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Wednesday, 18 December, 2024
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मालदीव के साये में: हिमालय के बाद चुनौती अब हिंद महासागर में

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हिमालय में डोकलाम के अलावा हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की महत्वाकांक्षाओं के चलते उभरी चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत को मालदीव के लिए मजबूत और टिकाऊ रणनीति अपनानी होगी.

मालदीव में फिर संकट गहराया: राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने देश में इमरजेंसी घोषित करके न केवल अपने द्वीप देश को बल्कि पूरे हिंद महासागर क्षेत्र को बड़े संकट में डाल दिया है. बढ़ते असंतोष तथा विरोध के कारण बेबस हो चुके यामीन ने संकट से उबरने में मदद के लिए अपने ‘मित्र’ देशों के यहां विशेष दूत भेजे थे. लेकिन उन्हें आज-न-कल दूसरे विकल्पों को तलाशना पड़ेगा.

करीब 1200 द्वीपों से बना मालदीव एशिया का सबसे छोटा देश है, जो भारत के दक्षिणी छोर से आगे करीब 400 मील में बसा है और जिसकी आबादी करीब 4 लाख है. उसकी आबादी में करीब 22,000 भारतीय शामिल हैं, जो स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवाओं से जुड़े हैं. पूर्व राष्ट्रपति नशीद ने धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) और समुद्र के चढ़ते स्तर के कारण मालदीव के समुद्र में समा जाने के खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचने के लिए कैबिनेट की बैठक पानी के अंदर की थी. आज, यामीन ने वहां लोकतंत्र को तानाशाही के गंदे पानी में डुबो दिया है.

भारत ने वहां के हालात पर नजर रखने और इंतजार करने का जो फैसला किया है, वह अपने पड़ोस में उभरे संकट पर हड़बड़ी में कोई कदम न उठाने के विदेश मंत्रालय के पारंपरिक रुख का ही परिणाम है.

लेकिन राजनीतिक अनिश्चितता इस द्वीप देश के लिए कोई नई बात नहीं है. पूर्व राष्ट्रपति तथा यामीन के भाई अब्दुल गयूम ने 1988 में अपने खिलाफ उठी बगावत से निबटने के लिए भारत की मदद मांगी थी. देसी मालदीवी व्यवसायी अब्दुल्ला लुथुफी के नेतृत्व में पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन ऑफ तमिल ईलम (प्लोट) नामक गुट के भाड़े के सैनिकों ने तत्कालीन राष्ट्रपति गयूम के खिलाफत बगावत कर दी थी. उस समय भारतीय शांति सेना (आइपीकेएफ) श्रीलंका में एलटीटीई से निबट रही थी.

मालदीव और भारत की मित्रता काफी पुरानी है और लाखों भारतीय सैलानी वहां तफरीह करने जाया करते हैं (कई विमान सेवा कंपनियों से मिली खबर बताती है कि वर्तमान संकट के दौर में भी चंद सैलानियों ने ही अपने टिकट रद्द करवाए हैं). मालदीव के लोग बेहतर शिक्षा तथा सस्ते इलाज के लिए भारत पर निर्भर रहते हैं. दोनों देशों ने 1981 में विशेष व्यापार समझौता किया था, जिसके तहत मालदीव को कुछ ऐसी चीजें उपलब्ध होने लगी हैं, जिन्हें भारत आम तौर पर आयात नहीं करता. मालदीव में कई लोगों को 2014 में आए पेयजल संकट की याद है कि तब किस तरह सबसे पहले भारत ही मदद करने को आगे आया था. भारतीय नौसेना ने अपने आइएनएस सुकन्या तथा आइएनएस विवेक नामक दो पोतों को वहां तैनात कर दिया था क्योंकि उनमें खारे जल को शुद्ध करने की व्यवस्था है. इन पोतों को माले हार्बर में तब तक तैनात रखा गया जब तक खारे जल को शुद्ध करने के संयंत्र की मरम्मत पूरी नहीं हो गई.

‘सार्क’ के सदस्य मालदीव को 1965 में अंग्रेजों से आजादी मिली और तभी से वहां राजनीतिक उथलपुथल जारी है. उसने अपना पहला चुनाव इसके 49 साल बाद 2009 में करवाया. और अब वह नए संकट में फंस गया है.

सैन्य हस्तक्षेप के तमाम शोर के बीच भारत अपनी रणनीति स्पष्ट नहीं कर पाया है. शिवालिक श्रेणी का एक रडारभेदी युद्धपोत बांग्लादेश तथा म्यांमार की ओर, और तेग श्रेणी का युद्धपोत मेडागास्कर, मॉरिशस एवं शेसेल्स के आसपास बंगाल की खाड़ी में गश्त लगा रहा है, आइएनएस त्रिशूल को अदन की खाड़ी में छापामारों पर नजर रखने के लिए तैनात किया गया है, तो कोरा श्रेणी का युद्धपोत अंडमान सागर में गश्त लगा रहा है. दूसरे किसी भी देश के मुकाबले भारत की नौसेना मालदीव में किसी कार्रवाई के लिए ज्यादा तेजी से पहुंच सकती है.

भारत के हित में यही है कि वह वर्तमान सरकार को भरोसे में ले, सक्षम विकल्प की तलाश करे और यामीन को स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव कराने को राजी करे और नई सरकार को महाशक्तियों की होड़ से मुक्त करे. यामीन ने जल्दी चुनाव करवाने की इच्छा जताई भी है.

सोमालिया और मलक्का जलडमरूमध्य के बीच रणनीतिक महत्व के साथ स्थित मालदीव अगर कमजोर तथा अस्थिर रहेगा तो वह डाकुओं, तमाम तरह के आतंकियों, नशे और हर तरह का काला धंधा करने वालों का अड्डा बन जाएगा. फिलहाल क¨ई भी गलत कदम पूरे हिंद महासागर क्षेत्र (आइओआर) को नए युद्धक्षेत्र में तब्दील कर सकता है, जिसके सुरक्षा तथा रणनीति संबंधी गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

नई घटना इस क्षेत्र के लिए भौगोलिक तथा रणनीतिक महत्व रखती है, खासकर इसलिए कि माले और चीन के बीच दोस्ती बढ़ रही है.

चीन ने वहां 2011 में अपना दूतावास खोला और वहां अपने पैर तेजी से फैला रहा है. पाकिस्तान के अलावा मालदीव ही सार्क देशों में दूसरा ऐसा देश है जिसने चीन के साथ मुक्त व्यापार संधि की है. राष्ट्रपति जिनपिंग के दौरे के बाद दोनों देशों के संबंध और मजबूत हुए हैं. सार्क देशों में मालदीव ही ऐसा देश है जहां का दौरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नहीं किया है.

यह द्वीप देश चीन कीे महत्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट वन रोड’ परियोजना में भागीदार बनने के लिए पूरी तरह तैयार है, हालांकि माले और बीजिंग को जड़ने वाली कोई सड़क है नहीं. चीन वहां बुनियादी ढांचे और रणनीतिक परियोजनाओं (मसलन माले और हुलहुलो द्वीप को जोड़ने वला पुल) पर भारी निवेश कर रहा है. यह चीन के बढ़ते प्रभाव का एक संकेत है. मालदीव की संसद ने मुक्त व्यापार समझौते पर बिना चर्चा किए उसे मंजूरी दे दी. यह एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से लाभ उठाने और भारत के खिलाफ चीनी कार्ड खेल कर अपनी स्थिति मजबूत करने की यामीन की तत्परता को ही उजागर करता है. चीन से पर्यटकों की आमद भी काफी बढ़ी है, जो पर्यटन पर निर्भर मालदीव की अर्थव्यवस्था के लिए एक वरदान ही है.

अगस्त 2017 में चीनी युद्धपोत जब माले के तट पर आ लगे थे तब भारत में खतरे की घंटी बज उठी थी. मालदीव के विदेश मंत्री मोहम्मद असीम प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मिलने आए थे और भारत को प्राथमिकता देने की अपनी नीति की फिर से पुष्टि की थी. कहने की जरूरत नहीं है कि आइओआर के रणनीतिक महत्व के मद्देनजर भारतीय नौसेना इस क्षेत्रों पर कड़ी निगरानी रख रही है और वहां अवांछित तत्वों को पकड़ने की अपनी क्षमता काफी बढ़ा ली है. यहां तक कि एक अपहृत पोत को उसने कुछ दिनों पहले मुक्त कराया.

ग्यारह देशों (भारत, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मालदीव, मलेशिया, म्यांमार, शेसेल्स, सिंगापुर, श्रीलंका, और थाइलैंड) की समुद्री एजेंसियों के प्रमुखों की बैठक पिछले वर्ष गोवा में हुई और उसमें सामुद्रिक मामलों में आपसी सहयोग करने, आइओआर के समुद्र के क्षेत्र में चुनौतियों और उभरते खतरों का सामना करने, सेना के गठन की संभावनाओं और समुद्री मामलों को लेकर जागरूकता बढ़ाने और सुरक्षा व्यवस्था पर गंभीर विचार-विमर्श किया गया.

जिस तरह चीन ने जिबूटी में अपना नौसैनिक अड्डा बनाया है उसी तरह ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारत की रणनीतिक भागीदारी न केवल खेल को बदल देने वाला कदम है बल्कि जिबूटी में चीनी अड्डे से किसी संभावित खतरे का प्रभावी जवाब भी बन सकती है. डोकलाम में तनानती और चीन की ‘एक कदम पीछे’ वाली रणनीति से एक बात तो साफ हो गई है. लगता है कि भारत और चीन के बीच अगर भविष्य में कोई टकराव हो सकता है तो उसका खतरा हिमालय की ऊंचाइयों से ज्यादा ओआइआर में है.

इसलिए भारत को ओआइआर में चीन के इरादों का जवाब देने के लिए मालदीव में मजबूती के साथ और धीरे-धीरे गति बढ़ाकर एक मजबूत तथा टिकाऊ रणनीति बनानी होगी, जो वहां उसकी पैठ को रोक सके.

(लेखक सुरक्षा तथा रणनीतिक मामलों के जानकार तथा ‘ऑर्गनाइजर’ पत्रिका के पूर्व संपादक हैं)

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