भारत इस समय म्यूकोरमाइकोसिस के प्रकोप का, शायद दुनिया भर में सबसे ज़्यादा सामना कर रहा है- एक ऐसा फंगल इनफेक्शन जिसके, दशकों के चिकित्सा अनुभव वाले डॉक्टरों ने भी, गिने चुके केस ही देखे हैं.
हिंदुस्तान टाइम्स की एक ख़बर से पता चलता है, कि भारत में इस घातक संक्रमण के, अभी तक 7,250 से अधिक मामले सामने आ चुके हैं, जिसकी वजह से नरेंद्र मोदी सरकार ने राज्यों से कहा है, कि म्यूकोरमाइकोसिस या ब्लैक फंगस को, एक सूचनीय बीमारी बना दिया जाए. सूचनीय बीमारी का मतलब है कि ऐसा केस दर्ज होते ही, केंद्र को अनिवार्य रूप से सूचित करना होता है. ट्यूबरकुलोसिस, हैज़ा और डिप्थीरिया, इसी श्रेणी की बीमारियां हैं.
इसका मतलब है कि भारत इस समय, एक महामारी के भीतर दूसरी महामारी की दोहरी मार झेल रहा है. विडंबना ये है कि ब्लैक फंगस के मामले मुख्य रूप से, एक आज़माए हुए उपचार के दुरुपयोग से पैदा हुए हैं, जिससे गंभीर कोविड मरीज़ों को मौत से बचाने में मदद मिलती है- स्टेरॉयड्स.
ग़लत जानकारी के साथ स्टेरॉयड्स का अंधाधुंध उपभोग- और साथ में सरकार का ये मानने से इनकार, कि स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली बेहद दबाव में है- जिसकी वजह से मरीज़ों का अस्वच्छ स्थितियों में इलाज होता है- दोनों इस परिहार्य त्रासदि के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं. अब सोशल मीडिया पर, म्यूकोरमाइकोसिस का इलाज करने वाली दवा एम्फोटेरिसीन बी के लिए, एसओएस संदेशों की संख्या धीरे धीरे, ऑक्सीजन से जुड़े संदेशों से ज़्यादा होती जा रही है.
यही वो कारण है जिसकी वजह से ब्लैक फंगस, इस बार दिप्रिंट का न्यूज़मेकर ऑफ दि वीक है.
यह भी पढ़ें: BJP ‘मुस्लिम विरोधी’, टीके हमें ‘बांझ’ कर देंगे – क्यों बिहार के ये मुस्लिम गांव कोविड वैक्सीनेशन से दूर भाग रहे हैं
डेक्सामेथाज़ोन का इस्तेमाल
ब्लैक फंगस एक ऐसा रोगाणु है, जो वातावरण में हर जगह मौजूद रहता है, लेकिन ये रोगाणु उन्हीं मरीज़ों में बीमारी पैदा करते हैं, जिनके इम्यून सिस्टम कमज़ोर हो जाते हैं- जैसे कि डायबिटीज़ और कैंसर के मरीज़.
म्यूकोरमाइकोसिस के लक्षणों में आंखों और नाक के पास दर्द और लाली, बुख़ार, सरदर्द, खांसी, और सांस फूलना आदि शामिल हैं. मरीज़ों की उल्टी या नाक बहने में, ख़ून भी आ सकता है. इस संक्रमण का अकसर देर से पता चलता है, और संक्रमण की गंभीरता तथा मरीज़ की दूसरी बीमारियों को देखते हुए, मृत्यु दर 30 से 70 प्रतिशत के बीच हो सकती है.
तो, भारत में अब इतने मामले क्यों देखे जा रहे हैं? इसका स्टेरॉयड्स से ज़रूर कोई ताल्लुक़ है.
डेक्सामेथाज़ोन मुंह से लिया जाने वाला एक स्टेरॉयड है, जो अति सक्रिय इम्यून रेस्पॉन्स को हल्का करने में सहायता करता है, जो मध्यम से गंभीर कोविड मरीज़ों में अकसर पाया जाता है. ये उन गिनी चुनी दवाओं में से एक है, जिसे निर्णायक रूप से ऐसे मरीज़ों में, मृत्यु दर को कम करते देखा गया है, जिन्हें ऑक्सीजन या वेंटिलेशन, या सांस लेने में किसी अन्य सहायता की ज़रूरत होती है. लेकिन, जिन स्टडीज़ में इसका असर देखा गया, वो उन हालात में नहीं की गईं, जो भारत में इस समय मौजूद हैं. स्टडी में दवा को अस्पताल के अंदर दिया गया, जहां न सिर्फ सफाई के मानकों का पालन होता है, बल्कि मरीज़ के वाइटल्स पर नज़र रखने के लिए, डॉक्टर भी उपलब्ध रहते हैं.
नारायण अस्पताल गुरुग्राम में नेत्र विभाग के प्रमुख, डॉ दिग्विजय सिंह ने पहले दिए गए एक इंटरव्यू में दिप्रिंट को बताया था, ‘हालांकि स्टेरॉयड्स आवश्यक दवाएं होती हैं, जो कोविड मौतों को बचाने के लिए जानी जाती हैं, लेकिन हम ऐसे मरीज़ों में म्यूकोरमाइकोसिस, ग्लूकोमा, और मोतियाबिंद के बढ़ते मामलों पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं, जिन्हें कोविड के उनके इलाज के समय, स्टेरॉयड्स दिए गए थे. इनमें से ज़्यादातर मरीज़ों को पहले से डायबिटीज़ रही थी’.
घर पर पैदा हुई त्रासदी
भारत में, कोविड मामलों में उछाल का असर ये हुआ, कि अस्पतालों पर इतना बोझ आ गया, कि वो गंभीर मरीज़ों को भी भर्ती नहीं कर सके, और ऐसे मरीज़ों तथा उनके परिवारों को, भगवान भरोसे छोड़ दिया गया.
भले ही ऑक्सीजन क़िल्लत ने भारतीयों को, सिलिंडर्स की क़तार में खड़ा कर दिया, या हताशा में सोशल मीडिया पर गुहार लगाने को मजबूर कर दिया, लेकिन मोदी सरकार लगातार अस्पतालों में बिस्तरों, और ऑक्सीजन की कमी से इनकार करती रही. खंडन जारी करने में जितना समय व्यर्थ किया गया, उसका इस्तेमाल कमी को स्वीकारने, और एक एडवाइज़री तैयार करने में किया जा सकता था, कि गंभीर मरीज़ों की घर पर कैसे देखभाल की जाए.
ऐसी किसी जानकारी के अभाव में, मरीज़, राज्य सरकारें, और वॉलंटियर्स अधूरी जानकारियों पर भरोसा करने लगा, जिसका नतीजा ये हुआ कि कोविड मरीज़ ऐसी दवाएं ले रहे थे, जो ऐसे सूक्ष्मजीवों के खिलाफ, उनके शरीर की क़ुदरती सुरक्षा को कमज़ोर कर रहे थे, जो आईसीयू के बाहर के वातावरण में पनपते हैं. अस्पतालों में वॉर्ड्स के अंदर भी, ऐसे मामले सामने आ रहे हैं, जहां मामलों की संख्या बढ़ने के कारण, गंभीर मरीज़ फंगस के संपर्क में आ रहे हैं.
भारत में लोग साफ-सफाई की जानकारी रखे बिना, कोविड-19 मरीज़ों को ऑक्सीजन सपोर्ट दे रहे थे. ऑक्सीजन उपचार में ह्यूमिडिफायर के लिए स्टराइल और डिस्टिल्ड वाटर चाहिए होता है. ह्यूमिडिफायर के अंदर डिस्टिल्ड पानी को हर रोज़ बदलना होता है, और एक्सपाइरी डेट के बाद इसे बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. जब अस्पतालों में बिस्तर ख़त्म हो गए, और डॉक्टर व नर्सों के पास समय कम होता था, तो ग़लतियां होनी लाज़िमी थीं.
बावजूद इसके कि स्टेरॉयड्स अस्पताल के बाहर नहीं दिए जाने चाहिएं, कुछ राज्य सरकारों ने होम आइसोलेशन किट्स के साथ, स्टेरॉयड्स भी वितरित किए.
दूसरी जगहों पर, भारतीय लोग पॉज़िटिव टेस्ट आने, या कोरोनावायरस संक्रमण के लक्षण दिखने के तुरंत बाद ही, ये गोलियां खाने लगते थे. दिप्रिंट ने पहले ख़बर दी थी, कि हल्का कोविड होने पर लोग कैसे गूगल पर भरोसा करते हुए, ऐसी गोलियां खा रहे हैं, जो सिर्फ अस्पताल के अंदर दी जानी चाहिएं.
दुर्भाग्यवश, गंभीर रूप से बीमार कोविड-19 मरीज़ों को, सिर्फ एक सलाह दी जाती थी, कि अस्पताल में भर्ती हो जाएं- किसी एडवाइज़री में इस सवाल का जवाब नहीं था, कि अगर अस्पताल में जगह उपलब्ध नहीं है, तो ऐसे में मरीज़ों को क्या करना है.
हालांकि रेमडिसिविर और टोसिलिज़ुमाब जैसी दवाओं की क़िल्लत सामने आने पर ये चर्चा शुरू हुई, कि उन्हें कब दिया जाना चाहिए, लेकिन डेक्सामेथाज़ोन पर किसी का ध्यान नहीं गया, क्योंकि ये अपेक्षाकृत ज़्यादा आसानी से उपलब्ध थी.
फिर एक और महामारी ने अपना सर उठाया.
कोविड की बढ़ती जटिलताएं
ब्लैक फंगस का इलाज काफी महंगा होता है, और फफूंदी हटाने के लिए, अकसर सर्जरी का सहारा लेना पड़ता है, जिसके नतीजे में आंख ख़राब भी हो सकती है.
इस फंगल बीमारी से सैकड़ों लोगों के मर जाने के बाद, आख़िरकार अब जाकर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आसीएमआर) ने, घरों पर मेडिकल ऑक्सीजन के इस्तेमाल को लेकर, कुछ गाइडलाइन्स जारी की हैं. लेकिन, स्टेरॉयड्स के इस्तेमाल पर इसमें केवल इतना कहा गया है, कि इसका इस्तेमाल विवेकपूर्ण ढंग से होना चाहिए- ‘सही समय, सही डोज़ और अवधि’.
ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने पांच दवा कंपनियों को, एम्फोटेरिसीन बी का उत्पादन करने की अनुमति दी है.
भारत में पहले ही कोविड मरीज़ों के अंदर, कुछ दूसरे सेकंडरी इनफेक्शन्स दिखने लगे हैं- कैंडिडा ऑरिस या साइटोमेगालोवायरस- जिसके साथ व्हाइट फंगस के मामले भी सामने आने लगे हैं. सरकार ऐसी घटनाओं को रोक नहीं सकती, लेकिन शायद भविष्य में, जब नई चुनौतियां सामने होंगी, तो उसका फोकस अपने नागरिकों को, बेहतर जानकारी उपलब्ध कराने पर होगा.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: फोन की इजाजत नहीं, बंगाल में सरकारी अस्पतालों के बाहर कोई जानकारी पाना परिजनों के लिए एक अंतहीन इंतजार है