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Tuesday, 5 November, 2024
होमशासनआधार, 377, बाबरी: मुख्य न्यायाधीश मिश्रा को 18 दिन के कार्यकाल में लेने है 10 बड़े फैसले

आधार, 377, बाबरी: मुख्य न्यायाधीश मिश्रा को 18 दिन के कार्यकाल में लेने है 10 बड़े फैसले

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मिश्रा के विवादस्पद कार्यकाल का केवल एक महीन बचा है लेकिन वह भारत के भविष्य को बदलकर रख सकते हैं 

नई दिल्ली : भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के 2 अक्टूबर को सेवानिवृत्त होने के साथ हालिया समय का सबसे कठिन और विवादित कार्यकाल भी समाप्त होगा। मिश्रा के कार्यकाल के दौरान उच्च प्रोफ़ाइल मामलों, विवादों, आलोचनाओं और भ्रष्टाचार के आरोपों की बहुतायत रही। अगस्त 2017 में शुरू हुए जस्टिस मिश्रा के कार्यकाल के अधिकाँश भाग के दौरान न्यायपालिका विवादों में घिरी रही, खासकर जनवरी के बाद जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने (मिश्रा के बाद ) प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी।

हालांकि यह सब बीती बातें हैं। मिश्रा के कार्यकाल के 18 दिन बचे (3 सितम्बर से गिनती शुरू करें) हैं जिसमें उन्हें कम से कम 10 अति महत्वपूर्ण मामलों में फैसला सुनाना है जिनमें से कुछ हैं – आधार मामले को सुलझाना, समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देना और राजनैतिक रूप से संवेदनशील राम जन्मभूमि / बाबरी मस्जिद मामला।

आधार पर फैसला

पहली याचिका दायर करने के पांच साल बाद, पांच जजों की संविधान बेंच ने आधार की संवैधानिक वैधता पर अपना आदेश सुरक्षित रखा है – वह अद्वितीय बॉयोमीट्रिक पहचान योजना जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का चहेता प्रोजेक्ट बन चुकी है।


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धारा 377

एक सप्ताह तक दलीलें सुनने के बाद बाद सुप्रीम कोर्ट ने 17 जुलाई को समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाने की मांग करने वाली याचिकाओं पर अपना आदेश सुरक्षित रखा। पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने उन अपीलों को सुना जो धारा 377 (समलैंगिक सेक्स को अपराध की श्रेणी में डालने वाला कानून) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देती हैं।

हालांकि, नाज़ फाउंडेशन मामले में लंबित समीक्षा याचिका – जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को बदल दिया था जो समलैंगिकता को कानूनी वैधता प्रदान करती थी , बहस के लिए उपलब्ध नहीं थी।

2017 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निजता को मौलिक अधिकार घोषित कर दिए जाने से उत्साहित होकर कई जानी मानी हस्तियों ने कई अपीलें दायर की जो उनके सेक्सुअल ओरिएंटेशन को चुन पाने की स्वतंत्रता से सम्बंधित थीं।


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सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि मौलिक अधिकारों के पीछे का विचार अदालतों को उन कानूनों को ख़त्म करने की शक्ति देना है जिन्हें कोई भी सरकार नहीं छुएगी क्योंकि ऐसा करने से उनके वोट कम होंगे।

बेंच ने कहा था, “जिस क्षण हम आश्वस्त हों जाएँ कि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है ,हम विधायिका के भरोसे न बैठकर उसी क्षण उस क़ानून को निरस्त कर देंगे।

क्या मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अंग है ?

सर्वोच्च न्यायालय को राम जन्माभूमि-बाबरी मस्जिद के विवाद की सुनवाई शुरू करने से पहले इस प्रासंगिक सवाल का जवाब देना होगा। 20 जुलाई को तीन जजों की एक विशेष खंडपीठ ने इस मामले को लेकर अपन फैसला सुरक्षित रख लिया कि क्या 1994 के एम इस्माइल फ़ारूक़ी जजमेंट में कही गयी बातों (मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं ) पर एक बड़ी खंडपीठ द्वारा फिर से विचार किये जाने की ज़रुरत है।

पहले तो सीजेआई मिश्रा की अगुआई वाली पीठ को टाइटल विवाद मामले पर फैसला करना था जो आने वाले लोकसभा चुनावों के लिए किये जानेवाले प्रचार अभियान को काफी हद तक प्रभावित करेगा । हालांकि, यह निर्णय अब मिश्रा के उत्तराधिकारी लेंगे।

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति

पांच न्यायाधीशों की संविधान बेंच ने प्रसिद्ध साबरीमाला मंदिर में एक निश्चित उम्र की महिलाओं के प्रवेश करने के मुद्दे पर अपना आदेश सुरक्षित रखते हुए कहा था कि यह यह प्रतिबंध “पितृसत्तात्मक” सोच पर आधारित था जिसके अनुसार समाज में पुरुषों का प्रभुत्व उन्हें पूजा – पाठ करने में सक्षम बनाता है, जबकि एक महिला – जो केवल “मनुष्य की संपत्ति मात्र” है , तीर्थयात्रा से पहले आवश्यक तपस्या के 41 दिनों के लिए शुद्ध रहने में असमर्थ है।


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अदालती कार्रवाई का सीधा प्रसारण

सर्वोच्च न्यायालय ने संकेत दिया कि वह प्रायोगिक आधार पर पर कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण किये जाने के सुझाव पर विचार के लिए तैयार था। हालाँकि, तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अगस्त में वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह की याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था। केंद्र ने जयसिंह की याचिका का समर्थन तो किया लेकिन साथ ही चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि कुछ ऐसे मामले हैं जो प्रकृति में संवेदनशील हैं और उन्हें लाइव स्ट्रीम नहीं किया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति डी.वाय. चंद्रचूड़ ने रिकॉर्ड की गयी कार्यवाही के दुरुपयोग की आशंका व्यक्त करते हुए कहा था, “आइए पहले इससे शुरुआत करें। यह सिर्फ एक प्रायोगिक परियोजना भर है। हम किसी सम्भावना से इंकार नहीं कर रहे हैं और समय के साथ-साथ सुधार अवश्य आएगा।”

न्यायमूर्ति डी.वाय. चंद्रचूड़ ने रिकॉर्ड की गयी कार्यवाही का दुरुपयोग किये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए कहा था।


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व्यभिचार सम्बंधित कानूनों में समानता

8 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने उस धारा 497 की संवैधानिक वैधता पर अपना सुरक्षित रख लिया किया जिसके अनुसार पति को व्यभिचार करने के लिए दंडित किया जा सकता था । जनवरी में शीर्ष अदालत ने कहा था कि कानून का पुनरावलोकन किये जाने की जरूरत है और इस मुद्दे को संविधान बेंच में भेज दिया था।

“यह प्रावधान काफी पुरातन लगता है, खासकर जब समाज में प्रगति हुई है । इस प्रकार विश्लेषण किये जाने पर हमारा सोचना है कि यह उचित है कि सामाजिक प्रगति, धारणा में बदलाव, लिंग समानता और लिंग संवेदनशीलता को मद्देनज़र रखते हुए पहले के निर्णयों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है … ”


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हालाँकि सरकार ने “शादी की पवित्रता” को बनाये रखने के लिए क़ानून को बरक़रार रखने के पक्ष में दलील दी लेकिन शीर्ष अदालत ने यह कहते हुए जवाब दिया: ” जब पति सहमति दे सकता है तब विवाह की पवित्रता कहां रह जाती है …

हम कानून बनाने की लिए विधायिका की योग्यता पर सवाल नहीं उठा रहे हैं लेकिन आईपीसी की धारा 497 में ‘सबकी भलाई’ कहाँ निहित है ? ”

आपराधिक आरोपों से घिरे सांसदों / विधायकों को अयोग्य घोषित किया जाना

पांच न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने 29 अगस्त को एक याचिका पर अपना आदेश सुरक्षित रखा था जिसमें सांसदों के आपराधिक आरोपों का सामना करने के बाद या अपराध के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित करने की मांग की गई थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल से पूछा था कि क्या चुनाव आयोग को मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल को आवंटित आरक्षित प्रतीक वापस लेने का अधिकार दिया जा सकता है, अगर उस दल ने आपराधिक मामलों से घिरे व्यक्तियों को मैदान में उतारा हो ?

इसके जवाब में एजी ने अपना मत प्रकट किया कि अदालत संसद के कार्यक्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती है क्योंकि ऐसा करना न्यायपालिका के लिए निषेध है। उन्होंने कहा था कि उनके आवंटित प्रतीक पर उम्मीदवारों को मैदान में उतारना राजनीतिक दलों का अधिकार है और अदालत इसका अतिक्रमण नहीं कर सकती।

पदोन्नति में आरक्षण

30 अगस्त को, शीर्ष अदालत ने उन याचिकाओं के एक समूह पर अपना फैसला सुरक्षित रखा जो सुप्रीम कोर्ट के अपने ही एम नागराज फैसले की समीक्षा की मांग कर रही थी। यह फैसला पदोन्नति में आरक्षण पर प्रतिबंध लगाता है।

बेंगलुरू निवासी एक एक सेवानिवृत्त पीडब्ल्यूडी अभियंता नागराज, जिन्होंने पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ लड़ाई जीती थी, ने कहा कि यदि एक दशक से अधिक समय के बाद सुप्रीम कोर्ट इस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए सहमत होती है तो यह एक खतरनाक उदाहरण होगा।


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नवंबर 2017 में, सर्वोच्च न्यायालय ने नागराज के फैसले पर पुनर्विचार की मांग करनेवाली याचिका को एक बड़ी बेंच के ज़िम्मे सौंप दिया। फैसले के मुताबिक, राज्यों को सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी / एसटी) श्रेणी के उम्मीदवारों को पदोन्नति में आरक्षण देने की बाध्यता नहीं थी। हालांकि, राज्य इन समुदायों के पिछड़ेपन एवं सार्वजनिक क्षेत्र में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को साबित करनेवाले मात्रात्मक आंकड़े एकत्र करने के बाद ऐसे प्रावधान बना सकते थे।

सांसदों/ विधायकों के वक़ालत करने पर रोक

9 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने ने वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा जिन्होंने सांसदों एवं विधायकों द्वारा वकीलों के रूप में अभ्यास करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। शीर्ष अदालत ने केंद्र के तर्क को नोट किया कि सांसद या विधायक जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि हैं और पूर्णकालिक सरकारी कर्मचारी नहीं हैं।

दहेज विरोधी कानून में संशोधन

सीजेआई मिश्रा ने जुलाई 2017 के आदेश की समीक्षा की मांग करती हुई एक याचिका, जो तत्काल गिरफ्तारी रोककर दहेज विरोधी कानून के प्रावधानों को कमज़ोर करने की मांग कर रही थी ,पर फैसले को सुरक्षित रखते हुए कहा हुए कहा था कि दहेज का शादियों पर एक “चिलिंग इफेक्ट ” होता है।

याचिकाओं के एक समूह ने ने जस्टिस ए के गोयल और यू.यू. ललित की डिवीजन खंडपीठ द्वारा पारित शीर्ष अदालत के फैसले को चुनौती दी थी ।

Read in English : Aadhaar, 377, Babri: CJI Misra has to deliver 10 landmark judgments in 18 working days

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