बाकी बचे 97 प्रतिशत छात्र उन 865 विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते हैं जो सरकारी फंड का केवल आधा पाते हैं।
नई दिल्ली: पिछले तीन वर्षों में उच्च शिक्षा के लिए केंद्र सरकार द्वारा जारी किए गए फंड का पचास प्रतिशत से ज्यादा देश के केवल तीन फीसदी छात्रों पर खर्च हुआ है- भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) कुछ ऐसे संस्थान हैं ।
सरकार की बेखबरी का आलम यह है कि शेष 97 प्रतिशत छात्रों के लिए पूरे देश में उच्च शिक्षा के केवल 865 संस्थान हैं, जिनमें से लगभग आधे ही सरकारी हैं। यही नहीं, सरकार के कुल शैक्षिक अनुदान का केवल पचास प्रतिशत ही इन्हें उपलब्ध हो पाता है।
यहां तक कि प्रतिष्ठित भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) और 10 आईआईएसईआर भी इस श्रेणी में हैं।
दूसरी तरफ, कुल मिलाकर केवल केवल 97 आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम और भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईआईटी) हैं।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) द्वारा संसद के सदन में साझा किये गए आंकड़ों के अनुसार सरकारी धन का सबसे बड़ा हिस्सा – कुल 26.96 प्रतिशत – आईआईटी को दिया गया है जिनमें पढ़ रहे छात्रों का प्रतिशत केवल 1.18 है ; 17.99 प्रतिशत आवंटन एनआईटी को दिया गया है जहां 1.37 प्रतिशत छात्र अध्ययन करते हैं; अनुदान का3.35 प्रतिशत आईआईएम को गया है जिनमें कुल संख्या का केवल 0.12 प्रतिशत छात्र हैं। यही नहीं, बजट का 2.28 प्रतिशत आईआईआईटी को दिया गया है, जहां 0.05 प्रतिशत छात्र अध्ययन करते हैं।
शेष 48.9 प्रतिशत उच्च शिक्षा निधि उन 865 संस्थानों को दी गयी है जहां देश के 97.4 प्रतिशत विद्यार्थी पढ़ते हैं।
शिक्षाविदों और नीति निर्माताओं ने इस त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण के लिए सरकार को शिक्षा प्रणाली के भीतर एक तरह का पदानुक्रम बनाने का दोषी ठहराया है ।अन्य का मानना है कि केंद्र संस्थानों की बढ़ती संख्या के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाया।
‘असमान एवं अनुचित’
हालांकि सरकार के पास उपलब्ध आंकड़े केवल तीन वर्षों के लिए हैं किंतु यूपीए सरकार के दौरान शिक्षा का भार संभालने वाले पूर्व मानव संसाधन मंत्री पल्लम राजू ने कहा कि असमान फंडिंग का यह सिलसिला वर्षों से चलता आ रहा है।
राजू ने दिप्रिंट को बताया”प्रारंभ में उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या काफी कम थी और आईआईटी को प्रीमियर संस्थान के रूप में मान्यता मिली थी। इसलिए, अपनी योग्यता को बनाए रखने के लिए इन संस्थानों को मिल रही फंडिंग का आनुपातिक होना ज़रूरी था। वहीं दूसरी ओर केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने विषयों के क्षेत्र में विस्तार शुरू किया जिसके फलस्वरूप हर विभाग को मिल रही कुल रकम घटती चली गयी”
“साथ ही, हमने इन संस्थानों के संचालन हेतु एक वैकल्पिक तंत्र पर काम नहीं किया जिस वजह से समस्या और भी गंभीर हो गयी”
सरकार की नीतियों को बिल्कुल करीब से देख चुके, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव थोराट ने “पदानुक्रमित” प्रणाली की आलोचना की।
“उच्च शिक्षा संस्थानों को एक हायरार्की या पदानुक्रम के अनुसार फंडिंग दी जा रही है। कुछ संस्थानों को अधिक धन दिया जा रहा है जबकि अन्य के प्रति बेरुखी दिखाई जा रही है। थोराट मानते हैं कि इन तमाम संस्थानों को समान फंडिंग मिलनी चाहिए और फिर सरकार को देखना चाहिए कि ये कैसा प्रदर्शन करते हैं।
शिक्षा नीति पर सरकार के साथ काम करने वाले एक अन्य अधिकारी ने कहा, “जब धन की बात आती है, तो राज्य विश्वविद्यालयोंको अनदेखा किया जाता है। उनमें से ज्यादातर अब एक स्व-वित्त पोषण प्रणाली पर चल रहे हैं। हम ऐसे परिदृश्य में सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में सुधार की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? ”
अधिकारी ने यह भी कहा कि आईआईटी और एनआईटी को भारी मात्रा में पैसा इसलिए मिलता है क्योंकि सरकार भारतीय संस्थानों को विश्व रैंकिंग में शामिल करना चाहती भर है, करती कुछ नहीं ।
“कोई भी मूलभूत ढांचे में सुधार नहीं करना चाहता। मैं इस प्रणाली को लेकर सहज नहीं हूं जहां सरकार कुछ संस्थानों को ज़्यादा पैसे देकर अन्य संस्थानों की हकमारी कर रही है। यह एक जाति व्यवस्था या पदानुक्रम की तरह है। इस पूरी शिक्षा व्यवस्था को समान रूप से फंड दिए जाने की आवश्यकता है।
आईआईटी, आईआईएम की बल्ले बल्ले
फंडिंग के अलावा, आईआईटी और आईआईएम को नीतिनिर्धारण के मामले में भी सरकार की तरफ से अधिकतम तवज्जो मिलती है।
आइआइटी दिल्ली एवं बॉम्बे को इंस्टीट्यूटस ऑफ एक्सेलेंस में जगह मिली है। वे अब विश्व रैंकिंग की दौड़ में हैं जिसके लिए अब उनको मिल रहा अनुदान भी बढ़ेगा।
इंस्टीट्यूटस ऑफ एमिनेन्स के प्रस्ताव को अंतिम रूप देने के पहले सरकार ने “प्रोजेक्ट विश्वजीत” का प्रस्ताव भी रखा था। इसके अंतर्गत आईआईटी को और ज्यादा अनुदान देने की बात की गई थी ताकि उन्हें विश्वस्तरीय संस्थानों के रूप में विकसित किया जा सके।
कुछ इसी तरह आईआईएम भी सरकार के चहेते रहे हैं। पहला उदाहरण- वे पूर्णतया स्वायत्त हैं। इससे उन्हें अपने विवेकानुसार शुल्क वसूलने, शिक्षक बहाल करने और बिना सरकारी हस्तक्षेप के खुद को प्रबंधित करने की अनुमति मिलती है।
परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर ने 2011 में अनुसंधान की गुणवत्ता को अपग्रेड करने और आईआईटी के भविष्योन्मुख विकास के लिए स्थापित एक पैनल का नेतृत्व किया है। उनका मानना है कि “बजट को बराबर करना” इस समस्या का समाधान नहीं है।
उन्होंने कहा, “उच्च शिक्षा संस्थानों की मूलभूत गुणवत्ता को बढ़ाने की ज़रूरतहै और बजट बराबर कर देना इसका उपाय नहीं”
“देश में एक विशाल जनसांख्यिकीय लाभांश है और यदि आप उस जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाना चाहते हैं तो आपको युवाओं की क्षमता का उपयोग करके “वैल्यू” का सृजन करना होगा जोकि शिक्षा के क्षेत्र में हस्तक्षेप के माध्यम से संभव है। “
उनके हिसाब से गड़बड़ी क्या है, इसकी ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं कि देश शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का बहुत कम हिस्सा खर्च करता है। काकोदर ने कहा, “विभिन्न संस्थानों पर हम कितनी धनराशि खर्च कर रहे हैं, इसे देखने की बजाय हमें शिक्षा पर भारत के समग्र खर्च को देखना चाहिए और वह हमारे जीडीपी का कितना प्रतिशत है, उसे भी ध्यान में रखना चाहिए”
Read in English : IITs, IIMs, NITs have just 3% of total students but get 50% of government funds