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Sunday, 22 December, 2024
होमहेल्थ‘मन की बात’ में जागरूकता पर जोर के बीच विशेषज्ञों की नजर में कुपोषण भोजन की उपलब्धता से जुड़ा मुद्दा है

‘मन की बात’ में जागरूकता पर जोर के बीच विशेषज्ञों की नजर में कुपोषण भोजन की उपलब्धता से जुड़ा मुद्दा है

विशेषज्ञों का दावा है कि भारत एक ऐसे दुष्चक्र में फंस गया है जहां कुपोषित बच्चियां बड़ी होकर कुपोषित मां बन जाती हैं और फिर कुपोषित शिशुओं को जन्म देती हैं.

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नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को भारत सरकार के पोषण कार्यक्रमों का जिक्र किया और इस पर भी बात की कि ये कुपोषण की समस्या घटाने में कैसे मददगार रहे हैं. बहरहाल, वास्तविकता यही है कि सरकार की तरफ से कुपोषण उन्मूलन के लिए सबसे पुराना फ्लैगशिप कार्यक्रम एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) शुरू होने के 47 साल बाद भी भारत में हर तीन में से एक बच्चा अभी भी कुपोषित है. यह बात राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के नवीनतम आंकड़ों से सामने आई है.

अपने मासिक रेडियो प्रोग्राम ‘मन की बात’ में मोदी ने भारत के पोषण कार्यक्रमों के बारे में बात की और भारतीयों से देश में कुपोषण उन्मूलन के प्रयासों में भाग लेने का आग्रह किया. पीएम सितंबर में ‘पोषण माह’ से ठीक पहले कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे.

बहरहाल, 2019 और 2021 के बीच आयोजित और इस साल मई में जारी एनएफएचएस-5 के आंकड़ों से पता चलता है कि 5 साल से कम उम्र के 35.5 फीसदी भारतीय बच्चे (शहरी-30.1 फीसदी, ग्रामीण-37.3) बौने हैं— यानी उनका कद उनकी उम्र के लिहाज से कम है.

डेटा यह भी बताता है कि उसी आयु वर्ग के 32.1 प्रतिशत बच्चे (शहरी: 27.3 प्रतिशत, ग्रामीण: 33.8 प्रतिशत) कमजोर हैं— यानी, उनका वजन उनकी उम्र के लिहाज से कम है और यह भी कि 19.3 प्रतिशत बच्चे (शहरी- 18.5 प्रतिशत, ग्रामीण-19.5 प्रतिशत) कम वजन के है, जिनका वजन उनकी ऊंचाई की तुलना में कम है.

वैसे तो नवीनतम एनएफएचएस सर्वेक्षण— जो केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की तरफ से आयोजित एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण है— में 2015 और 2016 के बीच हुए पिछले सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) की तुलना में मामूली सुधार दिखता है, जिसमें 38.4 प्रतिशत बच्चे बौने, 21 कमजोर, और 35.8 फीसदी कम वजन वाले थे.

लेकिन कुल संख्या अभी भी गंभीर चिंता की वजह बनी हुई है. विशेषज्ञों का दावा है कि भारत एक ऐसे दुष्चक्र में फंस गया है जहां कुपोषित बच्चियां बड़ी होकर कुपोषित मां बन जाती हैं और फिर कुपोषित शिशुओं को जन्म देती हैं.

विशेषज्ञों का मानना है कि गरीबी की समस्या इसकी एक सबसे बड़ी वजह है लेकिन साथ ही इस पर भी जोर देते हैं कि भारत के पोषण कार्यक्रमों को लागू करने के मॉडल में संरचनात्मक मुद्दों पर पूरी तरह ध्यान नहीं दिया गया है.

प्रधानमंत्री की पोषण संबंधी काउंसिल के पूर्व सदस्य डॉ. अरुण गुप्ता ने दिप्रिंट को बताया कि भारत ‘गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों’ की समस्या का सामना कर रहा है.

डॉ. गुप्ता कहते हैं, ‘1975 में भारत सरकार ने आईसीडीएस की शुरुआत देश में छोटे बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति में सुधार के स्पष्ट उद्देश्य के साथ की थी. लेकिन फिर भी, कुछ और बदलावों के बावजूद समस्या बनी हुई है ‘क्योंकि आईसीडीएस शुरू से अत्यधिक दबाव वाला कार्यक्रम रहा है.’

विशेषज्ञों का कहना है कि एक और समस्या अधिकार क्षेत्र की है, एक तरफ सेहत जहां स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की जिम्मेदारी है, वहीं, पोषण महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (डब्ल्यूसीडी) के तहत आता है, जिस वजह से इनसे जुड़े कार्यक्रमों पर अमल में समस्याएं आती हैं.

इस बीच, सरकारी अधिकारियों का कहना है कि केंद्र सरकार का ‘पोषण अभियान’ एक ‘बहु-मंत्रालयी’ कार्यक्रम है जिसमें स्वास्थ्य मंत्रालय एक अहम भूमिका निभाता है.


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गरीबी एक बड़ी वजह

डॉ. गुप्ता कहते हैं कि इस समस्या का एक पहलू यह भी है कि ‘सरकार को लगता है कि पर्याप्त भोजन तो उपलब्ध है और केवल जागरूकता के अभाव की समस्या है.’

डॉ. गुप्ता 2008 में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में स्थापित प्रधानमंत्री पोषण परिषद का हिस्सा थे. परिषद को नीति-निर्देश बनाने और समीक्षा के साथ-साथ ‘पोषण की चुनौती से निपटने के लिए काम करने वाले मंत्रालयों के बीच प्रभावी समन्वय का जिम्मा सौंपा गया था.’

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मेरा मानना है कि जानकारी का अभाव समस्या का केवल एक पहलू है. गरीबी भी एक बड़ी भूमिका निभाती है. कुपोषण से निपटने के लिए लागू किसी भी कार्यक्रम में दो बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए—कम्युनिकेशन और भोजन. सरकारें अमूमन केवल संचार पर ध्यान केंद्रित करती रही हैं.’

आम तौर पर विशेषज्ञों की राय यही रही है कि गरीबी और कुपोषण आपस में जुड़े हैं. 2020 में बीएमसी न्यूट्रीशन जर्नल में प्रकाशित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज के एक अध्ययन में पाया गया था कि उन बच्चों में कुपोषण की दर अधिक थी जो उन घरों से संबंधित थे जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा नहीं थे.

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लिखा, ‘पीडीएस से बाहर गरीब परिवारों के बच्चों में कुपोषण सबसे अधिक है और यह बताता है कि इन्हें पीडीएस में शामिल किए जाने की जरूरत है. भारत में कुपोषण का स्तर घटाने के लिए जरूरी है कि खाद्यान्न की गुणवत्ता में सुधार हो और पीडीएस में फूड बास्केट को और समृद्ध किया जाए.’


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स्वास्थ्य और पोषण 

विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि स्वास्थ्य और पोषण को दो अलग-अलग मंत्रालयों के तहत रखा जाना अनावश्यक और जमीनी स्तर पर विसंगतियों को बढ़ाने वाला है.

डॉ. गुप्ता ने कहा, ‘पोषण की समस्या पर ध्यान दिए जाने में एक मूलभूत दोष है. आप स्वास्थ्य और पोषण को अलग-अलग नहीं रख सकते.’

हालांकि, स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा कि सरकार का पोषण अभियान ‘एक बहु-मंत्रालयी विविध अभियान है जिसमें निश्चित तौर पर स्वास्थ्य एक बड़ा हिस्सा है.’

अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत, हमने ‘बेहद गंभीर कुपोषण से प्रभावित बच्चों के लिए अस्पतालों में इलाज की सुविधा संबंधी ऑपरेशनल गाइडलाइंस’ जारी की हैं. एक हेल्थ फैसिलिटी के तहत 1080 पोषण पुनर्वास केंद्र संचालित होते हैं और यहां अत्यधिक कुपोषित बच्चों का इलाज किया जाता है.’

दिशानिर्देश बेहद गंभीर कुपोषण वाले बच्चों को अस्पतालों से इलाज में मदद को ध्यान में रखते हुए तैयार किए गए हैं.

पूर्व नौकरशाह प्रीति सूदन का कहना है कि कुपोषण के इतने सारे पहलू हैं कि ये स्वास्थ्य मंत्रालय के कामकाज के बीच कहीं गुम हो सकते हैं क्योंकि मंत्रालय को और भी बहुत-सी चीजों पर ध्यान देना पड़ता है.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मेरा मानना है कि इसकी जिम्मेदारी जो कि अभी डब्ल्यूसीडी मंत्रालय की है, के पास ही रहनी चाहिए क्योंकि आंगनवाड़ी (कुपोषण और भूख से निपटने के लिए आईसीडीएस के तहत चलने वाले चाइल्डकेयर सेंटर होते हैं) के कारण इसका महत्वपूर्ण सामुदायिक जुड़ाव है.’ साथ ही वह कहती हैं, ‘जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय बेहद महत्वपूर्ण है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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