘हमें ऐसा लगता है कि सरल संभाव्य मूल्यांकनों के आधार पर, इस बात की संभावना बहुत कम लगती है, कि विभिन्न प्रयोगों में संरक्षित इतने सारे डेटा का, अवलोकन किया गया होगा’.

हेल्थ व बायोमेडिकल साइंसेज़ में शोध को फंड करने वाली संस्था, वेल्कम ट्रस्ट डीबीटी इंडिया अलायंस के, चीफ एग्ज़ीक्यूटिव ऑफिसर और भारतीय वाइरॉलोजिस्ट, शाहिद जमील ने कहा कि बुची द्वारा उठाए गए प्वॉइंट्स जायज़ हैं.

जमील ने कहा, ‘असली डेटा तक न पहुंच पाने के कारण, ग्राफ्स पर कई जगह प्वॉइंट्स और पैटर्न्स, कुछ ज़्यादा ही समान दिखते हैं. इससे डेटा के बारे में, और वैक्सीन के टेस्ट करने के तरीक़े को लेकर, चिंता पैदा होती है’.

उनका कहना था कि सिर्फ 40 वॉलंटियर्स के साथ किए गए ट्रायल्स ‘कमज़ोर’ हैं. उन्होंने कहा, ‘इसकी वजह से फेज़ 2 के डेटा को लेकर, वास्तविक और गंभीर चिंता पैदा होती है’.

जमील ने आगे कहा, ‘किसी भी पेपर को स्वीकार या ख़ारिज करने के लिए, पत्रिकाएं पियर रिव्यू पर निर्भर करती हैं. समीक्षकों को इसे देखना चाहिए था. लेकिन लांसेट जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका इस ज़िम्मेदारी से हाथ नहीं धो सकती’.

‘शोध दलों पर दबाव’

कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान ये पहली बार नहीं है, कि दुनिया की सबसे विशिष्ट मेडिकल पत्रिकाओं में से एक- दि लांसेट, महामारी से जुड़ी रिसर्च को लेकर घेरे में आई है.

जून में, पत्रिका को अपनी एक स्टडी वापस लेनी पड़ी थी, जिसमें मलेरिया विरोधी दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन (एचसीक्यू)- जिसे महामारी के शुरूआती चरण में, कोविड के संभावित इलाज और रोकथाम की दवा के तौर पर देखा जा रहा था- का संबंध कोविड-19 मरीज़ों में मौत के ख़तरे, और हृदय की अनियमित लय से जोड़ा था.

उस स्टडी की वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने, कोविड-19 का कारगर इलाज ढूंढने के लिए किए जा रहे ‘सॉलिडैरिटी ट्रायल’ के, एचसीक्यू आर्म को रोक दिया. लेकिन जल्द ही उस स्टडी के आंकड़ों पर सवाल उठाए जाने लगे.

दिप्रिंट से बात करते हुए कुछ शोधकर्ताओं ने कहा, कि दि लांसेट की ताज़ा स्टडी, वो मूल आंकड़े पेश नहीं करती, जिनसे सवालों में घिरे ये ग्राफ्स बनाए गए थे.

अशोका विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले, संक्रामक रोग विशेषज्ञ गौतम मेनन ने कहा, ‘इस मूल डेटा तक पहुंचने से, इन विसंगतियों के स्पष्टीकरण में मदद मिलेगी’.

आईआईएसईआर पुणे के रिसर्चर सत्यजीत रथ का मानना था, कि डेटा से जुड़ी विसंगतियों का संबंध उस दबाव से है, जो वैज्ञानिक लोग महामारी की वजह से झेल रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘मुझे ताज्जुब नहीं है कि कुछ विसंगतियां, जो अन्य के मुक़ाबले ज़्यादा मामूली हैं, कोविड-19 से जुड़े प्रकाशनों में मिलती रहेंगी, चूंकि उस इलाक़े में सभी रिसर्च ग्रुप्स, दबाव में काम कर रहे होंगे’.

रथ ने आगे कहा, ‘पत्रिकाओं और समीक्षकों दोनों पर, तेज़ी से फैसले लेने का भी दबाव होगा. इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं, कि विसंगतियां आ जाती हैं. अगर सब नहीं तो भी, अधिकांश प्रकाशन (प्री-प्रिंट्स भी) जिस गहन छानबीन से गुज़र रहे हैं, मुझे इसमें शक है कि ऐसी ग़लतियों के, अगर हुए भी, तो कुछ बड़े व्यवहारिक नतीजे होंगे’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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