गोरखपुर : पिछली बार अगस्त 2017 में, जब बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ‘100 एईएस’ नामक बाल चिकित्सा वार्ड में 48 घंटों में 31 बच्चों की मौत कथित रूप से ऑक्सीजन की आपूर्ति के कारण हो गई थी, तो पूरे देश में इन मौतों को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था।
लेकिन जैसा कि 8 महीने पहले, एक बार फिर से उसी वार्ड में 247 बच्चों की मौतों का मामला सामने आया है–औसतन प्रत्येक महीने में लगभग 31 बच्चों की मौतें होती हैं। इसका कड़ा विरोध हुआ? लेकिन सुधार नहीं।
इसी क्रम में लगातार हो रही मौतों, इनमें से अधिकांशतः एईएस के कारण, के बावजूद – तीव्र जापानी बुखार सिंड्रोम -बिना किसी बुनियादी ढांचे, डॉक्टरों की कमी और अति संवेदनशीलता, गंदे वार्ड, प्रत्येक वेंटिलेटर पर कम से कम पाँच बच्चों को रखना, कुल मिलाकर अस्पताल में स्थितियां बहुत खराब हैं।
एक भयावह रात, विभिन्न प्रारूप
अस्पताल प्रशासन का कहना है कि 10 और 11 अगस्त को मौतों का कारण ऑक्सीजन की कमी नहीं बल्कि मुख्य रूप से ब्रेन हेम्ब्रेज, सेरेब्रल पाल्सी, कुपोषण, जन्म के समय वजन का कम होना था। लेकिन पूरे महीने में 50 मौतों की आधिकारिक संख्या और इन दो दिनों में 31 मौतों की सूचना मिली है।
अगले महीने, सितंबर में 66 मौतें हुईं थीं, इसके बाद अक्टूबर में इन मौतों की संख्या बढ़कर 77 हो गई थी। इसी तरह नवंबर और दिसंबर में 36 और 54 मौतें हुईं थी, जबकि 2018 के पहले चार महीनों में (1 मई तक) 14 और मौतों की सूचना मिली है।
एईएस एक वेक्टर द्वारा उत्पन्न बीमारी है और यह वायरस, बैक्टीरिया, रसायन, या विषाक्त पदार्थों के कारण हो सकती है। एईएस के कारण ज्यादातर मौतें उत्तर प्रदेश, असम, बिहार और पश्चिम बंगाल तथा 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों में होती हैं। रोग के गुप्तचर कारक, मौसम और भौगोलिक क्षेत्र के साथ परिवर्तित होते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर, भारत में, मच्छरों का घनत्व बढ़ने पर मानसून के मौसम में जब मच्छरों की संख्या बढ़ती है तो इसका प्रकोप चरम पर होता है।
एईएस के परिणामस्वरूप बुखार और उल्टी एवं तीव्र न्यूरोलॉजिकल अभिव्यक्तियां जैसे कि बेहोशी और मतिभ्रम जैसी बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
मेडिकल कॉलेज में एक कर्मचारी सदस्य जो 10 अगस्त की रात को अपनी ड्यूटी पर था, ने दिप्रिंट को बताया कि “जब मैं उस रात को याद करता हूं तो मैं काँप उठता हूं।“
“डॉक्टर बच्चों को बचाने की कोशिश में इधर-उधर भाग रहे थे, लेकिन वे बच्चे एक के बाद एक मर रहे थे। कई को दौरा पड़ा था। गैस खत्म हो जाने के बाद, हमने पंप के माध्यम से मैन्युअल रूप से ऑक्सीजन को पंप करना शुरू कर दिया। हमने पंप को चलाने में मदद के लिए बच्चों के अभिभावकों को भी बुलाया क्योंकि हमारे कर्मचारियों का स्टॉफ बहुत कम था, लेकिन बच्चे मर रहे थे। जब मैं मैन्युअल रूप से एक तीन साल के बच्चे को ऑक्सीजन दे रहा था। तो उसकी नाक में पड़ा पाइप खून से सराबोर हो गया था।”
हालांकि, मेडिकल कॉलेज के प्रवक्ता डॉ. राकेश सक्सेना ने ऑक्सीजन की कमी के कारण होने वाली इन मौतों की बात को नकार कर दिया है। “यह एक शर्म की बात है। उस रात मौतों का कारण ऑक्सीजन की कमी नहीं बल्कि सेप्सिस, ब्रेन हेम्ब्रेज,कई बच्चों की किडनी फेल हो जाने कारण ये मौतें हुईं थीं और उस समय ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं थी। यह मनगढ़ंत कहानी कई और संदेह पैदा करती है।”
डॉ. क़ाफील खान, ‘नायक’ के रूप में सम्मानित डॉक्टर, जिन्होंने बच्चों को बचाने की भरपूर कोशिश की और बाद में उन्हें ही बच्चों की मौत का जिम्मेदार ठहराते हुए गिरफ्तार कर लिया गया और पिछले महीने के अंत में उन्हें रिहाकर दिया गया था, ने कहा कि “इन मामलों में ज्यादातर बच्चे संक्रमण के कारण मर जाते हैं। लेकिन यह अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि 10 अगस्त को ऑक्सीजन की कमी के कारण मृत्यु दर दोगुनी हो गई थी। हम पहले से ही महत्वपूर्ण मामलों को संभालने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन अचानक ऑक्सीजन की कमी ने समस्या को और भी बढ़ा दिया।”
क्या बदला है अगस्त के बाद से?
100 एईएस वार्डों का निर्माण कार्य 2012 में करवाया गया था और इसके बाद विशेष रूप से रोगियों के लिए तरल ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई। हालांकि, बाद में, यह सुविधा पूरे अस्पताल तक बढ़ा दी गई, जिसमें जहां इसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी, वहाँ पर अक्सर आक्सीजन की कमी को देखा गया।
100 एईएस वार्ड के प्रधान अधिकारी डॉ. भूपिंद्र शर्मा ने बताया कि “एन्सेफलाइटिस के मामलों में, ऑक्सीजन की कमी के कारण मस्तिष्क नालिका में सूजन आ जाती है। यदि ऑक्सीजन मस्तिष्क तक नहीं पहुंच पाता, तो यह तन्त्रिका काम करना बंद कर देती है। कई मामलों में, दबाव के कारण नस भी फट जाती है और जिससे तुरन्त मौत हो जाती है। इसलिए, ऑक्सीजन की मूल आवश्यकता इस वार्ड में है।”
अस्पताल के कर्मचारियों के मुताबिक, ऐसी घटनाएं तब हुई हैं जब ऑक्सीजन का स्तर 4,000 इकाइयों से नीचे चला गया था – केवल 2-3 दिनों के लिए पर्याप्त था – जो की घटना का मुख्य कारण था, इसे हमेशा अन्य विभागों से आपूर्ति को हटाकर संभाला जाता था।
घटना से एक महीने पहले, अनिल ने जुलाई में अपने दो महीने के बेटे को एन्सेफलाइटिस के कारण खो दिया था। उन्होंने कहा कि पर्याप्त ऑक्सीजन की आपूर्ति न हो पाने के कारण मेरे बेटे को दूसरे अस्पताल के लिए रेफर कर दिया गया। अनिल बताते हैं कि “डॉक्टरों ने मुझे बताया कि मुझे मैन्युअल रूप से एंबू पंप के माध्यम से ऑक्सीजन देना होगा, क्योंकि अस्पताल में ऑक्सीजन के साथ-साथ कर्मचारियों की भी कमी है। डॉक्टरों ने यह भी कहा कि अगर कुछ गलत होता है, तो यह जिम्मेदारी आपकी होगी।
“मैं डर गया और फिर उसे एक प्राइवेट अस्पताल ले गया। उसे एक महीने के लिए भर्ती कर लिया गया और इसके बाद उन्होंने मेरे बेटे को फिर बीआरडी रेफर कर दिया, क्योंकि प्राइवेट अस्पताल में आवश्यक बुनियादी सुविधाओं का अभाव था। अनिल ने शोकाकुल भाव से बताया कि यहाँ भर्ती होने के कुछ दिन बाद, ऑक्सीजन की आपूर्ति रुक जाने के कारण मेरे बच्चे की मौत हो गई।”
विनोद कुमार यादव, जिनके 12 दिन के बेटे की मृत्यु 9 अगस्त को हुई थी, ने कहा कि 9 अगस्त को ऑक्सीजन का स्तर कम हो रहा था, लेकिन कुछ भी नहीं किया गया क्योंकि अस्पताल मुख्यमंत्री सीएम योगी आदित्यनाथ का स्वागत करने में व्यस्त था, जिन्होंने मस्तिष्क ज्वर और एईएस द्वारा पीड़ित महत्वपूर्ण बच्चों के लिए वार्ड का उद्घाटन किया।
“9 अगस्त को बच्चों का कोई इलाज नहीं किया गया। सभी डॉक्टर और कर्मचारी सदस्य व्यवस्था करने में व्यस्त थे। यादव ने कहा, असल में, मुझे बताया गया था कि ऑक्सीजन की आपूर्ति सीमित है इसलिए मुझे एम्बू पंप के माध्यम से अपने बच्चे को ऑक्सीजन देना चाहिए।”
“जब मैं उसे ऑक्सीजन दे रहा था, तो उन्होंने मुझे वार्ड से चले जाने के लिए कहा क्योंकि योगी जी परीक्षण के लिए आ रहे थे। जब मैंने उनसे पूछा कि अगर मैं चला जाऊंगा तो मेरे बच्चे को ऑक्सीजन कौन देगा, तो उन्होंने कहा कि वे ख्याल रख लेंगे। अगले दिन वह मर गया।”
अस्पताल अब दावा कर रहा है कि समस्या का समाधान कर लिया गया है। तरल ऑक्सीजन, M/s पुष्पा सेल्स एजेंसी के माध्यम से खरीदने के बजाय, जिसके लिए उन्हें प्रति लीटर 16.39 रुपये का भुगतान करना पड़ता था, अब यह सीधे इनॉक्स से ही खरीदेंगे जिसके लिए प्रति लीटर 19.29 रुपये का भुगतान करना पड़ेगा।
बीआरडी प्रवक्ता डॉ सक्सेना ने कहा,”दरें बदल गई हैं, फिर भी हम नियमित आपूर्ति कर रहे हैं और यह कोशिश कर रहे हैं कि बिना देरी किए भुगतान करने की प्रक्रिया को सुनिश्चित किया जा सके।”
रोगियों की भारी संख्या पर शायद ही कोई विशेषज्ञ है
बीआरडी अस्पताल ने न केवल गोरखपुर के मरीजों के लिएयह सुविधा प्रदान की है, बल्कि देवरिया, कुशीनगर, आजमगढ़, फैजाबाद, बाराबंकी, बलिया, बिहार राज्य, साथ ही पड़ोसी देश नेपाल के आस-पास के जिलों में भी इस सुविधा को विस्तारित किया है। बरसात के मौसम में, जब मच्छर प्रजनन अपने चरम पर होता है और इन क्षेत्रों में मस्तिष्क ज्वर व्यापक होता है, तो अस्पताल में किसी भी समय लगभग 1,600 संदिग्ध मामले आ सकते हैं, जिनमें से अंततः लगभग 400-500 परीक्षण भयानक बीमारी के लिए सकारात्मक निकलते है ।
लेकिन इन मामलों के इलाज के लिए डॉक्टरों की कुल संख्या, बाल चिकित्सा देखभाल के साथ दूसरे मरीजो की भी देखभाल को लेकर ,वर्तमान में सिर्फ 11 है – 9 सलाहकार (अनुबंध पर पाँच, यूपी लोक सेवा आयोग से चार) और 2 वरिष्ठ रेजीडेंस हैं । अगस्त की घटना के बाद, तीन डॉक्टरों को हटा दिया था और एक ने अपनी मर्जी से इस्तीफा दे दिया था।
इससे भी बदतर और क्या होगा, इन विशेषज्ञों में से कुछ को जापानी बुखार का इलाज करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। ज्यादातर मामलों में, डॉक्टर आवश्यक जाँचे नहीं करते हैं और इसे सामान्य बुखार के रूप में देखते हैं, जो बाद में जटिलताओं का कारण बन जाता है। एक बार जब बच्चे को जापानी बुखार हो जाए, तो विशेषज्ञ का ध्यान भी एक आवश्यकता से अधिक महत्वपूर्ण होता है।
डॉ. क़ाफील खान ने समझाते हुए बताया कि “जब जापानी बुखार के लिए एक बच्चे का इलाज किया जाता है, तो ड्रिप के माध्यम से दिया गया तरल उसके वजन पर निर्भर करता है। तरल को बूंद-बूंद से ड्रॉप किया जाना चाहिए, जो केवल एक विशेषज्ञ ही कर सकता है। यदि एक मेडिकल छात्र को नौकरी दी जाती है तो केवल एक वरिष्ठ डॉक्टर ही उस बीमारी का इलाज़ कर सकता है , वरना यह जटिलताओं और परेशानियों का कारण बन जाएगा।” अगर तरल पदार्थ की मात्रा अधिक हो जाए, तो पहले से ही मस्तिष्क तन्त्रिका की सूजन में और अधिक वृद्धि हो जाती है, जिससे बच्चे की मौत हो सकती है।”
अगस्त से, यूपी सरकार ने पूरे राज्य में रिक्त पड़े 7,000 सरकारी डॉक्टर के पदों को भरने के लिए विज्ञापित किया है। इन्होंने, वॉक-इन-इंटरव्यू, सेवानिवृत्त डॉक्टरों के विस्तारऔर यूपीपीएससी के माध्यम से अधिक पद भरने की उम्मीद की है; हालांकि, पिछले सात महीनों में कोई नई भर्ती नहीं की गई है।
“हालांकि यूपी सरकार ने एक अच्छे वेतन का वादा किया है, कोई भी नौकरी करने को तैयार नहीं है। डॉ. काफील ने कहा, “डॉक्टरों की गिरफ्तारी के बाद वे डॉक्टर के पेशे में आने से कतरा रहे हैं। “बीआरडी में इलाज किए जा रहे मरीजों की संख्या के साथ, कम से कम 16 वरिष्ठ डॉक्टरों की आवश्यकता है लेकिन इतने सारे मामलों से निपटने के लिए कर्मचारी उपलब्ध नहीं है।”
अत्यधिक गंदगी
वार्ड के भीतर 100 बिस्तरों में से केवल 50 बिस्तरों की जिम्मेदारी ही एईएस की है। लेकिन संक्रमण से पीड़ित मरीजों की गहन देखभाल कैसे सम्भव है पूरी सफाई या सावधानी के बिना?
आईसीयू वार्ड के गलियारे के माध्यम से निकलते समय पेशाब की बदबू साधारण व्यक्ति को भी बीमार कर देती है। पूल में भरा गंदा पानी, कोने में इकट्ठा प्लास्टिक का ढ़ेर, बचे हुए खाने का ढ़ेर, जो मच्छरों तथा मक्खियों का ठिकाना है और वार्ड में प्रवेश करने से पहले कोई भी मॉस्क पहनने और कमरे के बाहर जूते निकालने की परवाह नहीं करता।
नवजात शिशुओं को एक साथ इकट्ठा करके वेंटिलेटर और वार्मर पर रख दिया जाता है, नाक में पड़ी नली को चेहरे पर रख दिया जाता हैं, जो कि ड्यूटी पर आई नर्सों द्वारा बेड के बीच में स्थापित किया जाता है।
एईएस वार्ड के प्रधान अधिकारी डॉ. भूपेंद्र के मुताबिक, जून तक स्थिति बदल जाएगी, अस्पताल का दावा है कि जब वर्तमान में निर्माणाधीन एक नया वार्ड का निर्माण कार्य पूरा हो जाएगा, तो मौजूदा 100 बिस्तरों में 470 नए बिस्तर जोड़े दिए जाएंगे। लेकिन मौजूदा संख्याओं का ध्यान रखने के लिए शायद ही पर्याप्त कर्मचारी हैं, 470 नए बिस्तरों पर कोई कर्मचारी नहीं है।
नव-प्रसव देखभाल वार्ड की स्थिति भी आश्चर्यजनक है। उपकरण खरीदने के लिए डॉक्टरों द्वारा दिए गए प्रस्तावों के बावजूद, कुछ भी नहीं किया गया है। एक सिंगल वेंटिलेटर पर रखे पाँच बच्चों को एक-साथ देखना आम बात है।
“हजारों बच्चों के लिए केवल 16 वार्मर हैं। सामान्य परिस्थितियों में, पैदा होने वाले प्रत्येक बच्चे को समय-समय पर, एक वार्मर पर रखे जाने की आवश्यकता होती है। लेकिन जब हमने बुनियादी सुविधाओं के बारे में पूछा तो एक डॉक्टर ने अपना नाम न छापने की शर्त पर हमें यह बताया कि जो उपलब्ध है हमें उसी से प्रबंध करना पड़ता है।”