नई दिल्ली: वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने कोयला तथा पेट्रोलियम मंत्रालय के साथ मिलकर, वो रसायन बनाने शुरू कर दिए हैं जो बहुत सी दवाओं में मुख्य उपचारात्मक घटक होते हैं. उद्देश्य ये है कि सक्रिय दवा सामग्री (एपीआईज़) के लिए चीन पर भारत की निर्भरता का स्थाई समाधान निकाला जा सके.
औषध विभाग ने 56 APIs की एक सूची तैयार की है ताकि मेक-इन-इंडिया पहल के लिए उनकी प्राथमिकता तय की जा सके. इनमें एपीआईज़ या थोक दवाएं शामिल हैं, जो आवश्यक दवाएं बनाने के काम में आती हैं, जैसे एंटीबायोटिक्स, एंटी-एचआईवी दवाएं, और सादा लेकिन बेहद ज़रूरी पैरासिटेमॉल.
इन उत्पादों के निर्माण को बढ़ावा देने के लिए, फरवरी में भारत सरकार ने उद्योग के लिए एक ‘उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन’ (पीएलआई) स्कीम का भी ऐलान किया. लेकिन फिलहाल ज़ोर एपीआईज़ पर है जिन्हें किसी लैबेरेट्री में रसायनिक प्रक्रिया की बजाय उफान प्रक्रियाओं से तैयार किया जा सकता है.
यही कारण है कि तवज्जो पेट्रोलियम और कोयला उद्योगों पर है. दोनों का संबंध कार्बन कंपाउण्ड्स से है जो कार्बनिक रसायन और दवा निर्माण का आधार होते हैं.
हैदराबाद स्थित सीएसआईआर की एक संघटक प्रयोगशाला, भारतीय रासायनिक प्रौद्योगिकी संस्थान के निदेशक डॉ श्रीवारी चंद्रशेखर ने दिप्रिंट को बताया, ‘विचार ये है कि इन 56 एपीआईज़ का शुरू से अंत तक उत्पादन किया जाए, लेकिन अभी के लिए हमारा ज़ोर फरमेंटेशन उत्पादों पर है. यही कारण है कि सीएसआईआर औषध विभाग, और कोयला तथा पेट्रोलियम मंत्रालय के साथ मिलकर काम कर रही है’.
उन्होंने आगे कहा, ‘दोनों का संबंध कार्बन कंपाउण्ड्स और शीरे से होता है, जिसमें सात में से पांच-छह कंपाउंड्स होते हैं, जिन्हें शुद्ध करके एपीआईज़ की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. उम्मीद है कि आगामी दो-तीन वर्षों में हमारे पास 10-12 एपीआईज़ हो जाएंगे’.
पहले चरण में, क़रीब 30 सामग्रियों पर ध्यान दिया जा रहा है. उन्होंने कहा कि भारत में एपीआईज़ बनाने का काम पिछले कुछ समय से चल रहा है, लेकिन सीआईएसआर को हाल ही में साथ लिया गया है.
भारत अपनी लगभग 66 प्रतिशत एपीआईज़ चीन से आयात करता है.
देश के अन्यथा शक्तिशाली दवा उद्योग की कच्चे माल के लिए चीन पर निर्भरता, कुछ सालों से चिंता का विषय रही है, और इस पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं कि इससे बीजिंग को सौदेबाजी की ज़बर्दस्त ताकत मिलती है.
इन चिंताओं में तात्कालिकता 2017 के डोकलम गतिरोध के बाद आई, जब द्विपक्षीय रिश्ते बिल्कुल नीचे पहुंच गए. 2020 के शुरूआती महीनों में चीन में कोविड लॉकडाउन ने, जिसने भारत में कमी का डर पैदा कर दिया, एपीआई में आत्मनिर्भरता की मांग को और तेज़ कर दिया. उसके बाद लद्दाख़ के गतिरोध ने दोनों पड़ोसियों के आपसी रिश्तों को और जटिल कर दिया.
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भारत बहुत से देशों से आयात करता है APIs
चीन भले ही भारत को एपीआईज़ का सबसे बड़ा सप्लायर है, लेकिन भारत ये सामग्री दूसरे कई देशों से भी आयात करता है.
उदाहरण के तौर पर, 2016-17 में भारत ने अपने दवा उद्योग के लिए जर्मनी, अमेरिका, इटली, और सिंगापुर से कच्चा माल आयात किया. उस साल भारत ने जर्मनी से 12,000 करोड़ रुपए मूल्य के एपीआईज़ की ख़रीद की, जबकि चीन से की जाने वाली ख़रीद 18,000 करोड़ रुपए की थी.
पिछले कुछ सालों में, चीन से किए जाने वाले आयात के मूल्य में धीरे धीरे कमी आई है.
डॉ चंद्रशेखर ने कहा, ‘किसी भी दवा या दवा में लगने वाली सामग्री का निर्माण कई चरणों की प्रक्रिया होती है. ये इस आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के लिए बहुत अहम है. आमतौर से चीन से आने वाला कच्चा माल बहुत सस्ता होता है, और ज़ाहिर है कि इसी कारण से भारतीय निर्माता उसे पसंद करते हैं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘यही वो क्षेत्र है जहां औषध विभाग की उत्पादन- आधारित प्रोत्साहन योजना सुनिश्चित करेगी कि भारतीय एपीआईज़ प्रतिस्पर्धी मूल्यों पर उपलब्ध हों’.
अपेक्षा की जा रही है कि पीएलआई स्कीम देश में ऊंचे मूल्यों के उत्पादों के निर्माण को बढ़ावा देगी, और निर्यातों में मूल्य संवर्धन का काम करेगी.
चंद्रशेखर ने कहा, ‘ज़ाहिर है दूसरी चीज़ ये है कि एपीआई किस स्टेज पर उपलब्ध होगी- ये कुछ हद तक उस अंतर की तरह है, जो इंस्टेंट नूडल्स और पारंपरिक नूडल्स में होता है. हम उद्योग के साथ मिलकर उस पर काम कर रहे हैं’.
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