शिक्षा शास्त्री पाठ्यक्रम में अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। लेकिन देश भर के कुल छात्रों में करीब 30 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों के छात्र इस पाठ्यक्रम का अध्ययन कर रहे हैं।
नई दिल्लीः शिक्षा शास्त्री, जो कि संस्कृत में बी.ए़़ड. के समकक्ष एक पाठ्यक्रम है, का अध्ययन करने वाले अनुसूचित जनजातियों के छात्रों की संख्या पिछले छह सालों में लगभग दोगुनी हो गई है, यह पुरातन भाषा पर प्राचीन ब्राह्मणिक आधिपत्य के लिए एक चुनौती है। और खास बात तो यह है कि अनुसूचित जनजातियों के छात्र इसमें काफी बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं।
उच्चतर शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार शिक्षा शास्त्री पाठ्यक्रम में 2011-12 में अनुसूचित जनजातियों के छात्रों का कुल प्रतिशत 14.14 था जो 2017-18 में बढ़कर 27.12 प्रतिशत हो गया है। यह अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 7.5 प्रतिशत सीटों की संख्या से कहीं अधिक है।
यूं तो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के लिए 49.5 प्रतिशत सीटें ही आरक्षित होती हैं लेकिन 2017-18 में 72.27 प्रतिशत सीटों पर इन्हीं तीनों समूहों का कब्जा पाया गया।
संकाय के सदस्यों का कहना है कि पिछड़े समूहों के छात्र इसमें न केवल योग्यता के आधार पर प्रवेश कर रहे हैं बल्कि वे पारंपरिक छात्रों से बेहतर प्रदर्शन भी कर रहे हैं।
नई दिल्ली में श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सहायक प्रोफेसर, विचारीलाल मीणा ने कहा, “पारंपरिक छात्र स्कूल के बाद केवल संस्कृत का ही अध्ययन करते हैं जबकि अधिक ‘आधुनिक’ छात्र संस्कृत को एक मुख्य विषय के रूप में चुनते हैं और साथ में अन्य विषयों का भी अध्ययन करते हैं। अनुसूचित जनजाति के अधिकांश छात्र इस ‘आधुनिक’ समूह से ही संबंधित हैं जिसका विविध ज्ञान उन्हें बेहतर प्रदर्शन करने में सहायता प्रदान करता है।
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भावनात्मक और व्यावहारिक कारक
भावनात्मक और व्यावहारिक कारकों का एक संयोजन इसकी वृद्धि का वास्तविक कारण है।
नई दिल्ली में विद्यापीठ के छात्रों के मुताबिक, यह पाठ्यक्रम न केवल सफल रोजगार पाने का एक माध्यम है बल्कि बी.एड. पाठ्यक्रम की अपेक्षा सस्ता भी है। संकाय सदस्यों ने दिप्रिंट को बताया कि शिक्षा शास्त्री पाठ्यक्रम के लिए शुल्क मात्र 5,000 रुपये प्रति वर्ष है जो कि अन्य बीएड पाठ्यक्रमों के शुल्कों से कम है।
उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले के बैलामा गांव में रहने वाले तरुण कुमार सिंह ने कहा, “मेरे दोस्तों ने स्कूल के बाद मुझे संस्कृत अध्ययन में दाखिला लेने का सुझाव दिया, क्योंकि उनका कहना है कि इसके लिए सरकार समर्थन और वित्तीय सहायता प्रदान करती है और यहाँ भविष्य में रोजगार की गुंजाइश है। मैंने शास्त्री डिग्री (बैचलर डिग्री के समकक्ष) हासिल की और मेरे शिक्षकों ने मुझे यहाँ शिक्षा शास्त्री पाठ्यक्रम पूर्ण करने के लिए प्रेरित किया।”
ओडिशा के क्योंझर जिले की प्रोमिला नाइक जैसे अन्य लोगों के लिए इन्डो-यूरोपीय वर्ग की भाषाओं की जननी के रूप में संस्कृत की विरासत को संरक्षित करना काफी महत्वपूर्ण कारक है। संस्कृत में आचार्य (स्नातकोत्तर), नाइक कहती हैं कि उनके कॉलेज के शिक्षकों ने उन्हें संस्कृत शिक्षण के उनके सपने को साकार करने के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने बताया, “मैंने शिक्षा शास्त्री पाठ्यक्रम इसलिए चुना क्योंकि मैं आधुनिक छात्रों को प्राचीन ग्रंथों और पुराणों के बारे में समझाना चाहती हूं। संस्कृत हमारे मूल को हमसे जोड़ती हैं।”
नई दिल्ली के राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में शिक्षाविदों के उप निदेशक डॉ देवानंद शुक्ल के अनुसार, मांग में बढ़ोत्तरी का एक कारण है संस्कृत स्कूल शिक्षकों के लिए इस डिग्री को अनिवार्य करने का सरकार का निर्णय और दूसरा संस्थानों के बढ़ते स्थानीयकरण के कारण सीटों की उच्च संख्या। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान का पुरी कैंपस में उड़ीसा और झारखण्ड के अनुसूचित जनजाति के छात्र अच्छी संख्या में मौजूद हैं ।
विद्यापीठ के सहायक प्रोफेसर मनोज कुमार मीना ने कहा कि कोर्स केवल शिक्षण का ही द्वार नहीं है, बल्कि छात्र यहां भारतीय संस्कृति भी सीखते हैं और सेना में ‘धर्मगुरू’ का रोजगार भी पा सकते हैं।
लंदन संबद्ध एक संस्कृत शिक्षक रोहिनी बख्शी, जिन्होंने ट्विटर पर एक हैशटैग #SanskritAppreciationHour चालू किया था, ने कहा, “दुनिया संस्कृत के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक हो रही है लेकिन कड़ी प्रवास नीतियों के कारण भारतीय संस्कृत शिक्षक बड़े पैमाने पर बाहर जाकर शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं। लेकिन तकनीक की मदद से ऐसा मुमकिन हो रहा है कि प्रचुर मात्रा में शिक्षा को उन तक आउटसोर्स किया जा रहा है, जिससे उनकी आय में बढ़ोत्तरी हो सकती है।”
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सामाजिक कारक
समाजशास्त्रियों और शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि अर्थशास्त्र के अलावा, संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने और पिछड़े वर्गों को इसके अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करने में सरकार का बड़ा योगदान है।
हालांकि, दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में शिक्षक प्रशिक्षण और अनौपचारिक शिक्षा की प्रोफेसर जानकी राजन ने कहा, इस कोर्स में बड़े स्तर पर अनुसूचित जनजाति के छात्रों का शामिल होना, सामान्य वर्ग के छात्रों द्वारा अधिक मांग वाले पाठ्यक्रमों में अध्ययनरत होने का परिचायक हो सकता है।
उन्होंने कहा, “यदि लगभग 30 प्रतिशत छात्र अनुसूचित वर्ग से आ रहे हैं, तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि इस पाठ्यक्रम के लिए आवेदन करने वाले सामान्य वर्ग का अनुपात कम हो, क्योंकि सामान्य वर्ग के अधिकांश छात्र विज्ञान, गणित और सामाजिक विज्ञान जैसे पाठ्यक्रमों का चयन करते हैं”।
हालांकि, वह सहमत थीं कि शायद अर्थशास्त्र इस प्रवृत्ति के केंद्र में था।
“जनजातीय छात्र, शहरों में जाना और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना चाहते हैं। संस्कृत एक आसान और अच्छे अंक प्राप्त करने वाला विषय है तथा किसी भी विषय से बी. एड. सरकारी शिक्षक बनने का एक रास्ता है। इस तथ्य को देखते हुए कि सरकार संस्कृत को बढ़ावा दे रही है, यह एक आकर्षक और साध्य अवसर बन जाता है”।
इस बीच, चंडीगढ़ में समाजशास्त्र के सहायक प्रोफेसर, राकेश ठाकुर ने कहा कि इस प्रवृत्ति को पूरी तरह से भाषाई घटना के रूप में भी देखा जा सकता है।
उन्होंने कहा, “भारत की जनजातीय आबादी ने पीढ़ियों तक अपनी भाषा को मौखिक रूप में देखा है और अब यह एक लिखित लिपि के लिए उत्सुक है। संस्कृत और इसकी लिपि देवनागरी इस उपमहाद्वीप में भाषा का सबसे पुराना रूप है। शायद यही कारण है कि एक लिपि के लिए जनजातीय लोगों की खोज उन्हें संस्कृत की ओर ले जा रही है – यह अतीत के साथ एक कनेक्शन है और एक मंच भी है जिस पर वे अपनी स्वयं की भाषा के लिए आधार विकसित कर सकते हैं।”
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