नई दिल्ली: एक नए अध्ययन में पाया गया है कि 2008 से 2019 के बीच हर साल 10 भारतीय शहरों में लगभग 33,000 मौतें विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के दिशा-निर्देशों से अधिक वायु प्रदूषण के स्तर के कारण हुई हैं. अध्ययन के अनुसार, वर्तमान भारतीय वायु गुणवत्ता मानकों से नीचे का प्रदूषण स्तर भी दैनिक मृत्यु दर में वृद्धि का कारण बनता है.
द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ पत्रिका में गुरुवार को प्रकाशित यह अध्ययन भारत में अल्पकालिक वायु प्रदूषण जोखिम और मृत्यु के बीच संबंध का आकलन करने वाला पहला कई शहरों के अध्ययन पर आधारित है. इसने दस शहरों में PM2.5 (2.5 माइक्रोमीटर से कम व्यास वाले अल्ट्राफाइन पार्टिकुलेट मैटर) के संपर्क और 2008 से 2019 के बीच दैनिक मृत्यु दर का आकलन किया.
अध्ययन में पाया गया कि मुंबई, बेंगलुरु, कोलकाता और चेन्नई जैसे शहरों में भी, जहां प्रदूषण का स्तर अपेक्षाकृत कम है, मृत्यु दर में उल्लेखनीय वृद्धि प्रदूषण के संपर्क के कारण हो सकती है, जो भारत की निगरानी एजेंसियों द्वारा निर्धारित कम प्रदूषण मानकों की ओर इशारा करता है.
हाल के वर्षों में, सबसे अच्छी वायु रिकॉर्डिंग वाले शहर भी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की वैश्विक सूची में शामिल हो गए हैं. स्विस वायु गुणवत्ता निगरानी निकाय द्वारा जारी विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट 2023 के अनुसार, भारत को बांग्लादेश और पाकिस्तान के बाद वैश्विक स्तर पर तीसरा सबसे प्रदूषित देश घोषित किया गया था.
रिपोर्ट की शीर्ष 50 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में, 42 शहर भारत के थे.
नई दिल्ली स्थित स्वतंत्र शोध संगठन सस्टेनेबल फ्यूचर्स कोलैबोरेटिव के फेलो और पेपर के मुख्य लेखक भार्गव कृष्ण ने कहा कि निष्कर्ष वायु प्रदूषण के स्तर को कम करने में भारतीय राज्यों की अक्षमता को रेखांकित करते हैं.
“हमारा विश्लेषण मुंबई, बेंगलुरु, कोलकाता और चेन्नई जैसे पहले कम प्रदूषित माने जाने वाले शहरों में भी मृत्यु पर वायु प्रदूषण के पर्याप्त प्रभावों को उजागर करता है.”
उन्होंने कहा कि चूंकि अब यह ज्ञात हो गया है कि भारतीय प्रदूषण निगरानी एजेंसियों द्वारा निर्धारित सीमाओं से नीचे भी प्रदूषण का स्तर घातक प्रभाव डालता है, इसलिए इन एजेंसियों को उत्सर्जन को कम करने के लिए साल भर कार्रवाई करनी चाहिए.
मौजूदा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के मानकों में PM 2.5 के लिए 25 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर और PM 10 के लिए 50 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर की दैनिक सीमा तय की गई है.
‘वायु गुणवत्ता मानकों पर पुनर्विचार करने की तत्काल आवश्यकता’
अध्ययन से पता चला है कि 2008 से 2019 के बीच, अहमदाबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता, मुंबई, पुणे, शिमला और वाराणसी में सभी मौतों में से 7.2 प्रतिशत – जो हर साल लगभग 33,000 थी – का संबंध अल्पकालिक PM2.5 के एक्सपोजर की वजह से हो सकता है, जो WHO के दिशा-निर्देश मान 15 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से अधिक है.
निष्कर्षों ने यह भी उजागर किया कि प्रत्येक मामले में, अल्पकालिक PM2.5 एक्सपोज़र में 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर की वृद्धि दैनिक मौतों में 1.42 प्रतिशत की वृद्धि से जुड़ी थी. प्रदूषण के विशिष्ट स्थानीय स्रोतों के कारण यह अनुमान लगभग दोगुना होकर 3.57 प्रतिशत हो गया.
अशोका विश्वविद्यालय के त्रिवेदी स्कूल ऑफ बायोसाइंसेज में सेंटर फॉर हेल्थ एनालिटिक्स रिसर्च एंड ट्रेंड्स (CHART) की निदेशक पूर्णिमा प्रभाकरन, जो अध्ययन का हिस्सा भी थीं, ने दिप्रिंट को बताया कि निष्कर्ष भारत में वायु गुणवत्ता मानकों की फिर से समीक्षा करने के महत्व पर जोर देते हैं.
उन्होंने कहा, “यह अंतर्दृष्टि हमारी वायु गुणवत्ता प्रबंधन रणनीतियों की फिर से समीक्षा करने की तत्काल आवश्यकता का संकेत देती है, जो वर्तमान में केवल ‘गैर-प्राप्ति शहरों (Non-attainment Cities)’ (ऐसे शहर जो कम से कम पांच वर्षों तक लगातार राष्ट्रीय वायु प्रदूषण मानकों को पूरा करने में विफल रहे) पर केंद्रित हैं, कम जोखिम सीमाओं के लिए वर्तमान वायु गुणवत्ता मानकों पर पुनर्विचार करें और मानव स्वास्थ्य की प्रभावी रूप से रक्षा करने के लिए क्षेत्रीय स्रोतों से स्थानीय स्रोतों को संबोधित करने की ओर रुख करें.”
साल भर कार्रवाई करने पर अधिक ध्यान देना होगा
विभिन्न सुझावों को सूचीबद्ध करते हुए, शोधकर्ताओं ने कहा कि भारत में वायु प्रदूषण नीति वर्तमान में ‘गैर-प्राप्ति शहरों’ पर केंद्रित है, जो वर्तमान भारतीय मानकों को पूरा करने में विफल हैं. हालांकि, चूंकि PM2.5 के लिए वर्तमान भारतीय मानक स्वयं WHO के वर्तमान दिशानिर्देश मान 15 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से चार गुना अधिक है, इसलिए इन शहरों से परे कई और क्षेत्रों के लोग भी असुरक्षित हैं.
स्वीडन के कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट में एसोसिएट प्रोफेसर और अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं में से एक डॉ. पीटर लजुंगमैन ने रिपोर्ट जारी करने के दौरान कहा, “भारत में हम जो वायु प्रदूषण का स्तर देखते हैं, वह वास्तव में बहुत अधिक है, और यह अध्ययन स्पष्ट रूप से दिखाता है कि इन स्तरों में दिन-प्रतिदिन के बदलाव से किस तरह से मृत्यु दर में काफी वृद्धि होती है.”
“दिलचस्प बात यह है कि हमने देखा कि स्थानीय प्रदूषण स्रोत के अधिक दूर के स्रोतों की तुलना में अधिक विषाक्त होने की संभावना है, जिसका मानव स्वास्थ्य से जुड़े इस अति प्रासंगिक मामले को लेकर नीति निर्माताओं पर प्रभाव पड़ता है.”
शोधकर्ताओं ने कहा कि इसके लिए पूरे साल कार्रवाई पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, न कि केवल जब चरम मौसमी स्थितियां होती हैं तब. मृत्यु दर के जोखिम का एक बड़ा हिस्सा कम से मध्यम PM2.5 स्तरों से जुड़ा हुआ है, जो उच्च स्तरों पर जोखिम को कम करता है. रिपोर्ट के अनुसार, ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (GRAP) जैसे मौजूदा हस्तक्षेप प्रदूषण के चरम सीमाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं और साल भर की कार्रवाई पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उन्हें फिर से समायोजित किया जाना चाहिए.
रिपोर्ट में कहा गया है, “वायु प्रदूषण के बिखरे हुए स्थानीय स्रोतों को बेहतर ढंग से हल करने के लिए नीतिगत साधन विकसित करें. ये ऐसे स्रोत हैं जिनके संपर्क में अधिकांश लोग नियमित रूप से आते हैं, लेकिन इन्हें हल करना सबसे जटिल भी है. हालांकि, ऐसा करने से स्वास्थ्य को काफी लाभ होगा. इसके लिए न केवल वातारण में प्रदूषण के ज्यादा होने पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता होगी, बल्कि उन स्रोतों पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा जिनके संपर्क में लोग सबसे अधिक आते हैं.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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