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Friday, 22 November, 2024
होमहेल्थगरीबों से 7.5 साल अधिक जीते हैं अमीर, दलितों से 15 साल लंबा होता है ऊंची जाति की महिलाओं का जीवन: ऑक्सफैम रिपोर्ट

गरीबों से 7.5 साल अधिक जीते हैं अमीर, दलितों से 15 साल लंबा होता है ऊंची जाति की महिलाओं का जीवन: ऑक्सफैम रिपोर्ट

ऑक्सफैम रिपोर्ट रेखांकित करती है कि ये असमानताएं कोविड महामारी के दौरान कैसे उभर कर सामने आईं, जब ग़रीब लोग स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं का लाभ नहीं उठा सके.

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नई दिल्ली: देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर ऑक्सफैम की एक नई रिपोर्ट में ख़ुलासा हुआ है कि भारत में हर वर्ग और जाति में स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच के मामले में घोर असमानताएं पाई जाती हैं.

ऑक्सफैम्स इनइक्वैलिटी रिपोर्ट 2021: इंडियाज़ अनईक्वल हेल्थकेयर स्टोरी में पता चला है कि कैसे वर्ग और जातियों की असमानता अन्य बातों के अलावा अनुमानित जीवन-काल, शिशु मृत्यु-दर और साफ-सफाई में भी अंतर पैदा करती है.

रिपोर्ट में, जिसमें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के तीसरे और चौथे तथा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के कई चरणों के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया निष्कर्षों को ‘स्वास्थ्य में सामाजिक क्रमिकता’ का सूचक बताया गया है.

रिपोर्ट के अनुसार, अमीर लोग ग़रीबों से 7.5 साल अधिक जीते हैं और ऊंची जाति की महिलाओं का जीवन दलित महिलाओं से 15 साल लंबा होता है.

मंगलवार को जारी रिपोर्ट में कहा गया, ‘2011-15 के बीच के अस्थायी डेटा का इस्तेमाल करते हुए भारत में जन्म के समय अनुमानित जीवन-काल की असमानता का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि दौलत पर आधारित अनुमानित जीवन-काल निचले 20 प्रतिशत घरों के लिए 65.1 साल है, जबकि शीर्ष के 20 प्रतिशत के लिए ये 72.7 प्रतिशत है, जिसमें 7.6 साल का अंतर है. अमीर लोग ग़रीबों के मुक़ाबले औसतन साढ़े सात साल ज़्यादा जीते हैं’.

रिपोर्ट में रेखांकित किया गया कि ये असमानताएं कोविड महामारी के दौरान कैसे सामने आईं. जब ग़रीब लोग स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं का लाभ नहीं उठा सके.

उसमें कहा गया, ‘ग़ैर-कोविड सेवाओं के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के बंद होने और आजीविका तथा आमदनी के नुक़सान की वजह से ग़रीब लोग चिकित्सा देखभाल का लाभ नहीं उठा सके. सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं वंचित आबादी को लाभ पहुंचाने में असमर्थ रही हैं. जिसमें ग़रीब हाशिए पर पड़े लोग और महिलाएं शामिल हैं. ये असमर्थता दर्शाती है कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली हेल्थकेयर को सभी के लिए सुगम और वहन करने योग्य नहीं बना पाई है’.

हेल्थकेयर सिस्टम में असमानताओं को उजागर करने के लिए रिपोर्ट में पांच प्रमुख सूचक इस्तेमाल किए गए: लिंग, भूगोल, धन समूह, सामाजिक समूह और धर्म.

स्वास्थ्य पर कम ख़र्च

रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य ख़र्च के मामले में ब्रिक्स देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे ख़राब था.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘केंद्र और राज्य सरकारों का स्वास्थ्य पर कुल वर्तमान ख़र्च जीडीपी का केवल 1.25 प्रतिशत है जो ब्रिक्स देशों में सबसे कम है- ब्राज़ील में ये आवंटन सबसे अधिक (9.2%) है, जिसके बाद दक्षिण अफ्रीका (8.2%), रूस (5.3%) और चीन (5%) आते हैं.’

इसके अलावा ये भी देखा गया कि स्वास्थ्य ख़र्च के मामले में, भारत का शुमार सबसे निचले देशों में होता है, जो विश्व में 154 स्थान पर आता है.

चित्रण : रमनदीप कौर / दिप्रिंट

लेकिन, रिपोर्ट में कहा गया कि पिछले कुछ दशकों में भारत में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में सुधार हुआ है और विश्व में इसकी रैंकिंग जो 1990 में 153 थी, 2016 में बढ़कर 145 हो गई. लेकिन ये अभी भी बांग्लादेश (132), श्रीलंका (71), भूटान (134) और ब्रिक्स समकक्षों जैसे ब्राज़ील (96), रूस (58), और चीन तथा दक्षिण अफ्रीका (127) से नीचे है.

कम ख़र्च का ग़रीबों पर असर

रिपोर्ट में कहा गया कि देश में स्वास्थ्य पर कम ख़र्च का ग़रीबों पर ज़्यादा असर पड़ता है. रिपोर्ट में आगे कहा गया कि ग़रीबों के पास मोटे तौर पर दो विकल्प रह जाते हैं- या तो अपर्याप्त/कमज़ोर सार्वजनिक हेल्थकेयर या फिर महंगी निजी हेल्थकेयर.

रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में जेब से किया गया स्वास्थ्य ख़र्च 64.2 होता है, जबकि विश्व औसत 18.2 प्रतिशत है. उसमें आगे कहा गया कि स्वास्थ्य देखभाल पर अत्यधिक ख़र्च ने बहुत से लोगों को संपत्ति बेंचने या क़र्ज़ लेने पर मजबूर कर दिया है.

रिपोर्ट में सरकार के इन अनुमानों पर रोशनी डाली गई, कि भारत में अकेले स्वास्थ्य देखभाल ख़र्च के कारण, हर साल 6.3 करोड़ लोग ग़रीबी का शिकार हो जाते हैं. उसमें कहा गया, ‘अस्पताल भर्ती के 74 प्रतिशत मामलों का ख़र्च बचत के पैसों से उठाया जाता है, जबकि 20 प्रतिशत मामलों में उधार लिया जाता है. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में, स्वास्थ्य देखभाल ख़र्च उठाने का मुख्य स्रोत अभी भी, घरेलू संपत्ति की बिक्री, या गहने गिरवी रखकर ऊंची ब्याज दरों पर उधार पैसा लेना है, जिसके बाद आमदनी और बचत आते हैं’.


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रिपोर्ट में कहा गया, ‘कमज़ोर सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली स्वास्थ्य के सामाजिक-आर्थिक निर्धारकों को संबोधित करने में विफल रही है, जिसके नतीजे में असमानताएं पैदा हुई हैं’.

वर्गों के बीच भेद

भारत में शिशु मृत्यु दर (आएमआर) का झुकाव अमीरों के पक्ष में है. अमीरों के बीच आईएमआर 19.8 प्रतिशत है, जबकि ग़रीबों के लिए ये 56.3 प्रतिशत है, और पूरे देश में इसका औसत 40.7 प्रतिशत है.

स्वच्छ पेय जल तक पहुंच भी एक ऐसा विशेषाधिकार है, जिसका मज़ा अमीर लोग ही लेते हैं. रिपोर्ट में कहा गया, ‘जहां शीर्ष 20 प्रतिशत वर्ग के 93.4 प्रतिशत घरों में बेहतर स्वच्छता है, वहीं निचले 20 प्रतिशत वर्ग में केवल 6 प्रतिशत को ये सुविधा मयस्सर है- दोनों में 87.4 प्रतिशत का अंतर है’.

सकारात्मक सूचक

ऑक्सफैम रिपोर्ट में ये भी दिखा, कि कुछ स्वास्थ्य सूचकों में सुधार हुआ है. मसलन, भारत में संस्थागत डिलीवरीज़ का हिस्सा 2005-06 में 38.7 प्रतिशत से बढ़कर, 2015-16 में 78.9 प्रतिशत पहुंच गया. निगरानी में हुए जन्मों में मां और नवजात की जान को ख़तरा कम रहता है.

12-23 महीनों के बीच पूरी तरह टीके लगे हुए बच्चों की संख्या, 2005-06 में 43.5 प्रतिशत से बढ़कर 2015-16 में 62 प्रतिशत पहुंच गई. रिपोर्ट में कहा गया, ‘लगभग तीन-चौथाई ज़िलों में 12-23 महीनों की उम्र के, 70 प्रतिशत या उससे अधिक बच्चों को बीमारियों के पूरे टीके लग चुके हैं. इसका श्रेय 2015 के बाद से सरकार द्वारा शुरू की गई फ्लैगशिप पहल, मिशन इंद्रधनुष को दिया जा सकता है’.

लेकिन, कोविड ने भारत में टीकाकरण की प्रगति पर ख़तरा खड़ा कर दिया है, और ऐसा अवरोध अपने पीछे दुनिया में बिना टीका लगे बच्चों की, सबसे बड़ी संख्या छोड़कर जा सकता है.

15-19 आयु वर्ग में मां या गर्भवती बनने वाली महिलाओं का प्रतिशत भी, 2005-06 में 16 प्रतिशत से गिरकर, 2015-16 में 8 प्रतिशत पर आ गया है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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